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एक और रेल यात्रा


मैं एक घुमक्कड किस्म का व्यक्ति हूं, एक जगह पर रहना पसंद नही आता। यायावरी का ऐसा भूत सर पर सवार है कि तकरीबन हर सप्ताह कही ना कही चला जाता हूं। यायावरी भी ऐसी कि कभी रेल से , कभी बस से, कभी अपनी फटफटिया से । कुछ यात्राये मेरी पूर्व नियोजित होती है जो कि मै रेल से करता हूं लेकिन अधिकांश पूर्व नियोजित नही होती है।

मेरी यात्राये जो पूर्व नियोजित नही होती अच्छी खासी रोमांचक होती है। एन समय पर रेल आरक्षण मिल गया तो ठीक , नही मिला तो बस से, वह भी नही हुआ तो रेल के अनारक्षित डिब्बे मे यात्रा। जी हां रेल के अनारक्षित डिब्बे मे यात्रा ! मेरे अधिकांश दोस्त ये नही मानते कि मै रेल के अनारक्षित डिब्बे मे यात्रा कर सकता हूं। इसके पिछे कारण यह है कि मेरे दोस्त मुझे एक नाजुक किस्म का इंसान समझते है। मेरी इस छवि के लिये मै ही जिम्मेदार हूं। मै घर के बाहर हमेशा बोतलबंद पानी पीता हुं, अच्छे होटल/रेस्तरां (साफ सुथरे) मे खाना/नास्ता करता हूं। खुली चीजें या सडक किनारे नही खाता। मै ऐसा पहले(कालेज के दिनो मे) नही था, हर जगह हर चीज खा लेता था। बिना साफ सफाई की परवाह किये लेकिन कुछ नही होता था, सब कुछ हजम कर जाता था। शायद शरी्र की प्रतिरोधक क्षमता अच्छी थी लेकिन अब ऐसा नही है । अब तो कभी गलती से यहां वहां का पानी पी लिया तो गला खराब हो जाता है, बाहर खाने के बाद पेट खराब हो जाता है। शायद यह सब रहन सहन के इस आधुनिक जीवन अंदाज के कारण है जहां प्रतिरोधक क्षमता दिनोदिन कम होते जा रही है।

हां तो मै कह रहा था कि मै आज भी रेल के अनारक्षित डिब्बे मे यात्रा करने का हैसला रखता हूं। पिछले दिनो मै अपने गृहनगर गोंदिया से दुर्ग अपनी ननीहाल जा रहा था, एक्सप्रेस रेल से कुल २ घन्टे का सफर था। आरक्षण का तो सवाल ही नही था। बैग उठाया और चल दिये। स्टेशन पहुंचे, रेल आयी। देखा तो होश उड गये, अनारक्षित डिब्बे मे पैर रखने जगह नही। याद किया अपने भूतकाल को, जिस तरह सिनेमाहाल मे नयी फिल्म के जारी होने पर भीड़ भाड़ मे घुस कर टिकट ले आते थे, वह अनुभव यहां काम आया। ना केवल अंदर घुस गये, बल्कि उपर वाली सीट ( पता नही सीटे होती है या सामान रखने के लिये) पर कब्जा कर लिया।

अब आप अपनी कल्पना शक्ति के घोडे दौडाइये, इस दृश्य की कल्पना किजीये। मई के महिने की एक गर्म दोपहर, तापमान ४५ से उपर। विदर्भ/छत्तिसगड के पिछ्डे क्षेत्र से गुजरती हुयी रेल का एक अनारक्षित डिब्बा, जिसमे अपनी क्षमता से तीन गुने यात्री सवार है। रेल के चलने के बाद कोलाहाल शांत हो गया है। किसी के हिलने के लिये भी जगह नही है लेकिन सभी शांत है । अधिकांश यात्री मज़दूर या ग्रामीण है, कुछ मध्यमवर्ग के लोग भी है। यात्रीयो के सामान के नाम पर सूटकेस कम, गठरीया और पोटलियां ज्यादा है ! मै टी-शर्ट और ऐसे पैंट मे हूं, जिसके पांयचे घुटनो से निचे अलग कर बरमुडा बना सकते है। पिठ पर एक पिठ्ठू बैग है, साथ मे आई-पोड है और हाथो मे एक अंग्रेजी उपन्यास (”Five Point Someone”)। उपर की सीट पर मै अपनी दूनिया मे मस्त बैठा हुआ हूं, संगीत और उपन्यास मे मग्न, सारी दूनिया से बेखबर।

