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मेरे बचपन की कुछ शरारतें


ये किस्से उस समय के है जब मै प्राथमिक पाठ्शाला मे था। हम महाराष्ट्र के गोंदिया जिले मे एक गांव झालिया मे रहते थे, गांव के बाहर थी हमारी पाठशाला। पाठशाला के ठीक सामने एक बडा सा मैदान और एक कुंआ। एक तरफ ध्वजस्तंभ,जिसका प्रयोग साल मे दो बार १५ अगस्त और २६ जनवरी को होता था। पाठशाला के एक तरफ थी,पानी की नहर, पीछे एक छोटी सी पहाड़ी।

पाठशाला की इमारत का निर्माण इस तरह से किया गया था कि किसी भी कक्षा मे प्रवेश करने के लिये तीन सीढीया चढनी होती थी। पाठशाला का समय होता था ११ बजे सुबह से ५ बजे शाम तक का । पहले २ शिक्षण अंतराल के बाद १५ मिनिट की छूट्टी, उसके बाद २ शिक्षण अंतराल होते थे। तपश्चात होता था भोजनावकाश। उसके बाद २ और शिक्षण अंतराल। अंत मे बारी आती थी खेल कूद की। ये था हमारी पाठशाला की दिनचर्या।

अब सवाल ये है कि पाठशाला के नक्शे और हमारी शरारतो का क्या संबध ? जी हां बिलकुल संबध है बस आप पढते जायीये ! रूकिये हम अपने शिक्षको से भी परिचय करवा दे। हमारे मुख्याध्यापक थे लिल्हारे गुरूजी और कक्षाध्यापक तो हर साल बदलते रहे, लेकिन कक्षा १ से ३ तक जांभुळ्कर गुरूजी, कक्षा ४ मे तिवारी गुरूजी, कक्षा ५ मे बडी शेख बहनजी, कक्षा ६ मे टाटी गुरूदेव और कक्षा ७ मे कुराहे गुरूजी।

लिल्हारे गुरूजी से सभी थरथर कांपते थे, गणित के अच्छे अध्यापक थे। लेकिन उनके थप्पड से गाल पर पंजाब का नक्शा बनना तय होता था। जांभुळ्कर गुरूजी सभी छात्रो को गांधीजी बनने की शिक्षा देते थे। उनका कहना रहता था कि एक गाल पर थप्पड पढने पर दूसरा गाल सामने करना चाहिये!

ऐसी ही थी मेरी कक्षायें भी
तिवारी गुरूजी सबसे अलग थे। वे एक अच्छे नाट्य/नृत्य निर्देशक थे। उनके पास आईडियो और कहानीयों का खजाना होता था, उनके निर्देशन मे हमने शिवाजी द्वारा अफजल खान का वध का नाटक, आदिवासी नृत्य जैसे कार्यक्रमो मे भाग लिया था। बडी शेख बहनजी संगीत मे अच्छा ज्ञान रखती थी,कुराहे गुरुजी अंग्रेजी मे। मेरे प्रिय शिक्षक थे टाटी गुरुदेव, उन पर तो एक पूरा चिठठा लिखना है। हम लोगो ने शतरंज उन्ही से सीखा और अष्टांग योग भी।

शाम को ६ वे शिक्षण अंतराल के बाद होते थे खेलकूद के २ अंतराल। हम सभी के सभी खेलमैदान पर होते थे। कबड्डी, खो खो और दौड भाग के खेल चलते रहते थे। कभी कभी पीटी और योग सीखाया जाता था लेकिन अधिकतर समय कबड्डी और खो खो। अपने सहपाठीयो के कद काठी की तुलना मे,मै उस समय काफी छोटा था। गाँव का स्कूल था , अधिकतर बच्चे सात/आठ की उम्र से स्कूल आते थे, जबकि मै साढे चार साल की उम्र मे स्कूल पहुंच गया था। मै खेलो मे सिर्फ खोखो खेल पाता था, कबड्डी मे छोटे कदकाठी से मेरा तो कचूमर निकल जाता था। दौड़ भाग वाले खेल मे भी हमारे बुरे हाल थे। जबकि खोखो मे तो हम अपनी चपलता और छोटे कद के कारण ही चल जाते थे।

