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मेरे जीवन पर धर्म का प्रभाव


इस विषयपर लिखने के लिये मूझे किसी चेतावनी या नोटीस देने की जरूरत नही है। धर्म पर लिखा गयी कोई भी लेख आपत्तिजनक नही हो सकता है। यदि वह लेख धर्म मानने वालो को आपत्तीजनक लगता है, इसका अर्थ यह है लेखक और पाठक दोनो मे से किसी एक को या दोनो को धर्म की जानकारी नही है। अज्ञान की कोई सजा नही होती है।

मेरे जिवन पर धर्म का क्या प्रभाव है, इस विषय पर मेरे अलावा भी मेरे आसपास के हर क़रीबी व्यक्ति का भी अलग मत हो सकता है। मेरे मित्र मुझे नास्तिक मानते है। मेरे परिवार के व्यक्ति मुझे नास्तिक तो नही लेकिन आडंबरो से दूर रहने वाला मानते है।

धर्म क्या होता है ? मेरे लिये इसकी परिभाषा क्या है ? मेरा धर्म क्या है ? ये सब ऐसे प्रश्न है जिनका उत्तर आगे बढ़ने से पहले देना आवश्यक है।

मेरा धर्म क्या है ?


इसे मेरे धर्म की महानता कही जाये या विडंबना मेरे धर्म का कोई नाम ही नही है ! काका कालेलकर ने अपने ग्रंथ “समन्वय संस्कृति की ओर'’ में धर्म का सुन्दर विश्लेषण किया है। वे लिखते हैं कि धर्म शब्द का वही अर्थ नहीं है, जो पश्चिम में रिलीजन का माना जाता है। धर्म का अर्थ है न्यायपूर्ण ढंग से काम करना। वे कहते हैं कि धर्म या धम्म एशिया की सांस्कृतिक विरासत का मर्म है। एक स्थान पर इन्होंने लिखा है- “हम कहने लगे `सनातन धर्म’ और परदेशी लोगों ने इसको नाम दिया ’हिन्दू धर्म'’ (पृ. ९)। हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है–वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे । संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं–पहला, सिन्धु नदी क नाम और दूसरा, कोई भी नदी या जलराशि । आर्य भाषाओं की [ स ] ध्वनि ईरानी भाषाओं की [ ह ] ध्वनि में लगभग हमेशा बदल जाती है (ऐसा भाषाविदों का मानना है) । इसलिये सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) मे जाकर हप्त हिन्दु मे परिवर्तित हो गया । इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया । जब अरब मुसल्मान सुल्तान भारत में शासन करने लगे, तो उन्होने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया । इस देश का दुर्भाग्य है कि हमने परदेशियों के द्वारा दिये गए नाम को पूरी तरह से स्वीकार कर लिया।

मेरा धर्म रीलीजन या मजहब का पर्यायवाची शब्द नही है, मेरा धर्म एक जीवन पद्धति है, एक विचारधारा है । मेरे धर्म की स्थापना किसी ने नही की है, ना यह किसी विशेष समय से प्रारंभ हुआ है। मेरा धर्म सनातन है, और युगो युगो से चला आ रहा है। यह एक विशाल नदी के प्रवाह की भांति है जिसमे ना जाने कितने पंथ, परपंराये, मान्यताये मिलती गयी है। भारत में एक के बाद एक न जाने कितने सम्प्रदायों का उदय हुआ और उन्होंने वैदिक(सनातन/हिन्दू) धर्म को जड़ से हिला दिया ; परन्तु भयंकर भूकम्प के समय समुद्रतट का जल पिछे हट जाता है, कुछ समय पश्चात् हजार गुना बलशाली होकर सुनामी के रूप मे सर्वग्रासी आप्लावन के रूप में पुनः लौट आता है ;उसी तरह जब यह सारा कोलाहल शान्त हो गया, तब इन समस्त धर्म-सम्प्रदायों को उनकी धर्ममाता ( सनातन धर्म ) की विराट् काया ने आत्मसात् कर अपने में विलीन् कर लिया ।

