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जब मेरे घर पुलिस पहुंची!


यह किस्सा उस समय का है जब मैं अभियांत्रिकी के अंतिम वर्ष(1998) मे था। उन दिनो हम एक छोटे से गांव झालीया मे रहते थे। दिखावे की दुनिया से कोसों दूर विदर्भ (महाराष्ट्र), छत्तीसगड़ और मध्यप्रदेश की सीमा पर बसा एक आम भारतीय गांव "झालीया"। सीधे सादे किसानों का गांव, जिनमे से कुछ ही लोग शहरी सभ्यता और रीती-रिवाज़ों से परिचित थे। और जो लोग कुछ पढ लिख गये थे, वो गांव से पलायन कर शहरों मे बस गये थे।

गांव का जीवन आम बुराइयो से दूर था, कभी लड़ाई झगड़ा, दंगा फसाद, चोरी-चकारी जैसे मामले मैने नही सुने। कभी कोई कहा-सुनी या विवाद हो भी जाता तो लोग आपस मे बैठ कर मामला सुलझा लेते थे। पुलिस का आम जीवन मे कोई हस्तक्षेप नही था। पुलिस का दर्शन गांव मे सिर्फ चुनावों के समय ही होता था, वह भी शासकीय नियमो से बंधे होने के कारण। अन्यथा उसकी भी जरूरत नही थी।

मैं अपने गांव से यही कोई २४ किमी दूर गोंदिया(जिला मुख्यालय) मे इंजीनियरींग कर रहा था। हर सप्ताह शनिवार को घर आता था और सोमवार सुबह वापिस चला जाता था। मैं गांव वालो के लिये “आशीष” से “आशीष भैया” मे तब्दील होते जा रहा था। कभी कभार गांव वाले पूछ लिया करते थे कि अपने कॉलेज मे मैं क्या पढ़ता हुं, जिसका जवाब देना मेरे लिये काफी मुश्किल हो जाता था। अब सीधे साधे गांव वालो को कैसे बताये कि हम कम्प्युटर प्रोग्रामिंग सीख रहे है! उन्हे तो टीवी और कम्प्युटर सब एक ही लगता है।

गांव मे जब मन्दिर की पक्की इमारत बनी, तब कुछ लोगो ने मुझसे सलाह लेनी चाही थी कि मंदिर का नक्शा, संरचना कैसी हो। मैं परेशान कि इन्हे कैसे समझाउं कि मैं नागरी(civil) अभियन्ता नही, संगणक अभियन्ता (Computer Engineer) बनने जा रहा हूं ! उनके लिये तो “इन्जीनर साब” याने पुल और इमारत बनाने वाला! उन लोगो को शायद शक हो रहा था कि मैं कॉलेज मे पढ़ाई लिखाई नही करता, नही तो इन्जीनीर कालेज मे पढ़ने वाले को एक मंदिर के नक्शे बनाने मे क्या परेशानी?

कुछ पीठ पीछे पिछे कहते

"अरे जब चौथी पास कल्लु मिस्त्री नक्शा बना सकता है, तो ‘इन्जीनीर कॉलेज’ मे पढने वाला कैसे नही बना सकता ?"

मेरे कॉलेज मे मेरे सहपाठी काफी दूर दूर से थे, मेरी कक्षा एक तरह से छोटा भारत ही थी। मेरे कुछ सहपाठी(विशेषतया कन्याओं) की ग्रामीण जीवन मे काफी दिलचस्पी होती थी। कभी कभी वे मेरे साथ मेरे गांव आ जाते थे। जब कन्यायें गांव आती थी, तब पूरे गांव के लिये एक चटपटी खबर बन जाती थी। गांव वालो को कन्याऒ का पहनावा (जिंस-टी शर्ट) अजीब लगता था, ये सब उन्होने सिर्फ फिल्मों मे ही देखा होता था। हद तो उस समय हो जाती थी, जब वे उन कन्याऒं को मेरे कंधे पर हाथ रखे देख लेते थे। फुसफुहाटो का एक दौर शुरू हो जाता था। बाद मे वे मेरे से पूछते थे कि


“तुम्हारे साथ आने वाली ये लड़कियाँ इतनी बेशरम क्यों है ?”
"तुम उन लोगो को ढंग के कपड़े पहनने क्यों नही कहते ?"