रेल अपनी रफ्तार से जा रही थी, मुझे गर्मी महसूस होने लगी थी। सोचा कि चलो अपने पैंट को बरमुडा बना लिया जाये। घुटने पर से चेन खोल कर मैने दोनो पायचे अलग कर दिये और बैग मे रख दिये। इतने मे नीचे से एक हंसी का फव्वारा छुटा मैने नीचे देखा क्या हुआ ? सब मेरी तरफ देख कर हंस रहे थे ! जनता मेरा करामाती पैंट देख के हैरान थी ! एक ग्रामीण ने कहा
“आपका पैंट बढिया है जी, पैंट का पैंट , गर्मी लगी तो हाफ पैंट !”
हंसी का एक और फव्वारा छूटा । इस बार मेरा ठहाका भी शामील था।

इतने मे एक १८-१९ साल का लडके ने कहा
“आप नीचे मेरी जगह पर बैठ जाओ , मै आपकी जगह बैठ जाता हूं।” 
उसे मेरा उपर बैठना अजिब लग रहा होगा, या सोच रहा होगा पता नही ये बेचारा यहां कहां आकर फंस गया है। उसे मुझ पर दया आ गयी थी, मैने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। मै सोच रहा था कि पढा लिखा होना(दिखना) चलो कहीं तो काम आया !

नीचे आकर बैठा रेल “हाजरा प्रपात” के पास से गुजर रही थी। यह सतपुडा पर्वत श्रंखला की एक प्राग- ऐतिहासिक जगह है जिसकी गुफाओ मे आदिमानव रहा करता था। इस जगह के बारे मे तस्वीरो के साथ पूरा एक चिठ्ठा फीर कभी..

अब जनता की नजर मेरे आईपोड पर थी।
एक ने पूछ ही लिया
“ये क्या है जी? टेप रिकारडर है क्या जी ?”
मैने कहा
“जी, ये टेप रिकार्डर जैसा ही है, लेकिन इसमे कैसेट नही होती है। इसमे ४००० गाने रिकार्ड कर सकते है !”
वह
“बताओ साला क्या जमाना आ गया है,पहले इत्ता बडा ग्रामोफोन आता था, और इत्ता बडा रेकाड आता था ५-६ गाने वाला। अब इसको देखो माचिस का डिब्बे के अंदर ४००० गाने ”
मै मन मे
“अबे मेरे आईपॊड को माचिस का डिब्बा बोला, तेरी तो !”
लेकिन सारी जनता फिर से दिल खोल के हंसी, और हम भी ।

अब मेरा आईपोड हर कीसी के हाथो से गुजर रहा था, सब उलट पूलट के देख रहे थे। मैने इयरफोन उन लोगो को थमा दिये, और आईपोड के बारे मे बताने लगा ! सभी को आश्चर्य हो रहा था। मै शरारत मे कभी कभी आवाज तेज कर देता था ।

“चाय गरम !” 
एक चाय वाला आया। उन लोगो मे से किसी ने चाय ली और एक कप मुझे भी थमा दिया। एक आम भारतीय कितना सरल हृदय होता है, दो मिठे बोल बोल लो और जो चाहे करवा लो। कुछ देर की पहचान और दो मिठे बोल , बदले मे उनके प्यार से भरी वो चाय ।

दुर्ग पास आ गया था, मैने अपने पैंट के तुकडे फीर से जोड लिये थे, फिर हंसी का एक और फव्वारा छूटा था !
मै रेल से उतर के चल दिया था, एक और सुहानी याद लिये, जिसमे ना तो मई की गर्मी की तपिस थी, ना सफर की परेशानी, जिसमे थी वही आम भारतीय हृदय की निश्छलता !
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12 टिप्पणीयां “एक और रेल यात्रा” पर
वाह आशीष भाई,
बडा सुहाना सफ़र रहा आपके साथ, वो भी गरमी की दोपहर मे. बहुत रोचक लेखनी होती है आपकी सदा.
समीर लाल द्वारा दिनांक मई 11th, 2006

आनन्‍द आ गया, सच में आम भरतीय जन मानस इतना भोला है तभी तो नेता उन्‍हे इतनी आसानी से बेवकूफ बनाते हैं.
e-shadow द्वारा दिनांक मई 12th, 2006

सच में जनता डिब्बे में सब को गले लगाती भारतियता दिखती है और a.c first में स्वंय में सिमटी ,गर्दन टेड़ी किए अँग्रेज़ियत ।
ratna द्वारा दिनांक मई 12th, 2006