ये वह धर्म है जिसकामूल मन्त्र है अपना ध्यान रखते हुए दूसरों का भी ध्यान रखना - “आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्'’। इसका महत्त्वपूर्ण तत्त्व विश्वभावना है। “आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति'’ और “वसुधैव कुटुम्बकम्'’ इसकी शिक्षा है। स्वामी विवेकांनद ने कहा था कि मुझे ऐसे धर्म मे जन्म लेने का गर्व है जो ये दावा नही करता कि वह सर्वश्रेष्ठ् है। गीता मे कृष्ण कहते है

‘प्रत्येक धर्म में मैं , मोती की माला में सूत्र की तरह पिरोया हुआ हूँ ।’ — गीता ॥७.७॥

‘जहाँ भी तुम्हें मानवसृष्टि को उन्नत बनानेवाली और पावन करनेवाली अतिशय पवित्रता और असाधारण शक्ति दिखाई दे, तो जान लो कि वह मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुआ हैं ।’ –गीता ॥१०.४१॥

व्यास कहते हैं,

‘हमारी जाति और सम्प्रदाय की सीमा के बाहर भी पूर्णत्व तक पहुँचे हुए मनुष्य हैं ।’ –वेदान्तसूत्र ॥३.४.३६॥

सनातन धर्म वेदों पर आधारीत है। वेद अनादि और अनन्त हैं। सम्भव हैं, यब बात हास्यास्पद लगे कि कोई पुस्तक अनादि और अनन्त कैसे हो सकती हैं । किन्तु वेदों का अर्थ कोई पुस्तक हैं ही नहीं । वेदों का अर्थ हैं , भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष । ये वेद किसी भगवान की पूजा या स्तुती नही करते हैं। वेद प्राकृतिक शक्तियो की स्तुति करते है। प्राकृतिक शक्तियो की अवहेलना का परिणाम आज सुनामी या विश्वव्यापी तापमान वृद्धी (ग्लोबल वार्मींग) के रूप मे आज सामने आ रहा है।

वेद हमें यह सिखाते हैं कि सृष्टि का न आदि हैं न अन्त । बिग बैंग का सिद्धांत यही कहता है कि ब्रह्मांड एक बिन्दू के रूप मे था जो एक महाविस्फोट के बाद आज के इस रूप मे आया है। यह एक सीमा तक विस्तारित होने के बाद सकुंचित होना शूरू हो जायेगा। अंत मे वापिस एक बिन्दू के रूप मे बदल जायेगा । यह एक संकुचन और विस्तार का अन्तहिन चक्र है ! स्टीफन हांकिस की “ए ब्रीफ हिस्ट्री आफ टाईम” पढे, उन्होने यही सभी कथनो को अनुमोदित किया है।
सृष्टि से पहले सत नहीं था, असत भी नहीं
अंतरिक्ष भी नहीं, आकाश भी नहीं था
छिपा था क्या कहाँ, किसने देखा था
उस पल तो अगम, अटल जल भी कहाँ था
सृष्टि का कौन है कर्ता कर्ता है यह वा अकर्ता
ऊंचे आसमान में रहता सदा अध्यक्ष बना रहता
वही सचमुच में जानता, या नहीं भी जानता
हैं किसी को नहीं पता नहीं है पता
सनातन धर्म पर यह आरोप लगता है कि इसमे ना जाने कितने देवी देवता है। यही तो मेरे धर्म की महानता है हर किसी को अपने आप मे आत्मसात कर लेने की। शिव एक प्रमुख हिन्दू देवता माने जाते है लेकिन यह भी एक तथ्य है कि हिन्दू(सनातन /वैदिक) धर्म मे शिव का प्रवेश आर्य और द्रविड संस्कृति के मिलाप के पश्चात हुआ है। यही होता गया और नये नये देवी देवता सनातन धर्म मे आते गये और देवता बढते गये । यह वह धर्म है जिसने हर जाति , हर समुदाय, हर व्यवसाय विशेष के देवी-देवता को जगह दी है। जिसे जिस देव को मानना है माने, किसी देव को मानने या ना मानने की कोई बंदिश नही है। लेकिन इस के दुरुपयोग भी हुये है जैसे एक चलचित्र मे कल्पित देवी “संतोषी माता” को भी भगवान बना दिया । लेकिन इसमे मेरे धर्म का क्या दोष ? ये तो उसके मानने वालो को दोष है/था जो जान बुझकर आंख मूंद्कर पडों के पीछे चल रहे है ! अंधविश्वास धर्म का दोष नही है , मानने वालो का है!