मैं मुस्कराकर रह जाता था। ऐसा था मेरा गांव।

एक दिन गांव मे “महाराष्ट्र राज्य परिवहन” की बस रुकी। बस से एक हवलदार उतरा। सारा गांव सन्न, ये क्या ? गांव मे पुलिस !

बस स्थानक के पास चाय दुकान वाले धनलालजी दौड़ते दौड़ते हवलदार के पास पहुचे, बैठने कुर्सी दी। पानी पेश किया और “दारोगा साहब” के लिये चाय बनाना शुरू किया। हवलदार ने चाय-पानी पिया, गाल मे बढ़िया पान दबाया, तब तक पूरे गांव मे खबर हो चुकी थी कि गांव मे पुलिस आयी है। सारा का सारा गांव चौक पर इक्कठा हो गया था। हवलदार शायद इन सब बातों का आदि था, उस पर भीड़ देखकर कोई फर्क नही पडा था, शान से पान चबा रहे थे।

पान खा कर पीक थुकने के बाद मे उन्होने प्रश्न दागा,

“इस गांव मे कोई ‘आशीष श्रीवास्तव’ रहता है क्या ?”
बस सारा गांव सन्न! ये क्या हो गया ?

धनलाल जी जोकि मैट्रिक पास है, उन्होने गांव वालो का नेतृत्व सम्हाला:
“जी दारोगा जी ! रहता है जी ! वो श्रीवास्तव गुरूजी का लड़का है जी”

गांव वालो मे कानाफुसी शुरू हो गयी। एक ने कहा

आशीष भैया तो शरीफ लगते है, कभी कोई उल्टी सीधी हरकत नही की, अचानक पुलिस उनको ढुंढते कैसे पहुंच गयी?”
दूसरे का शक अब यकीन मे बदल रहा था:
“आशीष भैया शहर मे जाकर बिगड़ गये है ! पढाई लिखाई नही करते हैं !”
लेकिन किसी की हिम्मत नही हुई कि हवलदार से पूछ ले कि वो मेरे बारे मे क्यों पूछ रहे हैं। हवलदार साहब ने ड्न्डा फटकारते हुये आदेश दिया
“मुझे उसके घर का रास्ता दिखाओ।”
धनलाल जी बोले
“जी साहब जी, मेरे साथ चलो जी !”
बस क्या था, धनलाल जी आगे आगे, हवलदार पीछे पीछे , और उनके पीछे सारा गांव ! एक जूलूस की शक्ल मे हवलदार मेरे घर पहुंचा। अब मेरे घर के सामने पूरा गांव जमा था। जितने मुंह थे उतनी बातें। सब अपनी अपनी अटकलें लगा रहे थे।

अब घर मे मम्मी थी, पापा उस समय स्कूल गये थे।(मेरे पापा एक अध्यापक थे)। मेरी मम्मी भी परेशान कि पुलिस घर क्यों आयी है। हवलदार ने मम्मी से मेरे बारे मे पूछा। मम्मी ने कहा कि मैं गोंदिया मे हुं और शनिवार को वापिस आउंगा। हवलदार ने पापा के बारे मे पूछा। मम्मी ने कहा:

“गुरूजी तो स्कूल गये हैं। आप थोड़ी देर बैठ जाईये, मैं किसी को भेज कर गुरूजी को स्कूल से बुला लेती हुं।” 
(पापा को गांव मे गुरूजी के नाम से ही जानते है)

अब पुलिस वाले इतनी आसानी से मान जाये तो पुलिस वाले कैसे ! आदेश फरमाया

“जब आशीष घर आयेगा उसको पुलिस ‘ठेसन’ भेज देना।”

