आजकल मै थोडा परेशान हुं। ना ना अपनी परेशानीयो से नही, लोगो की परेशानीयो से। अब समझ मे नही आता ऐसा क्या है कि जो देखो अपना दुखडा लिये मेरे पास चला आता है। और दुखडे भी ऐसे कि जिसका मुझे कोई अनुभव ही नही है। कुल मिला कर मै दुखियारा मौसा((Agony aunt का पुरूष वाचक शब्द) बन गया हुं आजकल।
हम ठहरे जावा के मास्टर, जावा के हर मर्ज का ईलाज है हमारे पास, लेकिन आजतक किसी ने एक ठो सवाल नही पूछा। तकनीकी समस्या के लिये सबके पास गूगल जो है, लेकिन अपने हर दुखडे के लिये लोगो ने हमे गूगल बना द…
किस्मत ऐसी पायी है कि मुझे अलग अलग जगह भिन्न भिन्न लोगो के साथ काम करने का सौभाग्य मिलता है। एक अलग ही आनन्द आता है । ऐसे भी मै सुचना तकनीक के क्षेत्र मे काम कर रहा हुं, यह एक ऐसा क्षेत्र है कि आप को भारत के हर कोने से आये हुये सहकर्मियो के साथ काम करने का मौका मिल जायेगा, चाहे आप जहां हो।
अब जब ऐसे वातावरण मे काम करते हों जहां अलग अलग संस्कृति और अलग अलग भाषा भाषी साथ हो तब कभी कभी कुछ मनोरंजक परिस्थितियां पैदा हो जाती है।
मै उस समय दिल्ली मे रहता था और गुडगांव मे काम करता था…
ये कहानी शुरू होती है मेरे अभियांत्रिकी के अंतिम वर्ष से। अंतिम वर्ष और कालेज का प्रोजेक्ट दोनो का एक दूसरे से गहरा नाता है। मै ठहरा कंप्युटर विज्ञान का छात्र, मतलब प्रोजेक्ट याने एक साफ्टवेयर बनाओ। चार साल की मेहनत इसी प्रोजेक्ट पर निर्भर होती है क्योंकि २०% अंक प्रोजेक्ट पर दिये जाते है। प्रोजेक्ट के लिये महाविद्यालय की कंप्युटर प्रयोगशाला मे जो समय मिलता था, पर्याप्त नही होता था। मेरी कक्षा के अधिकांश छात्रो के पास खुद के कंप्यूटर थे या उन्होने किसी कंप्यूटर संस्थान मे प…
और पढ़ेंआज सुबह सुबह मेलबाक्स खोला, एक चिठ्ठी आयी थी।एक पूराने मित्र ने पत्र लिखा था। पढ्कर एक खुश नुमा अहसास हुआ, थोडा अचरज भी। इमेल और इस मित्र से ? जहां तक कम्प्युटर के ज्ञान का प्रश्न है , मेरी जानकारी मे उसे नही था। खैर मैने उसके मेल के उत्तर मे उसे फोन किया। पता चला कि उसने हाल ही मे एक संस्थान मे कंप्युटर सीखना शुरू किया था और उसे इमेल करना सिखाया गया था।
खुशी इस बात की ज्यादा थी कि उसने अपनी जिंदगी का पहला इमेल मुझे किया था और दुःख इस बात का कि मैं शायद अब उसे लगभग भुल चुका…
आदर्शवादी संस्कार सही या गलत इस पर विचार करने से पहले यह निश्चीत कर लिया जाये की, आदर्श की परिभाषा क्या हो ?