मुर्तीपूजा पर ये आरोप लगते है कि जो पत्थर का भगवान खुद की रक्षा नही कर सकता वह दूनिया की रक्षा कैसे करेगा । सनातन धर्म मूर्तिपूजक नही था वह तो प्रकृतिपूजक था लेकिन सनातन धर्म ने मूर्तिपूजा को भी स्वीकार किया। कोई हिन्दू यदि आराधना के समय बाह्य प्रतीक का उपयोग करता हैं ; वह आपको बतलाएगा कि यह बाह्य प्रतीक उसके मन को ध्यान के विषय परमेश्वर में एकाग्रता से स्थिर रखने में सहायता देता हैं ।(मै यहां पूजा/घंटा बजाना/आरती आदि आडंबरो की बात नही कर रहा हूं।) वह भी यह बात उतनी ही अच्छी तरह से जानता हैं, जितना आप जानते हैं कि वह मूर्ति न तो ईश्वर ही हैं और न सर्वव्यापी ही । क्या ईश्वर का भी कोई परिमाण हैं ? यदि नहीं, तो जिस समय हम सर्वव्यापी शब्द का उच्चारण करते हैं , उस समय विस्तृत आकाश या देश की ही कल्पना करने के सिवा हम और क्या करते हैं ? अपनी मानसिक सरंचना के नियमानुसार, हमें किसी प्रकार अपनी अनन्तता की भावना को नील आकाश या अपार समुद्र की कल्पना से सम्बद्ध करना पड़ता हैं; उसी तरह हम पवित्रता के भाव को अपने स्वभावनुसार गिरजाघर या मसजिद या क्रूस से जोड़ लेते हैं । हम पवित्रता, नित्यत्व, सर्वव्यापित्व आदि आदि भावों का सम्बन्ध विभिन्न मूर्तियों और रूपों से जोड़ते हैं ? मूर्तियाँ, मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्मजीवन में केवल सहायकमात्र हैं । लेकिन मूर्तिपूजा जो आज की जाती है वह प्राचिन मुर्तिपूजा का विकृत रूप है । मुर्ति जो एक प्रतिक मात्र हुआ करती थी, उसे भगवान बना दिया गया हौ। और यह तो किसी ने भी नही कहा है कि आपको मुर्तिपूजा करनी चाहिये ? आर्यसमाज मुर्तिपूजा का विरोधी है।

मेरा धर्म क्या नही है?


मंदिरों मे जाकर घंटे बजाकर चीख चीख कर आरती करने वाला धर्म मेरा नही है। मेरा ईश्वर सर्व शक्तिमान है, जो इस सृष्टी का संचालन कर रहा है। उसे किसी पूजा या आराधना की आवश्यकता नही है। जब वह सर्वशक्तिमान है तो वह जानता है मुझे क्या चाहिये ! मेरे लिये जो भी उचित होगा वह मुझे देगा।मुझे जरूरत है अपने कर्मो की। “कर्म करो फल की चिन्ता ना करो“। मेरे कर्म यदि फल प्राप्ति के योग्य है तो वह मुझे मिलेगा ही, इसके लिये किसी पूजा, आराधना या आरती की आवश्यकता नही है। उसे किसी रिश्वत(चढावे) की जरूरत नही है। मंदिरो मे मुर्ति की स्थापना का उद्देश्य यह नही था कि घण्टे घड़ियाल बजाकर पूजा की जाये। वह तो शांत वातावरण मे साधना करने के लिये बनाये गये थे,जितने भी तिर्थस्थल है या माने हुये मंदिर है सभी दूर्गम या पहाडी लेकिन मनोरम और शांत स्थल पर स्थित है।

मेरे ईश्वर को किसी मंदिर की आवश्यकता नही है, वह सर्वव्यापी है। गालिब ने कितना सही कहा था
मत पी शराब गालिब मस्जिद मे बैठकर , तो मुझे वह जगह बता दे जहां खुदा ना हो|
मेरा धर्म जाति/छुवा-छुत नही मानता। राम ने शबरी के बेर खाये थे, वानरो के साथ मिल कर युद्ध लडा था। भारतिय वर्ण/जाति प्रथा यह श्रम विभाजन पर आधारित थी। छुवा छुत, परदाप्रथा तो मध्ययुग की देन है।
मेरा धर्म मनुस्मृती नही मानता क्योंकि यह भी मध्य युग की देन है। किसी वेद, पूराण, रामायण अथवा महाभारत मे इस ग्रंथ का उल्लेख नही है।