मज़ा आ गया. ऐसी स्थितियों से अनेकों बार गुजरा हूँ, लेकिन शायद इतना अच्छा वर्णन एक बार भी न कर पाऊँ. धन्यवाद!
Hindi Blogger द्वारा दिनांक मई 12th, 2006

दोस्त, आनंद आ गया आपकी यह पोस्ट पढ़कर। छत्तिसगढ़ की स्मृतियां भी ताज़ा हो गईं।
आशा है आने वाले समय में अन्य संस्मरणों को पढ़ने का आवसर भी प्राप्त होगा।
आभिनव द्वारा दिनांक मई 12th, 2006

यात्रा विवरण बढिया था !
pratyaksha द्वारा दिनांक मई 12th, 2006

वाह आशीष भाई, बढ़िया अनुभव वर्णित किया है। मैंने तो कभी अपने लोअर की टखनों वाली ज़िप खोल उसे बरमुडा नहीं बनाया, अच्छा ही हुआ!!
और वो हाजरा प्रपात वाली तस्वीरों की पोस्ट के बारे में भूलना नहीं, जल्द ही लिखना।
आनन्‍द आ गया, सच में आम भरतीय जन मानस इतना भोला है तभी तो नेता उन्‍हे इतनी आसानी से बेवकूफ बनाते हैं.
अजी आम जनता तो भोली भाली ही होती है, चाहे भारतीय हो या कहीं और की, और कुछ अति स्वार्थी लोग अपने लाभ के लिए उनके साथ खिलवाड़ करते हैं।
Amit द्वारा दिनांक मई 13th, 2006

बढ़िया बयान किया! तुम्हारे सारे लेख बहुत अच्छे लगते हैं। जनता के पास ऐसे-ऐसे धाँसू डायलाग मिलते हैं कि लगता है क्या अभिव्यक्ति क्षमता है! हमारे एक स्टाफ ने एक दिन दूसरे की बुराई करते हुये कहा-साहब,वो तो ससुरा हैंडपंप है,एकफिट ऊपर तो सौ फिट अंदर। समय के संपन्न होने की प्रक्रिया में लोग जनसामान्य से कटने लगते हैं तथा ऐसे तमाम सहज अनुभवों से वंचित होते जाते हैं। बहरहाल बधाई !लिखने के लिये।
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक मई 14th, 2006

आशीष भाई, मैं पूरा लेख पढ़ने से पहले पूछना चाहता हूँ कि आप अक्सर ी तो ि क्यों लिखते हैं। जैसे पिछे, ठिक, चिज़ आदि
रजनीश मंगला द्वारा दिनांक मई 18th, 2006

बहुत अच्छा लिखा है आशीष भाई। आप तो उल्टा भी वैसा ही बिना ग़ल्ती किए लिखते हो
‘मैने अपने पैंट के तुकडे फीर से जोड लिये थे,फीर हंसी का एक और फव्वारा छूटा था !’
रजनीश मंगला द्वारा दिनांक मई 18th, 2006

[…] सांय 5 बजे के करीब मेरे मोबाईल का अलार्म बज उ� ा और मैंने उ� के देखा कि मैं लगभग पाँच घंटे सोया हूँ, इसलिए काफ़ी हद तक तरोताज़ा महसूस कर रहा था। बाकि लोग पहले ही उ� गए थे। तत्पश्चात नीचे गंगा स्नान के लिए जाने का निर्णय हुआ। अब डुबकी लगाने के लिए मैं तैराकी के वस्त्र आदि तो लाया न था, इसलिए जो कपड़े रात को पहने सफ़र किया था, वो ही पहन लिए। जो लोअर पहन रखा था, घुटनों से उसकी ज़िप खोल दो तो वह बरमुडा बन जाता था, � ीक आशीष भाई की पैन्ट की तरह!! तो बस टखने से निचले हिस्से को अलग किया और चल दिए नीचे गंगा स्नान के लिए। […]
world from my eyes - दुनिया मेरी नज़र से!! » ए वीकेन्ड इन � षिकेश - भाग २ द्वारा दिनांक मई 26th, 2006

[…] अब रविरतलामी के तथा अन्य दोस्तों के फरमाइशी आदेश ,अमित की हरिद्वार-श्रषिकेश यात्रा विवरण,आशीष के रोचक हाफ पैंट-फुल पैंट विवरण तथा इससे पहले विजय वडनेरे के सिंगापुर विवरण तथा सुनील दीपक जी के इधर-उधर भ्रमण के विवरण ने फिर से हमें अपने यात्रा विवरण लिखने के पानी पर चढ़ाया है। […]
फ़ुरसतिया » अजीब इत्तफाक है… द्वारा दिनांक जून 5th, 2006

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