आदर्श परिवर्तनशील है। आदर्श भी सामाजिक मान्यताओ परंपराओ की तरह काल, व्यक्ति , परिस्थीती और समाज के अनुरूप बदलता रहता है। जो कल आदर्श था, आवश्यक नही कि वह आज आदर्श हो। आवश्यक नही कि जो किसी एक व्यक्ति के लिये आदर्श हो, दुसरे के लिये आदर्श हो।
पृथ्वीराज चौहान ने मोहम्म्द गौरी को २१ बार क्षमा किया था, यह व्यव्हार पृथ्वीराज चौहान के लिये उस समय की मान्यताओ के लिये आदर्श …
हाल ही मे मै इंद्रजाल पर लोकमत(विदर्भ का लोकप्रिय मराठी दैनिक) पढ रहा था। एक समाचार पर अनायास नजर गयी। समाचार यो तो आपराधिक था जो मै सामान्यातः नही पढता लेकिन मेरे गांव के पडोस से संबधीत था। सोचा पढ लिया जाये। समाचार था “एक भाई के परिवार द्वारा दुसरे भाई के परिवार पर कातिलाना हमला! ”
जब मैने समाचार पढा , मै हैरान रह गया। मै इस परिवार को अच्छी तरह से जानता हुं। मैने सपने मे भी नही सोचा था कि इस परिवार मे ऐसा हो सकता है। लेकिन सत्य मेरे सामने था।
मै यादो मे खो गया। यह परिवार …
खबर है अमिताभ बच्चन बिमार हो गये । माना अमिताभ जी एक उतकृष्ट अभिनेता है, उन्होने हिन्दी फिल्म उद्योग को काफी कुछ दिया है। मै उनके स्वस्थ होने और लम्बी उमर की कामना करता हुं।
लेकिन हमारे मिडीया को क्या हो गया है ? हाथ धो कर पिछे पड गया। सीधा प्रसारण शुरू कर दिया, हर मिनिट की जानकारी देना शुरू कर दी। एक बीमार इंसान को यदि घेर लिया जाये तो वह स्वस्थ होने की बजाय और घबरा जायेगा। मरीज तो परेशान ही, मरीज के घरवाले भी परेशान, बाकी मरीज और उनके घरवाले भी परेशान।
समाचार पत्र, टी वी,…
एक सीधी सादी सी लडकी, पढी लीखी लेकिन मध्यम वर्ग से। जिन्दगी बस घर से कार्यालय और कार्यालय से घर। किसी से ज्यादा घुलना मिलना नही, बस काम से मतलब रखना। ज्यादा उंचे ख्वाब नही, जो घर वाले कहे वह पत्थर की लकीर। कोई डांट दे, या किसी की कोई बात बुरी लगे तो रो देना। एक आम भारतीय लडकी।
एक लड़का, वही मध्यम वर्ग से। घर से पहली बार निकला, दुनियादारी क्या होती है नही मालूम। बचपन से लेकर जवानी तक घरवालो की छत्रछाया मे रहा, जिससे थोड़ा लापरवाह। घर मे लड़कों के स्कूल,महाविद्यालय मे पढ़ा और…
हम फिल्मे क्यों देखते है ? अरे भाई मै तो सिर्फ अपने बारे मे बता सकता हुं कि मै फिल्मे क्यों देखता हुं। भगवान की दया से अब तक क्वांरा हु और कोई महिला मित्र है नही, इसलिये अकेले ही देखता हुं। एक जमाना था जब हम यारो के साथ फिल्मे देखा करते थेहै। वैसे यारो के साथ फिल्मे कहां देखते थे, हंगामा करते थे, नैन सुख लेते थे, पॊप कार्न खाते थे और ठंडा पीते थे। मतलब कुल जमा चित्रपट गृह मे फ़िल्म देखने के अलावा हर वो हरकत करते थे जो नयी नयी जवानी मे की जाती है।
फिल्मे अब भी देखते है लेकिन …
अमरीका से वापिस आये हुये २ सप्ताह हो चुके थे, दीपावली पर घर जाने की पूरी तैयारी थी। भला हो भारतीय रेलवे का जो उन्होने इन्द्रजाल के द्वारा यात्रा टिकट उपलब्ध करवा दिये है| अमरीका से निकलने से पहले ही मै अपने टिकट खरीद चुका था। वापिस चेन्नई आने पर टिकट मेरा ईंतजार कर रहे थे। सोचा था कि अब घर जाकर कुछ आराम किया जाये। मेरे साथ मुसीबत यह है कि यदि मै रेल से घर जाउं तो 18 घन्टे लगते है और वायुयान से 14 घन्टे ! चेन्नई से नागपुर सीधी उड़ान नही है, जिससे मुझे मुम्बई होते हुये जाना …
और पढ़ेंअब मेरी तो समझ मे नही आ रहा है कहां से शुरू करें ! कहानी पूरी फिल्मी है, फ्लैश बैक मे ले जाउं या सीधे शुरूवात से ले जाउं। ऐसे भी इस मामले मे हम थोडे अनाडी है। वैसे ठीक ही है वर्ना अब तक बर्बाद(शादी) हो गये होते !