मेरा धर्म श्राद्ध, मृत्युभोज का विरोधी है, यह सब कर्मकांड तो पंडो के द्वारा अपना पेट भरने के लिये धर्म से चिपकाये हुये है।

मेरा धर्म अपने या किसी और धर्म की निंदा करना नही है। आलोचना और निण्दा दोनो अलग अलग है।
पाप करने के बाद उन्हे धोने के लिए गंगा स्नान या उपवास करना मेरा धर्म नही है, यह तो एक आडंबर है।
निक्कर वाले जिसे धर्म कहते है वह मेरा नही है। मेरे धर्म को किसी रथयात्रा की जरूरत नही है।

अंत मे
जीवन में मानव मूल्यों का एक महत्वपूर्ण स्थान है। मानव जीवन को उदारता, उच्चता और श्रेष्ठ आदर्शो के द्वारा उन्नत बनाने का लक्ष्य भी यही है। उदारता, सहिष्णुता समरसता, क्षमा, त्याग, मानवता आदि इसी लक्ष्य की धरोहर हैं। इन मुल्यो का पालन ही मेरा धर्म है । बहुत प्राचीन काल से अपनी प्रारम्भिक अवस्था में धार्मिक साहित्य के रूप में विकसित हुए वेद, पुराण, उपनिषद, गीता, कुरान, बाईबल, अवेस्ता, त्रिपिटिक आदि शास्त्र और ग्रन्थ अपने में धर्म के तत्वों को समेटे हुये हैं। इन सभी में एकत्व बोध को स्वीकार कर समभावना का विकास करना ही मेरा धर्म है। कोई भी धर्म किसी भी दूसरे धर्म से ऊंचा या नीचा नहीं है। सभी धर्मों की मंजिल व ध्येय एक ही मानव मात्र का कल्याण है और यही मेरा धर्म है।

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18 टिप्पणीयां “मेरे जीवन पर धर्म का प्रभाव” पर



बहुत सुन्दर!
बहुत ही अच्छे ढंग से तुमने अपने विचार रखे।लेख थोड़ा लम्बा जरुर हो गया है लेकिन लेख की निरन्तरता कंही नही खोई। एक अच्छे लेख के लिये मेरी बधाई स्वीकार करो।
जीतू द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

एक के बाद एक सुन्दर लेख आ रहे हैं इस विषय पर. बहुत अच्छा लिखा हैं आपने.
छुआ-छुत महाभारत काल में मोजुद थी, कर्ण को याद करे.
आपके लेख से सनातन धर्म कि महानता उभर कर आती हैं, क्योंकि आप चाहे जिसमें विश्वास या अविश्वास करे आप सनातनी तो रहते ही हैं.
sanjay Bengani द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

आशीष भाई, बहुत ही सुन्दर लेख लिखा है आपने अपने इस लेख में धर्म के मूलतत्वों को दर्शाया है, वरना अभी तक तो चिट्ठा जगत् में आडम्बरों और लोकाचार को ही धर्म का नाम दे कर प्रकारान्त से धर्म को कोसा जा रहा था।
प्रतीक पाण्डे द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006


लेकिन मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हूँ कि शिव का प्रवेश द्रविड़ और आर्य संस्कृतियों के मिलन के बाद हुआ। वेदों में शिव को समर्पित कई सूक्त हैं। लाखों हिन्दुओं द्वारा हर रोज़ पढ़ा जाने वाला महामृत्युंजय मंत्र ऋग्वेद और सामवेद, दोनों ही संहिताओं में मिलता है; जिसमें शिव की स्तुति की गयी है।
साथ ही वैदिक संहिताओं से कहीं भी यह इंगित नहीं होता कि भारत में आर्य और द्रविड़ नामक दो समानान्तर सभ्यताएँ थीं या फिर आर्य भारत के बाहर से यहाँ पर आए। मेरा मानना है कि भारत में आर्यों के आगमन का सिद्धान्त अपेक्षाकृत बहुत ही अर्वाचीन है। इस बारे में आपके क्या विचार हैं?
प्रतीक पाण्डे द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

