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एक अकेला इस शहर में, रात मे और दोपहर में। आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है।


 

एक अकेला इस शहर में, रात मे और दोपहर में।
आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है।



आज कल हमे यही गाना गाते हुये अपने लिये नया आशियाना ढूंढ रहे है। ऐसा नही है कि मकान मालिक ने हमे निकाल दिया है लेकिन आसार पूरे है।

वैसे तो हमे चेन्नई महानगर आये हुये पूरे चार साल हो चुके है और हम चार आशियाना बदल चुके है। ये बात और है कि इन चार सालो मे हम चेन्नै मे बामुश्किल कुछ ही महीनों रहे है, बाकी तो यायावर जिन्दगी कभी अमरीका तो कभी यूरोप। पहले ढाई साल तो होस्टल मे काट दिये थे, होस्टल मालिक काफी खुश रहते थे हम से, आखिर हम उन्हे बिना होस्टल मे रहे, सिर्फ सामान रखने का पैसा जो देते थे। सामान भी क्या एक बिस्तर, कुछ कपड़े और ढेर सारी पुस्तकें!

2004 के मध्य मे जब अन्ना चेन्नई आया तो हमने सोचा चलो यार एक ढंग का मकान लेकर इंसानों जैसा रहा जाये। बडी मुश्किल से एक मकान मिला। मकान मे प्रवेश किये कुछ दिन ही हुये थे कि हम चल दिये फिर से अमरीका। 2005 के अंत मे वापिस आये।

इस बार सोचा कि अब जिन्दगी को कुछ और नये रंग दिये जाये। एम टी सी (मद्रास ट्रान्स्पोर्ट कार्पोरेशन) से परेशान थे, कार लेने का मूड नही था। कार लेता तो मेरे रूम मेट उसे टैक्सी बना देते। बस एक नयी फटफटिया खरीदी। अब भारत मे हारले डेवीडसन तो मिलने से रही, बुलेट सम्हालना हमारे बस का रोग नही। बजाज एवेन्जर ले ली, पांच गीयर,180 सी सी की क्रुजर, बोले तो एकदम झक्कास। फटफटिया एकदम मस्त है, जनता मूड मूड कर देखती है। हम भी खुश कि चलो अब हम लोगो की नजरो के केन्द्र बिन्दू है। लेकिन ऐसा लग रहा है यही फटफटिया हमारे लिये अब मुसीबत बन रही है।

ना जी ना हम पेट्रोल की बढ़ती किमतो से परेशान नही है, ना हम अपनी फटफटीया के माइलेज से परेशान है। हमारी परेशानी का कारण वही सनातन युग से चला आया हुवा है…।

रूकिये.. रूकिये.. आगे बढने से पहले हम थोडा अपने बारे मे विस्तार से बता दे। हम थोडे मस्तमौला किस्म के इंसान है। मतलब बोले तो, बिना किसी की परवाह किये अपने तरीके से जिन्दगी जीने वाले। कपडे पहनने के बारे मे ऐसा है कि जो सामने दिख जाये पहन लिये, जूतो के बारे मे वही तरीका। दाढ़ी बनाने मे आलसी, मूड मे आया तो हजामत कर ली, नही आया तो ऐसे ही चल दिये। हर पखवाडे स्टायल भी बदलते है, कभी सफाचट दाढी, कभी फ्रेंच, तो कभी मजनू स्टायल। कुल मिला कर कुछ भी स्थायी नही है। ऐसे मे अपना मानना है कि कोइ भी कन्या ऐसे इसांन को घास नही डालेगी। लेकिन………

अब ऐसा है कि जिस मकान मे हम रहते है, नीचे वाले तल्ले पर एक परिवार रहता है। बस हमे इसके अलावा कुछ नही मालूम। अपनी फटफटिया लेने के दूसरे या तीसरे दिन हम कार्यालय जाने से पहले हम नीचे पहुंचे। नयी नयी फटफटिया है इसीलिये कपड़ा मारा। और चल दिये कार्यालय, अन्ना बैठा था पिछली सीट पर। इतने मे हमारी उचटती एक सुंदर सी कन्या पर गयी जो निचले तल्ले के दरवाजे से हमे निहार रही थी। कन्या यही कोइ 20-21 के आसपास की होगी।

शाम को जब हम वापिस पहुंचे, कन्या फिर से बाहर आयी। हम अपनी धुन मे , फटफटिया खडी की, ताला लगाया, खट खट… सीढीयो से चल दिये अपनी पहली मजिंल वाले आशियाने मे। 