हवलदार साहब चल दिये,सब को परेशान छोड कर। शाम को पापा घर आये, मम्मी ने सारा किस्सा सुनाया। पापा ने शांति से किस्सा सुना, उन्हे सारा किस्सा घर आते समय ही पता चल चुका था। पापा ने कहा

“चिंता मत करो, कल आशीष आयेगा सब पता चल जायेगा।”

दूसरे दिन गांव पहुँचा। जैसे ही मैं बस से उतरा एक कोलाहल मच गया।

 “आशीष आ गया।”

मै चकराया ये क्या है, मै तो हर सप्ताह आता हुं, लेकिन इस सप्ताह ऐसा क्या खास है।

धनलाल जी ने एक कोने मे ले जाकर कहा :
“कल तुम्हे ढुढंते हुये पुलिस आयी थी, क्या घपला किया है? किसी लड़की का चक्कर है क्या ?”

मैने सोचा कोई “घपला” किया होता तो किसी लड़की का बाप घर आता, शायद मुझे अस्पताल जाना होता। लेकिन पुलिस ?

खैर लोगो से बचते हुये घर पहुँचा। सारा का सारा गांव घूर कर देख रहा था, कानाफुसी हो रही थी। और मै भी परेशान ये क्या चक्कर है।

घर पहुँचते ही मम्मी ने सवाल दागना शुरू कर दिये। पापा शांत थे। पापा ने कहा

” नहा धो लो, कुछ खा लो, उसके बाद पुलिस स्टेशन चलते है”।

मेरे पापा का मुझ पर भरोसा था, लेकिन मामला उनकी भी समझ से बाहर था। हम दोनो १० कि मी दूर पुलिस स्टेशन पहुँ। पुलिस स्टेशन मे वो हवलदार नही था, लेकिन दारोगा था। दारोगा पापा को जानता था। उसने पापा से पूछा

“गुरूजी आप यहां कैसे ? सब कुछ खैरियत से तो है?”
पापा ने कहा
“ये तो आपको बताना चाहिये कि सब कुछ खैरियत से है या नही। कल आपका एक हवलदार आशीष को पूछते हुये मेरे घर पहुँचा था”
दारोगा :
“अच्छा अच्छा, वो आशीष ये है !”

मैं और परेशान ! दारोगा अब मेरे से मुखातिब हुये
” तुमने पासपोर्ट के लिये अर्जी दी है ?”
मेरी जान मे जान आयी
” हां जी दी है।”
दारोगा :
“कोई खास बात नही है, नये पासपोर्ट के लिये जो पुलिस जाँच होती है, बस उसी के लिये कल हवलदार को भेजा था।”

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टिप्पणीयाँ
1. Atul उवाच :
सितम्बर 23, 2005 at 6:25 pm ·
सही है। पते की सत्यता जाँचने के लिए हवलदार आया होगा। पूरे गाँव को देख कर शकोशुबह की कोई गुँजाइश न बची होगी कि आप गांव में ही रहते हैं। अब आपके गांव पहुँचने पर क्या नजारा होता है?
2. सुनील उवाच :
सितम्बर 24, 2005 at 9:48 am ·
उस हवालदार को मालूम था कि लोग तो कुछ और ही सोचेंगे, तरह तरह की बातें बनायेंगे. यह भी मालूम होगा कि घर वाले परेशान होंगें. जब आ कर घर देख लिया तो उसने बताया क्यों नहीं कि पासपोर्ट की चेकिंग के लिए आया था ? यह सच है कि बाद में जरुर ऐसी बात सुनाने वाला किस्सा हो जाती है, पर उतना ही सच है कि इन पुलीस वालों को सताना अच्छा लगा है.
सुनील
3. anunad उवाच :
सितम्बर 24, 2005 at 12:14 pm
आनन्द आ गया , पढकर ।
सचमुच , सत्य को कह देना ही मजाक का सबसे अच्छा तरीका है ।

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