प्रतिक,
मै यह नही कह रहा कि आर्य बाहर से आये थे, यह मै भी नही मानता । लेकिन आर्य और द्रविड यह दोनो अलग सभ्यतायेँ जरूर थी जो बाद मे एक दूसरे मे विलीन हो गयी|
यह इससे भी साबीत होता है कि सँस्कृत एक आर्य भाषा है जो अन्य द्रविड भाषाओ (तमिळ, मलयालम, कन्नड और तेलगु) से पूरी तरह अलग है। यह अंतर अन्य देवो मे भी है, जैसे कार्तिकेय (मुरूगण) जो दक्षिण भारत मे पूजे जाते है उत्तर मे नही(या कम)।
वेदो मे शिव का जिक्र नही है, रूद्र का जिक्र है । रूद्र , शिव, शंकर एक ही देव के भिन्न नाम है ये एक विवाद का विषय हो सकता है ।
आशीष श्रीवास्तव द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

सभी धर्मों में ये सिखाया जाता है “एक और नेक बनो” भारत में ९० फीसद फसाद मज़हब के नाम पर होता है ये बात अलग है के लडवाता कोन है? आशीष भाई ने धर्म पर बहुत ही सुन्दर लेख लिखा है मगर हम ने अपने धर्मों के चारों तरफ दीवारें खडी करली हैं, हमें अपना धर्म छोड कर दूसरा कोई धर्म पसंद नहीं, अपने धर्म को कोई गाली दे तो हम उसकी ज़ुबान काट लेते हैं, सभी धर्म में ये सिखाया जाता है कि हम दूसरे धर्मों का भी एहतराम करें। पर ये सब खाली पीली बातें हैं। इस विशय पर चाहें तो बहुत कुछ लिख सकते हैं और कोई बडा भाशन भी दे सकते हैं, भारत में कहीं “हिन्दू मुसलिम भाई-भाई” के नारे? ये एक घटिया मज़ाक है। जहां तक मेरी बात हैः मुझे नहीं चाहिये ये धर्म जिसकी वजे से मुझे दूसरे धर्मों से नफरत हने लगती है, किया ज़रूरत है ऐसे मज़हब की जो हमारे दिलों में एक दूसरे के लिए नफरत पैदा करती है। चाहे तो हम सब को एक धर्म में होना चाहिए वरना नहीं चाहिए धर्म।
SHUAIB द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

आशीष, बहुत सुन्दर! बहुत ही अच्छे ढंग से तुमने अपने विचार रखे। आपने अपने इस लेख में धर्म के मूलतत्वों को दर्शाया है, जो कि ज्ञान वर्धन करता है।
Tarun द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

अछ्छी तरह से संशोधन करके लिखा गया ये लेख बधाइ के पात्र है। आपके सारे विचारों से में सहमत नहीं हु फिर भी आप बधाइ के काबिल है क्योकि आपने अपने विचार बहुत सोच कर और होमवर्क करके व्यक्त किये है।
आप चाहे तो अपने फाज़ल समय का उपयोग ओर धर्मो को समज़ने मे कर सकते है ताकी पता तो चले एक जेसे इंसानो की इतनी सारी मान्यता क्यो है और उसमे से कोइ सही है या नही। क्योकि यह सारे धर्मो के इजाद होने से पहले भी जीवन चलता था।
फिर से, लेख अछ्छा लगा।
Ravi Kamdar द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

आर्य और द्रविड़ सभ्यताएँ अलग-अलग थीं, मेरी समझ में यह मानने का कोई पुख़्ता आधार नहीं है। हाँलाकि भाषा के दृष्टिकोण से ऐसा ज़रूर कहा जा सकता है, लेकिन कई सारे तथ्य ऐसे भी हैं जिन्हें नज़रअन्दाज़ करना मुमक़िन नहीं है। जैसे कि द्राविड़ भाषाओं के मुत्ता (मोती या संस्कृत में मुक्ता) आदि अनेक ऐसे शब्द हैं, जिनका व्युत्पत्ति-मूलक अर्थ केवल संस्कृत के आधार पर ही स्पष्ट किया जा सकता है और मूल रूप से वे सभी पदार्थ दक्षिण के ग़ैर-संस्कृतभाषी क्षेत्रों में ही होते हैं। यह तर्क भी उतना ही मज़बूत है कि एक ही मुख्य जाति की दो उपशाखाएँ संस्कृत और द्राविड़ भाषाओं का इस्तेमाल करती थीं।
प्रतीक पाण्डे द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