अब किस्सा कुछ ऐसा है कि चेन्नै मे मै दो और छडो(सुखी/क्वांरो) के साथ रहता हुं। जब इन दोनो महाशयो को मेरी कम्पनी (विप्रो) मे नौकरी मिली थी, तब मै इन दोनो का बास था। तब मै अकेला रह रहा था। इन लोगो की खुशकिस्मती या बदकिस्मती समझे, मैने इन लोगो से पूछा कि क्या वे मेरे स…
आज मैने अपनी जिन्दगी के उन्तीस साल पूरे कर लिये। बचपन मे मेरा जन्मदिन काफी धुमधाम से बनता था। घर मे सबसे बड़ा था उपर से पूरे मुहल्ले मे अकेला लड़का। काफी आनन्द आता था। हमेशा इंतजार रहता था, हम एक दिन के शंहशाह होते। हर फरमाईस पूरी की जाती। घर मे उपहारो का ढेर लग जाता था। पापा मम्मी और बहने तो रह्ते ही थे, साथ पापा के स्कुल से सभी शिक्षक सहकर्मी भी आते थे।
ये सिलसीला खत्म हुवा मेरे कालेज मे पहुंचने के बाद। उसके बाद तो कुछ ऐसा हुवा कि जन्मदिन पर घर पहुंचना मुश्किल जाता था। लेक…
चल उड जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना खतम हुवे उस डाली के जिस पर तेरा बसेरा था आज यहां और कल हो वहां ये जोगी वाला फेरा था सदा रहा है इस दुनिया मे किसका आबो दाना चल उड जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना
भारत वालो मै आ रहा हुँ, अमरीका वालो मै जा रहा हूँ। यहाँ क्लीवलैंड मे मेरा काम खत्म हो गया है, और हमने अपना बोरीया बिस्तर बांध लिया है। बस कुछ दिनो का और इंतजार 15 अक्तुबर को हम चल दिये वापिस।
वैसे मै अमरीका अक्सर आते जाते रहता हुं लेकिन ज्यादा समय के लिये नही, 6 सप्ताह से लेकर…
जब बात छेड( सुनील जी, इस्वामी जी, जितु जी, अतुल जी……)दी गयी है तो हम भी आ जाते है मैदान मे।
मै हिन्दी क्यों लिखता हुं ?
ये प्रश्न ही गलत है ! जबकि होना ये चाहिये मैं हिन्दी क्यों ना लिखुं ?
मेरा दिमाग ही हिन्दी मे चलता है। अंग्रेजी तो उसी वक्त याद आती है, जब सुनने वाले को हिन्दी ना आती हो। मेरे रगो मे हिन्दी रची बसी है। हिन्दी माध्यम से पढा हुं। बचपन से लेकर अब तक हिन्दी सुनी है, देखी है।
मैं हिन्दी मे लिखता हुं, पढ़ता हुं, बात करता हुं क्योंकि मुझे अच्छा लगता है। मुझे लगता …
कल रात मैने एक सपना देखा। वैसे कुछ नया नही था, हमेशा की तरह हम एक कन्या से बतिया रहे थे। वैसे हमारे अनुसार कन्यायें दो प्रकार की होती है, कुछ कन्यायें खूबसूरत होती हैं कुछ ज्यादा खूबसूरत होती हैं। सपने मे देखी कन्या दुसरी श्रेणी(ज्यादा खूबसूरत) की थी।
वैसे हमे आज तक अपने सपनों का मतलब समझ मे नही आया, हमेशा अजीबो-गरीब, उल जलूल किस्म के सपने आते हैं, जिसका ना तो सर होता है ना पैर। सायमंड फ्रायड को भी पढ़कर देख लिया, सपनो का मतलब समझना तो दूर रहा, पूरा का पूरा कन्फुजिया गया। त…
यह किस्सा उस समय का है जब मैं अभियांत्रिकी के अंतिम वर्ष(1998) मे था। उन दिनो हम एक छोटे से गांव झालीया मे रहते थे। दिखावे की दुनिया से कोसों दूर विदर्भ (महाराष्ट्र), छत्तीसगड़ और मध्यप्रदेश की सीमा पर बसा एक आम भारतीय गांव "झालीया"। सीधे सादे किसानों का गांव, जिनमे से कुछ ही लोग शहरी सभ्यता और रीती-रिवाज़ों से परिचित थे। और जो लोग कुछ पढ लिख गये थे, वो गांव से पलायन कर शहरों मे बस गये थे।
गांव का जीवन आम बुराइयो से दूर था, कभी लड़ाई झगड़ा, दंगा फसाद, चोरी-चकारी ज…
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