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भागमभाग : छुटपुट दौड़ से अर्ध मेराथन तक

पिछले चार वर्ष से अर्ध मैराथन मे भाग ले रहा हुं। साल मे कम से कम दो अर्ध मैराथन हो ही जाती है। इससे अधिक कभी कोशिश नही की।

पहली बार अर्ध मैराथन मे 38 वर्ष उम्र मे भाग लिया था, उसके पहले 2015 मे एक बार दस किमी मे भाग लिया था। 2006 मे पहली बार स्पिरिट ऑफ़ विप्रो मे 5 किमी की दौड़ मे भाग लिया था। उसके बाद हर वर्ष 5 किमी वाली श्रेणी मे भाग ले ही लेता था। स्पिरिट आफ़ विप्रो  मे 5 किमी वाली श्रेणी दौड़ कम सेल्फ़ीदौड़ होती है, लोग केवल मनोरंजन और दोस्तों, परिवार के साथ टहलते, दौड़ते या चलते हुये  ही भाग लेते है।

मेरा बचपन महाराष्ट्र के विदर्भ मे एक छोटे गांव झालीया मे बीता है। खेलकुद मे ज्यादा सक्रियता नही रही थी, लेकिन जब भी मौका मिले खेल कूद लेते थे। साल मे कम से कम दो तीन बार यह होता था कि हम सुबह की दौड़ शुरु करते थे। सुबह पांच बजे उठकर सारे गांव मे शोर मचाते हुये , चौक पर जमा होते थे। उसके बाद दौड़ते हुये कावराबांध गांव की ओर दौड़ लगाते हुये जाते थे। कावराबांध गांव से पहले एक किमी का पत्थर है, सारे लोगो की हालत उस एक किमी मे पश्त हो जाती थी। वहाँ से लौट कर रास्ते मे एक नहर के पास  मे ठहरते थे। पहले किसी खेत मे निपट कर, वहीं नहर मे नहा धो कर वापस घर पहुंचते थे। कभी नहर मे कूद कर नहाते थे, कभी किसी किसान के खेत मे चल रहे पानी के पंप की तेज धार के सामने खड़े हो कर नहाते थे। ये सुबह की दौड़ कार्तिक माह के अंत तक चलती थी, उसके बाद ठंड तेज होना शुरु होती थी। धीरे धीरे शीत के कारण एक के एक बाद एक लोग गायब होते जाते और सुबह की दौड़ बंद हो जाती।

मित्र मंडली पर सुबह की दौड़ का अगला दौरा, होली के बाद स्कूल की परिक्षाओं के बाद पड़ता था, यह दौरा भी एकाध महिने चलता, जैसे ही गर्मीओं की छुट्टी चालू होती, आधी मित्र मंडली गायब हो जाती। ना, गर्मीओं की छुट्टी मे ननीहाल जाने का सुख उठाने वाले दोस्त कम थे। कुछ दोस्त अपने बूढ़े दादा दादी के साथ रहते थे, उनके मातापिता नागपुर या रायपुर मे मजदूरी या कोई काम करते थे तो वे गर्मियों मे उनके पास चले जाते थे। कुछ दोस्त छुट्टीयों मे खुद मजदूरी करने नागपुर/रायपुर चले जाते थे। बचे हम तो, तो या तो ननीहाल दुर्ग चले जाते या ताउजी के घर भोपाल!

साल मे कुल मिला कर एक दो महीने एक से दो किमी से अधिक दौड़ने की आदत नही रही। स्कूल मे खेल कूद मे हम भाग कम ही लेते थे। गांव मे कबड्डी, खोखो, वालीबाल और 1986-87 के बाद क्रिकेट खेल लेते थे। गुल्ली डंडा, कंचे, होलापाती, लुकाछिपी, नदी पहाड़ जैसे ठेठ गंवई खेल तो थे ही। बाद मे गर्मीयों की दोपहर मे कैरम, ताश का भी चस्का चढ़ा था।

स्कूल जीवन बीता, कालेज पहुंचे। अब तो खेल कूद से बहुत दूर हो गये थे। खेल मे कम से कम कभी कभार क्रिकेट खेल लेते थे, लेकिन दौड़ना एकदम से बंद हो गया था। इंजीनियरींग पूरी की, नौकरी करने लगे, खेल कूद भी छूट गया।