पहले तो एक बढ़िया लेख लिखने पर बधाई(वैसे तो आपके अधिकतर सारे ही लेख बढ़िया होते हैं)!!  पर एक बात तो बताओ भई, विषय है “मेरे जीवन पर धर्म का प्रभाव” परन्तु वह तो आपने बताया ही नहीं, बल्कि धर्म की अच्छी खासी व्याख्या कर डाली!!  और मज़े की बात यह है कि अभी तक जिसने भी लिखा है उसने धर्म की परिभाषा ही लिखी है, न कि विषय पर!!
मुर्तीपूजा पर ये आरोप लगते है कि जो पत्थर का भगवान खुद की रक्षा नही कर सकता वह दूनिया की रक्षा कैसे करेगा
यह तो मात्र करने के लिए कटाक्ष किया जाता है अन्यथा जो अल्पबुद्धि नहीं है उन्हें इस बात का ज्ञान होता है कि मूर्ति ईश्वर नहीं है, वरन् मात्र एक चिन्ह है जिसको ईश्वर स्वरूप मानकर अराधना की जाती है क्योंकि मनुष्य स्वभाव ऐसा है कि वे किसी चीज़ के बजाय शून्य में ध्यान केन्द्रित कर अराधना करना अत्यधिक कठिन होता है, इसलिए साधारण मनुष्य के अराधना करने के लिए मूर्तियों का प्रचलन बढ़ा। परन्तु समय के साथ साथ विचार और मान्यताएँ विकृत होती गई और लोग मूर्ति को ही ईश्वर मानने लगे। (कम से कम मेरा तो ऐसा ही सोचना है कि यही हुआ होगा)
मण्दिरो मे जाकर घंटे बजाकर चिख चिख कर आरती करने वाला धर्म मेरा नही है।
यह भी एक गलत प्रथा चल पड़ी कि घंटे आदि बजाते हुए ही पूजा-अर्चना होनी चाहिए। एक बार मैंने एक विद्वान से पूछा कि ऐसा क्यों कि हम शोर शराबे में अर्चना करते हैं, ईश्वर की अराधना तो शांत माहौल में होनी चाहिए, तो मुझे उन्होंने उत्तर दिया कि लोगों का मानना है कि ईश्वर सो रहा होता है इसलिए उसे जगाकर पूजा की जाती है!! तो मैंने उनसे फ़िर यह न पूछा कि यदि ईश्वर सो रहा है तो फ़िर सृष्टि की देखरेख क्या ईश्वर की सहायिका कर रही है!!
मेरे कर्म यदि फल प्राप्ति के योग्य है तो वह मुझे मिलेगा ही, इसके लिये किसी पूजा, आराधना या आरती की आवश्यकता नही है।
भाई, कर्म का फल तो मिलता ही है, चाहे मीठा मिले, खट्टा मिले या कड़वा मिले। आईन्स्टीन का नियम “every action has an equal and opposite reaction” सही है।
छुवा छुत, परदाप्रथा तो मध्ययुग की देन है।
जहाँ तक मुझे ज्ञात है, परदाप्रथा इस्लाम के साथ आई थी, उससे पहले यहाँ परदाप्रथा न थी।
छुआ-छुत महाभारत काल में मोजुद थी, कर्ण को याद करे.
संजय भाई, वह छूत-अछूत न था, वह तो ऊँची और नीची जाती का मसला था। प्राचीन भारत में कर्म के अनुसार चार जातियाँ थी। जो ज्ञान देता था तथा ईश्वर की साधना करता था, वह ब्राह्मण था, जो समाज की रक्षा करता था वह क्षत्रिय था, जो व्यापार करता था वह वैश्य था तथा जो बाकि अन्य कार्य करता था(जैसे रथ आदि चलाना, सफ़ाई आदि करना) वह शूद्र था। इनमें ब्राह्मण का दर्जा सबसे ऊँचा था, फ़िर क्षत्रिय, उसके बाद वैश्य तथा अन्त में शूद्र। इनके अलावा एक और समुदाय था, वह था दासों का। दास को कोई अधिकार नहीं होता था, वह मनुष्य न होकर एक वस्तु होता था, इसलिए उसका कोई धर्म भी नहीं होता था, उसका कर्म अपने स्वामी की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना होता था।
वेदो मे शिव का जिक्र नही है, रूद्र का जिक्र है । रूद्र , शिव, शंकर एक ही देव के भिन्न नाम है ये एक विवाद का विषय हो सकता है ।
रूद्र एक परमशक्ति के रूप में माना गया है, आदि भी वही हैं और अन्त भी। कई अन्य हिन्दु ग्रन्थ आदि में यह पढ़ा है कि रूद्र ने विष्णु की उत्पत्ति की और विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मा रचियता बनें जिनका कार्य सृष्टि की रचना करना है, विष्णु पालनहार हैं जो सृष्टि की देखभाल करते हैं और रूद्र संहारक हैं जो समय आने पर संहार करते हैं।
Amit द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

