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फुरसतिया जी की डायरी का एक पन्ना


“गलती से हमारे हत्थे फुरसतिया जी की डायरी का एक पन्ना लग गया । हमने बिना सेंसर किये हुये इस ज्यों का त्यों छाप दिया है!”

रोज़ सुबह भगवान का नाम लेना चाहिये ऐसा बुजुर्ग कहते है। मैं नास्तिक नही हूं लेकिन भगवान की याद किसी और कारण से आती है। भगवान ने हाथ पैर, कान नाक, आँख वगैरह अंग दिये जिसके लिये मैं उनका आभारी हूं । मनुष्य इन सभी का उपयोग(दुरुपयोग) कर खुद का जीवन ज्यादा से ज्यादा सुखी(मतलब आलसी) करने के लिये करता है। लेकिन भगवान ने दाढ़ी ये मनुष्य के मत्थे क्यो मढ़ दी है, समझ मे नही आ रहा है ?
अब कल ही की बात ले लिजिये। सुबह जल्दी सो कर उठने का निश्चय करने के बाद भी उठने मे देर हो गयी। अब उठते साथ “फावडा” चलाने का मतलब “ए बीग बोअर”। साथ मे समाचारपत्र भी चाटना होता है। आज भी रोज की तरह टावेल ढूंढने मे समय गया।

इतना ही नही रसोई से बम वर्षा हो रही थी
” आज गैस लाना भूलना नही!” 
“भैया को फोन करना भूलना नही”
“वापस आते समय सब्जी लाना नही भूलना वर्ना शाम का खाना नही बनेगा”।
दूसरी तरफ रेडियो से गाना बज रहा था “धूम मचा ले धूम“! अब ऐसे शोर शराबे मे शांति से दाढ़ी बनाना आसान है क्या ?
अंत मे जैसे तैसे दाढ़ी बनाने के सभी आवश्यक चीज़े मैने एक स्टूल पर जमा कर ली थी। पर याद आया कि कल दाढ़ी अच्छे से नही बनी थी, क्योंकि ब्लेड पूरा घिस गया है। अब नया ब्लेड कौन ढूंढे ?

इतने मे रसोई से आवाज़ आयी “जल्दी नहा लो, पानी चला जायेगा !” हमेशा की तरह चेतावनी ! हमेशा की तरह आज भी अनसुनी कर दी !

जैसे केक पर क्रीम लगाते है वैसे चेहरे पर क्रीम लगायी। अब ज़रा स्टाईल से दाढ़ी बनायी जाये सोच कर पहली बार ब्लेड घुमाया कि फोन की घंटी बजी। २ बार रिंग नही बजती कि अंदर से आवाज आयी
“फोन उठाओ कब से बज रहा है ?” 
अब इतने सबेरे फोन बजा मतलब कुछ गडबड ! हडबडाहट मे फोन उठाया तो पता चला कि अपने बेरोजगार(स्वरोजगार) मित्र है। शुरू हो गये
“यार काफी दिन हो गये साथ बैठे हुये,आज शाम का प्लान करते है ! “ 
मै मन मे ही
 “अबे तुझे ये समय ही मिला था क्या ?” 
लेकिन जैसे तैसे फोन रखा। इतने मे दाढ़ी बनाने का पानी ठंडा हो गया था और देर होने की लक्षण दिखने लगे थे ! अब जल्दी जल्दी मे दाढ़ी मन से नही होते है। कभी कही कट छील जाता है, तो कभी ब्रश हाथ से छुट जाता है। इतने मे “उन्होने” शब्द-पहेली मे एक सरल सा शब्द पूछा , जो हमे आया नही। उन्होने कुछ ऐसे हमे देखा कि हम शर्म से पानी पानी होगये। सारा का सारा मूड खराब कर दिया ! अब जैसे तैसे बचे हुये समय मे बची हुयी दाढ़ी आडी-तेडी, उल्टी-सीधी दाढ़ी बनायी और कौवा स्नान करने स्नानघर मे घुस गया ! रोजकी तरह निश्चय किया कि कल जल्दी उठकर अच्छी तरह से दाढी बनाउंगा।

आफीस दौड़ते हुये पहुचने पर भी “लेट मार्क” हो गया, बास जल्दी आ गया था ! ये बास भी ना ! जब भी मै लेट होता हुं जल्दी आ जाता है, जिस दिन समय पर आओ घंटो लेट आता है ! मैने रोज़ की तरह देर से आने का अपना घीसा-पिटा रिकार्ड बजाया, बास ने भी हमेशा की तरह अगले दिन समय पर आने की ताकिद दे दी।
शाम को थक कर घर आया तब बीवी ने (हमेशा की तरह) आंखे छोटी करके चेहरे को घूरा और चेहरा बना लिया !
 “अब क्या हुआ ?”
पूछा तो जवाब आया
“ये क्या है, दाढ़ी के खुंटे कितने बढ़े हुये है, तुम्हें दाढ़ी भी ढंग से बनाना नही आती ! हमारी औरतों के जैसे काम तुम लोगो को करने पढ़े तो नानी याद आयेगी !”
बीवी से सहानुभूति की उम्मीद बची नही थी । अब मैं सारा दोष भगवान को देता हूँ, तो इसमे मेरी क्या ग़लती है ?

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6 टिप्पणीयां “फुरसतिया जी की डायरी का एक पन्ना” पर
कहाँ से हाथ लगा यह पन्ना गुरू? सही आईटम है।
अतुल द्वारा दिनांक मई 8th, 2006

डायरी जरूर हमारी थी। हम खोज रहे थे कहां खो गयी। लेकिन हम जानकारी के लिये बता दें कि यह लेख हमने जीतेंदर के बारे में लिखा था-उनके तमाम दुखड़े सुनने के बाद। कुछ लेख जो तुमने और हमारी डायरी से उड़ा के अपने ब्लाग में लिख दिये उसके बारे में भी बताना चाहिये थे। सारा का सारा हमारा मसाला उड़ाया हुआ है सिर्फ जीतेंदर की जगह अन्ना लिख दिया है।
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक मई 8th, 2006

अच्छा लगा पढकर, हम तक पँहुचाने का धन्यवाद आशीष भाई
e-shadow द्वारा दिनांक मई 9th, 2006

अरे फुरसतिया जी, काहे अपने कर्म हमारे गले बान्ध रहे हो। जब डायरी तुम्हारी है तो है, इसमे इत्ता उखड़ काहे रहे हो। अब मान भी लो, भौजी कुछ नही बोलेगी, हम फुनवा कर देंगे। बकिया कमेन्ट हम समय लिखते ही अपने ब्लॉग पर लिख देंगे, अभी तो रुकावट के लिये खेद है।
जीतू द्वारा दिनांक मई 9th, 2006

वाह आशीष भाई, और भी कुछ चटपटे वाले फ़ुरसतिया जी की डायरी के पन्ने धरे हो क्या? जो भाई साहब संकोच के मारे पोस्ट ना कर पाये हों.
समीर लाल द्वारा दिनांक मई 9th, 2006

पोस्ट बढ़िया है पर मामला कुछ समझ में नहीं आया।
रजनीश मंगला द्वारा दिनांक मई 12th, 2006

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1 टिप्पणियाँ

SANDEEP PANWAR ने कहा…
अब क्यों नहीं लिख रहे हो?