1998-2005 यह एक ऐसा दौर रहा, जब खेल कूद पूरी तरह से बंद हो गया, दौड़ने का तो नाम ही नही। इन्ही दिनो मे गोंदीया से मुंबई, दिल्ली होते हुये हम चेन्नई पहुंच गये थे। चेन्नई मे चावल-सांभर खा खा कर वजन बढ़ने लगा था। विक्रम की संगत मे ऑफ़िस मे जिम जाने लगे। जिम मे 20 मिनट दौड़ लेते थे। यह भी नियमित नही था, मूड हुआ तो जाओ नही हुआ तो नही।

2005 मे क्लिवलैंड के पास एक्रान मे छह महीने रहे। यहाँ पर कम से कम यह हुआ कि शाम को एक घंटा वालीबाल खेल लेते थे।

2007 मे शादी हुई, शादी के बाद हम पहुंच गये फ़िलाडेल्फ़िआ। वजन बढ़ना जारी था लेकिन इतना अधिक भी नही था। फ़िलाडेल्फ़िआ मे शाम को छ: बजे खाना खाने के बाद नौ बजे के आसपास जिम जाने लगे। कुछ देर ट्रेडमिल पर दौड़ते,  अन्य उपकरणों पर हाथ आजमाते और वापिस आ जाते।

फ़िलाडेल्फ़िआ से भारत आये, कुछ दिनो के बाद सिडनी आस्ट्रेलिया जा पहुंचे। यहाँ पर खेलकुद या अन्य शारीरीक गतिविधि के नाम पर नार्थ सिडनी से पैदल हार्बर ब्रिज  पार करते हुये मार्टिन प्लेस जाना था। सप्ताहांत को आवारागर्दी करते हुये सिडनी के आसपास के सभी बीच, जंगल, पहाड़ घूमना था। दौड़ना अब भी नही।

ऐसे मे आया 2012। जुन 2012 मे हम लोग स्नोवी माउंन्टेन घूमने गये। बर्फ़ मे स्किइंग की योजना बनी। स्की किराये पर लेने से पहले वजन किया, पता चला कि 90 किलो! अब हम चकराये, वजन कम करने के लिये योजना बनाई। सोचा कि खाने पीने मे कटौती कर वजन कम करते है। लेकिन यह योजना बैकफ़ायर कर गई। खाने पीने मे कटौती से एसीडीटी की समस्या हो गई। एसीडीटी की दवाईयाँ शुरु हुई। उन दवाईयों को बंद करने पर विथड्राल प्रभाव ने अवसाद और एन्जाईटी की ओर धकेल दिया। इस अवसाद और एन्जाईटी के दौर 15 दिनो तक सो नही पाये थे। मनोचिकित्सक से मिले, उन्होने अवसादरोधी दवायें दी और कहा कि इन समस्याओं मे दौड़ना मदद करता है। दौड़ने से जो हार्मोन निकलते है वे अवसाद दूर करते है।

अब शुरु हुआ गंभीरता से दौड़ने का दौर। दो किमी रोज से पांच छह किमी रोजाना दौड़ना आरंभ किया। 2013 मे भारत वापिस आये। चार-पांच किमी रोज दौड़ते रहे। स्पिरिट आफ़ विप्रो 2013,2014 मे पांच किमी दौड़ लगाई। रोजाना दौड़ लगाने वालो के संपर्क मे आये। 2015 मे पहली बार दस किमी की दौड़ लगाई।

2016 मे पहली अर्ध मैराथन पूरी की, उसके बाद अब तक दौड़ ही रहे है। अब हालात यह है कि यदि किसी दिन दौड़ ना लगाओ तो कुछ खोया खोया सा लगता है। दौड़ने की लत लग गई है। लेकिन शारीरिक क्षमता ऐसी है कि चार पांच किमी तो कुछ नही, दस किमी भी आराम से दौड़ जाते है।

जब अर्ध मैराथन दौड़ते है तो लक्ष्य रहता है कि बिना रूके दौड़ना है और मैराथन पूरी करना है। समय पर या स्पर्धा जितने का तो सोचते ही नही है। लेकिन यह संतोष रहता है कि अपने से आधी उम्र वालों से बेहतर समय निकाल लेता हुं!

अब अगला लक्ष्य है, एक बार पूरी मैराथन दौड़ने का .....



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