सारा दोष मनुस्मृति का है,
मनुस्मृति ही सब भ्रष्ट लोकाचार की कारक है धर्म नहीं।
युगल मेहरा द्वारा दिनांक अप्रैल 4th, 2006

“आईन्स्टीन का नियम ‘every action has an equal and opposite reaction’ सही है।”
अमित भाई, यह आइन्स्टीन का नहीं न्यूटन का नियम है। और आपने जो शिव के बारे में ज़िक्र किया है, वह पौराणिक ही है। वेदों (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्) में उनका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। इसलिये उसे इतना प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता है।
प्रतीक पाण्डे द्वारा दिनांक अप्रैल 5th, 2006

अभी पूरा नहीं पढ़ा, बहुत लंबा है, गहरा भी। लगता है प्रिंट करके आफ़िस में बैठ कर आराम से पढ़ना पड़ेगा।
रजनीश मंगला द्वारा दिनांक अप्रैल 5th, 2006

बहुत खूब ।बढ़िया लिखा।बधाई।
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक अप्रैल 5th, 2006

अमित भाई, यह आइन्स्टीन का नहीं न्यूटन का नियम है।
ओह, गलती सुधारने के लिए धन्यवाद, ध्यान नहीं रहा!!
और आपने जो शिव के बारे में ज़िक्र किया है, वह पौराणिक ही है। वेदों (संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद्) में उनका कहीं कोई उल्लेख नहीं है। इसलिये उसे इतना प्रामाणिक नहीं कहा जा सकता है।
मैंने तो कहा ही नहीं भाई कि यह प्रामाणिक है, मैंने भी तो यही कहा कि पौराणिक हिन्दु कथाओं में यह कहा गया है।  वैसे भी, जहाँ तक मुझे ज्ञात है, न तो रामायण प्रामाणिक है और न ही महाभारत, और न ही महर्षि व्यास के अस्तित्व का प्रमाण है जो कि महाभारत काव्य के लेखक हैं।
Amit द्वारा दिनांक अप्रैल 5th, 2006

[…] अनुगूंज 18 के लिए इन्होने लिखा हैं : दुनियाँ मेरी नजर से (अमित) (30 मार्च) जोगलिखी (संजय बेंगाणी) दिनांक 1 अप्रैल दस्तक (सागर चन्द नाहर ) दिनांक 2 अप्रैल खाली-पीली (आशीष श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल नि� ल्ला चिंतन (तरूण) दिनांक 4 अप्रैल छींटे और बौछारें (रविशंकर श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निनाद गाथा (अभिनव) दिनांक 5 अप्रैल मेरा पन्ना (जितेन्द्र चौधरी) दिनांक 5 अप्रैल बीच-बजार (परग कुमार मण्डले) दिनांक 5 अप्रैल उन्मुक्त (उन्मुक्त) दिनांक 9 अप्रैल झरोखा (शालिनी नारंग) दिनांक 10 अप्रैल उडन तश्तरी (समीरलाल) दिनांक 11 अप्रैल फ़ुरसतिया (अनूप शुक्ला) दिनांक 12 अप्रैल मन की बात (प्रेमलता पाण्डे) दिनांक 12 अप्रैल (ई-स्वामी) दिनांक 14 अप्रैल मेरा चिट्� ा (आशीष) दिनांक 14 अप्रैल इधर उधर की (रमण ) दिनांक 14 अप्रैल […]

