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प्रपंच ?

मेरे पिछले चिठ्ठे "क्या ऐसा कोई काम है जो आप नही कर सकते ?" के जवाब मे "इ-स्वामीजी" ने लिखा

अमरीकी समाज ने जो हासिल किया है वे उसका मूल्य समझते हैं और अपनी सत्ता,संपन्नता को किसी भी कीमत पर खोना नही चाहते. हाँ उनके पास खोने के लिए बहुत कुछ है , खोने का भय ही उन्हे आगे बढाता रहता है. मेरे दृष्टीकोण मे इसीलिए यह एक बौद्धिकतावादी प्रपंचवादी समाज है,प्रपंच एक अच्छे मतलब मे नकारात्मक मतलब मे नही! साम-दाम-दण्ड-भेद से पाया और बचाया है. भय का उत्तर है संकट खडा करने वाली परिस्थितोयों की समझ और उनके प्रतिकार की जुगत उपलब्ध साधनो से, और ना हो तो नए साधन खडे करने का पहले से किया गया प्रपंच या तैयारी इन फिल्मों का यही संदेश होता है.

प्रपंच ? हाँ अमरीकी समृद्धी एक प्रपंच ही तो है, दुनिया के बडे कर्ज़दार देशो मे से एक , दुनिया का सबसे बडा समृद्ध और सबसे शक्तीशाली देश है. कितना बडा विरोधाभाष है लेकिन सच है !
अमरीकी अर्थव्यवस्था चलती कैसे है ? सारे विश्व मे व्यापार के लिए डालर का उपयोग होता है, जिससे हर देश अपना विदेशी मुद्राकोष मे डालर का भंडार रखता है. सारी दुनिया के देश अपने मुद्रा कोष के लिये अमरीकी बाण्ड खरीदते है, या दुसरे शब्दो मे अमरीकी बैंको मे अपना पैसा रखते है. इसी उधार के पैसो से अमरीकी अर्थव्यवस्था चलती है.
क्या होगा अगर बाकी देश अमरीकी बैको से पैसा निकाल ले ? वे चाह कर भी ऐसा नही कर सकते, क्योंकि ऐसा कर के वो खुद बरबाद हो जाएंगे. कारण ये है कि अमरीका सबसे बडा आयातकर्ता भी है. दुनिया के अधिकांश देशो की अर्थव्यवस्था अमरीकी आयात पर टिकी हुइ है, जिसके लिए अमरीका के पास पैसा चाहीये. ये पैसा आयेगा कहाँ से ? जाहिर है जब दुसरे देश अमरीकी बाण्ड खरीदेंगे. मतलब सिधा और साफ है सारी दुनिया बचत करे और अमरीका ऐश करे. निन्यानबे का फेर. ये सीधा चार्वाक निती है "ऋण कृत्वा, घृत पिबेत"(चाहे कर्ज लेना पडे , घी पियो)

अमरीकी स्वार्थनीति का एक और उदाहरण. अमरीका तेल का सबसे बडा आयातकर्ता भी है. सारे तेल उत्पादक देश उसके पिछलग्गु. नही है तो इराक और इरान. इराक को तो उसने सारी दुनिया को ठेंगा दिखाते हुवे, अमरीकी जनता को "Weapon of mass destruction" का हौवा दिखा कर सिधा कर दिया अब इरान की बारी है.

अमरीकी प्रसार माध्यम भी पिछे नही है. "CNN" पर रोज शाम को "Broken Border" आता है. "Outsourcing" पर अच्छी बहस होती है. भारत को संगणक प्रोद्योगीकी की महाशक्ती बना कर चने के झाड पर चढाया जाता है. और हम चढ भी जाते है. लेकिन वास्तविकता ये है हमारा कुल संगणक प्रोद्योगीकी के व्यापार मे हिस्सा कितना है सिर्फ २% !

जब अमरीका को लगता है कि चीन अब एक महाशक्ती बनने जा रहा है, यदि भारत और चीन मिल गये(?) तो उसको चुनौती मिल सकती है. बस भारत को चने के झाड पर चढा दो, परमाणु शक्ती बोल दो(बोलने मे क्या जाता है). बस एक को तो फोड लिया. लेकिन जब हथियार देने की बारी आती है F16 पाकिस्तान को दे दो, "लाक हिड मार्टिन" की नौकरीयां बच जायेगी. एक बार विमान बिक गये, तब पुर्जो के लिये जांएगे कहाँ ? भारत कुछ बोला तो F18 का लालीपाप दे दो. कुछ नौकरी और बच जायेंगी. वो तो भला हो हमारे नेताओ को सदबुद्धी आ गयी और इस चक्कर मे नही पडे.

कुल मिला कर अमरीका सामदाम दंड भेद की निती से समृद्ध तो है लेकिन किस किमत पर ? कुछ और सवाल है .
१.आज अमरीकी नागरीक कहां सुरक्षित है? शायद अमरीका मे भी नही !
२.क्या ये स्थिती हमेशा बनी रहेगी ? एक समय था अंग्रेजी राज्य मे सुरज नही डुबता था और आज !
३.उधार के पैसो पर कब तक अमरीकी अर्थ व्यवस्था चलेगी ?
४.हम कब सुधरेंगे(कब अमरीकी जाल से निकल पायेंगे ?). क्या मौर्य काल का स्वर्ण युग़ आयेगा ?( जी हां हम तब से लेकर आज तक परतंत्र है, आज भी !. हमारी नितीया विश्व बैंक और अतंराष्ट्रिय मुद्रा कोष निर्धारीत करता है,अप्रत्यक्ष रूप से अमरीका !)

मेरे पास तो इन सवालो का जवाब नही है, शायद आपके पास हो !

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1 टिप्पणियाँ

मिर्ची सेठ ने कहा…
यहाँ की देशों को आपस में लड़ा कर पैसा व ताकत बनाए रखने वाली नीति पर अतानू दा ने एक विचारोत्तेजक लेख लिखा था - द डॉलर गेम्स, समय लगे तो जरुर पढ़िएगा कड़ी यह रही।

पंकज