बस कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा। पिछले हफ्ते मै और अन्ना ऐसे ही बैठे गपिया रहे थे। अन्ना बोला
 “दादा आजकल आप काफी स्मार्ट बन रहे हो”
” अबे क्या मतलब है तेरा, हम तो पैदायशी स्मार्ट है…”
” वो बात नही है दादा, आपने एक चीज नोट नही की है…”
“क्या ?”
“आप जब भी बाहर निकलते हो या वापिस आते हो तो नीचे वाली कन्या किसी ना किसी बहाने से बाहर निकलती है !”
” अबे! क्या बकवास कर रहा है, ये एक संयोग हो सकता है। कल को तु तो ये भी बोलेगा कि हम अमरीका से वापिस आये तो साथ मे तूफान भी ले आये! वहां कैटरीना और रीटा थी यहा फानुस,बाज और माला है।”
” नही दादा, जबसे आपने फटफटिया ली है, मै ये देख रहा हूं…आप तो अभी वापिस आये है, हम इस कन्या को 2 साल से देख रहे है”
हम मानने तैयार नही थे।
”चुप बे बकवास मत कर…। साले! उसकी उमर देख और हमारी उमर देख…।”
अन्ना हमारी टांग खींचने पर उतारू थे!
“दादा प्यार उम्र नही देखता !”
”अबे! तू उसे 2 साल से देख रहा है ना, वो तेरे लिये बाहर आती होगी”
“नही ना दादा,मैं तो उसके घर भी जा चुका हुं , वो अपने कमरे से बाहर भी नही निकली थी।”
” अब उसका मन बदल गया होगा”
” दादा उसका मन ज़रूर बदला है लेकिन मेरे लिये नही आपके लिये। दादा क्या बात है, बुढ़ापे मे लड़की लाईन दे रही है !”
अब पानी हमारे सर से उपर , मैने अपना जूता निकाला और अन्ना पर दे मारा। अन्ना बचकर भागा और चिल्लाया
“सच हमेशा कडवा होता है, युग युग से सच कहने वाले पर अत्याचार होते रहे है…”
अब हम थोड़ा गंभीर हुये, सोचा चलो कल से थोडा अन्ना की बातों पर ग़ौर करते है। हफ्ते भर बाद हमे यकीन हो रहा है कि कहीं ना कही कुछ गड़बड़ है। वो कन्या हमारा ध्यान आकर्षित कराने के लिये कोशिश ज़रूर करती है, मसलन सुबह जब हम आँफिस जाने के लिये बाहर आयें, वो भी किसी ना किसी बहाने बाहर आयेगी। शाम को जब हम वापिस आयेंगे वो दरवाजा खोल कर जरूर देखेगी। वो स्कुटी कुछ इस तरह से खडा करेगी कि हमे अपनी फटफटिया बाहर निकालने से पहले उसे अपनी स्कूटी निकालने की गुहार करनी पडे। सप्ताहांत को यदि हम बालकनी मे बैठे समाचारपत्र या पुस्तक पढ रहे हो तब वो भी बाहर आंगन मे आ जायेगी। जब वह कही से आये तब एक्सीलेटर इस तरह से देगी कि पड़ोस वालो को भी पता चल जाये।

अन्ना के अनुसार यह सब परिवर्तन मेरे अमरीका से वापिस आने के बाद(या फटफटिया लेने के बाद) हुआ है, नन्दी महाराज भी इस बात की पुष्टि करते है। हम सोच रहे है कि ये भगवान इसे माफ़ करना ये नही जानती की ये क्या कर रही है।

हम अभी तक खैर मना रहे है कि अभी तक वह सिर्फ आसपास ही घूमते रहती है। इससे पहले की बात आगे बढ़े    बच के भाग लो। चेन्नई मे पिटा तो कोई बचाने भी नही आयेगा!

वैसे ये यदि हमारी ग़लतफहमी(खुशफहमी) हो तब भी हम खुश होगें, इस बहाने कम से कम मकान तो बदल लेंगे। बोर हो गया हुं एक ही जगह रहते हुये, पूरे 3 महिने हो गये हैं !


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5 टिप्पणीयां “एक अकेला इस शहर में, रात मे और दोपहर में। आबोदाना ढूंढता है, आशियाना ढूंढता है।” पर
हम तो सोचे थे चलो इस बहाने आप एक से दो हो जाओगे, लेकिन लगता है कि आशीष भाई तो मैदान छोडने की तैयारी कर रहे है.
Tarun द्वारा दिनांक जनवरी 24th, 2006

ज़िन्दगी मौका दे रही है आशीष भाई, लिफ़्ट मिल रही है तो चढ़ लो और आबाद हो जाओ!!


Amit द्वारा दिनांक जनवरी 25th, 2006
वाह बेटे क्या स्टाईल है. सही है कूदो सांभर की झील में ईदर से उदर. क्यों बंगालुरू की तरफ नही निकल पडते.
kali द्वारा दिनांक जनवरी 25th, 2006

रणछो्डदास बनने से क्या फ़ायदा? मुसीबत का जी कडा
करके सामना कर बालक.सँसार की सारे मूर्खता तेरे साथ है.
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक जनवरी 25th, 2006
[…] [हम इधर आशीष को शादी करने लिये उकसा रहे हैं उधर वे हमें साइकिल यात्रा लिखने के लिये कोंच रहे हैं। कालीचरन भी आशीष की आवाज में हवा भर रहे हैं। तो पढ़ा जाये किस्सा यायावरी का।] […]
फ़ुरसतिया » बिहार वाया बनारस द्वारा दिनांक जनवरी 27th, 2006

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