जोगलिखी » चिट्� ाकारों द्वारा लगभग 18,000 शब्द लिखे गये द्वारा दिनांक अप्रैल 16th, 2006
[…] अनुगूंज 18 के लिए इन्होने लिखा हैं : दुनियाँ मेरी नजर से (अमित) (30 मार्च) जोगलिखी (संजय बेंगाणी) दिनांक 1 अप्रैल दस्तक (सागर चन्द नाहर ) दिनांक 2 अप्रैल खाली-पीली (आशीष श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल नि� ल्ला चिंतन (तरूण) दिनांक 4 अप्रैल छींटे और बौछारें (रविशंकर श्रीवास्तव) दिनांक 4 अप्रैल निनाद गाथा (अभिनव) दिनांक 5 अप्रैल मेरा पन्ना (जितेन्द्र चौधरी) दिनांक 5 अप्रैल बीच-बजार (परग कुमार मण्डले) दिनांक 5 अप्रैल उन्मुक्त (उन्मुक्त) दिनांक 9 अप्रैल झरोखा (शालिनी नारंग) दिनांक 10 अप्रैल उडन तश्तरी (समीरलाल) दिनांक 11 अप्रैल फ़ुरसतिया (अनूप शुक्ला) दिनांक 12 अप्रैल मन की बात (प्रेमलता पाण्डे) दिनांक 12 अप्रैल (ई-स्वामी) दिनांक 14 अप्रैल मेरा चिट्� ा (आशीष) दिनांक 14 अप्रैल इधर उधर की (रमण ) दिनांक 14 अप्रैल […]
चिट् ाकारों द्वारा लगभग 18,000 शब्द लिखे गये at अक्षरग्राम द्वारा दिनांक अप्रैल 17th, 2006

[…] सागर चन्द नाहर कुछ युं दस्तक देते हैं धर्म के द्वार पर� “धर्म का मतलब हैं “मानवता“, और हमारे देश और समाज की उन्नती”. साथ ही उन लोगो के प्रति असंतोष व्यक्त करते हैं जिन्हे हर बात में नुक्स निकालने की आदत होती है ओर अपने बै-सिर पैर के तर्कों से कभी धर्म तो कभी समाज को बदनाम करते रहते है, उन्हे अपना जैन धर्म उसके सिद्धान्तों ‘सत्य ओर अहिंसा’ की वजह से बहुत पसन्द है, � लेकिन आडम्बर उन्हे पसन्द नहीं, हाँ परिवार कि खुशी के लिए वे धार्मिक अनुष्� ानों में हिस्सा जरूर लेते हैं. चलिये सागर चन्दजी आप अपने तर्को के साथ धर्म को बदनाम करने वालो से लोहा लिजीये, हम आपके साथ हैं. � आशीष श्रीवास्तव साहब ने तो काफी विस्तार से लिखा हैं और आवश्यक हुआ वहां काका कलेल्कर, विवेकानन्द, कृष्ण आदी को उधृत किया हैं, गीता के श्लोक भी रखे हैं. लेख कि शुरूआत हिन्दू धर्म का नामांकरण कैसे हुआ� से करते हुए इस सनातन धर्म के आधार वेद ग्रंथो का अर्थ भी समझाते हैं � “भिन्न भिन्न कालों में भिन्न भिन्न व्यक्तियों द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक सत्यों का संचित कोष”. सनातन धर्म कि विशेषताओं पर प्रकाश डालते हुए लिखते हैं “सनातन धर्म पर यह आरोप लगता है कि इसमे ना जाने कितने देवी देवता है। यही तो मेरे धर्म की महानता है हर किसी को अपने आप मे आत्मसात कर लेने की।“ बावजुद इसके कि वे स्वीकरते हैं “मण्दिरो मे जाकर घंटे बजाकर चिख चिख कर आरती करने वाला धर्म मेरा नही है।“ तब उनका धर्म कौनसा हैं? इसका भी सुन्दर जवाब हैं उनके पास, पढिये “कोई भी धर्म किसी भी दूसरे धर्म से ऊंचा या नीचा नहीं है। सभी धर्मों की मंजिल व ध्येय एक ही मानव मात्र का कल्याण है और यही मेरा धर्म है।“ यानी मानवता ही आपका धर्म हैं. � […]
अवलोकन : अनुगूजँ 18- मेरे जीवन में धर्म का महत्व at अक्षरग्राम द्वारा दिनांक अप्रैल 24th, 2006

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