खेलकूद के अंतराल के बाद छुट्टी की घंटी जब बजती थी, तब हाल देखने लायक होता था। सारे के सारे छात्र अपना बस्ता लेने दौड पढते थे अपनी अपनी कक्षा की ओर। तीन सीढी चढने के बाद दरवाजे से जो अंदर चला गया वो बस्ता लेकर बाहर आने की कोशीश करता, जो बाहर रह गये वो अंदर जाने की कोशीस करते थे। बस ना अंदर वाले बाहर आ पाते थे ना बाहर वाले अंदर जा पाते। इस धक्कामुक्की मे रोज कोई ना कोई सीढीयों से नीचे गिरता था। जैसे ही उसका रोना शूरू होता, लिल्हारे गुरुजी पहुंच जाते अपनी छडी लेकर। उन्हे देखते साथ कतार बन जाती , फिर भी दो तीन छात्र पिट जाते थे। वे बडबडाते चले जाते, इन्हे रोज कतार लगाना सिखाओ ,दूसरे दिन वही हाल हो जाता है। इस सारे हंगामे मे मेरे बुरे हाल हो जाते थे,मै तो सीढ़ियों से रोज गिरने वालो मे से एक था। मेरा एक ऐसा ही साथी था नरेंद्र।

हमने इसका एक जुगाड निकाला। कक्षा की पिछली खिडकीयो से एक सलाख को थोडा मोड दिया। कैसे ? गुरूदेव की कुर्सी का सदूपयोग करके। अब खिड़की मे इतनी जगह हो गयी थी कि हम आराम से अंदर आ सकते थे और बाहर जा सकते थे। बस फिर क्या था। हमारा रोज का धक्कामुक्की मे सीढ़ियों से नीचे गीरना बंद हो गया था।

कुछ दिनो के बाद लिल्हारे गुरूजी की नजर मे आगया कि हम लोग दरवाजे से अंदर नही जा रहे है ना बाहर आ रहे हैं। हमारा सीढीयों से गिरकर रोना जो बंद हो गया था। बस एक दिन हम अपनी मस्ती मे बस्ता लिये खिड़की से बाहर कुदने ही वाले थे कि नीचे से आवाज आयी
“आओ बेटा इधर आओ”
नीचे देखा लिल्हारे गुरूजी अपनी छ्डी के साथ खडे है, बाजू मे नरेंद्र सहमा हुआ खडा है। हमारी समझ मे आ गया कि नरेंद्र ने विभीषण , जयचण्द और मीरजाफर की परंपरा को आगे बढाया है।

अब आगे क्या लिखूं आप समझ जाईये…..

मेरा घर पाठ्शाला से ५०० मीटर की दूरी पर था। मै पाठ्शाला के पीछे से पहाडी के सामने होते हुये भोजनावकाश मे घर जाता था और भोजन के बाद वापिस आता था। जब मै भोजनावकाश के बाद वापिस आता था उसी समय एक रेल गुजरती थी। रेल की सिर्फ आवाज आती थी दिखायी नही देती थी। एक दिन पहाड़ी पर चढ गये, सबसे उपरवाले पत्थर पर पर चढकर देखा, दूर रेल जाते हुये माचिस के डिब्बो के आकार मे दिखायी दे रही है। बस क्या था? रोज का काम हो गया। पहले मै अकेला जाता था, लोग साथ आते गये और कांरवां बनता गया।

अब पता नही कैसे लिल्हारे गुरूजी को पता चल गया कि भोजनावकाश के बाद बच्चे पहाड़ी के आसपास से आते है। एक दिन ऐसे ही रेल देखने के बाद हम पहाड़ी से नीचे उतर रहे थे वही आवाज आयी
“आओ बेटा, इधर आओ………………”
जारी अगले अंको मे…………………

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6 टिप्पणीयां “मेरे बचपन की कुछ शरारते.” पर
आशीष जी,
बढ़िया संस्मरण हैं। अगली किश्त का इन्तज़ार है
Laxmi N. Gupta द्वारा दिनांक जुलाई 17th, 2006

खूब लिखा है। आगे टाटी गुरू के बारे में लिखा जाये जल्दी।
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक जुलाई 17th, 2006

बहुत रोचक लिखा है आशीष भाई. आपकी कक्षा ७ तक की शिक्षा मराठी माध्यम में हुई थी क्या?
अमित द्वारा दिनांक जुलाई 17th, 2006

नही अमित, मराठी मेरी तृतिय भाषा थी। मेरी शिक्षा १० तक हिन्दी माध्यम से और उसके बाद अंग्रेजी माध्यम से हुयी है।
वैसे मै मराठी पढ लिख और बोल लेता हूं !
आशीष श्रीवास्तव द्वारा दिनांक जुलाई 17th, 2006

बहुत खूब, रोचक लेख है
SHUAIB द्वारा दिनांक जुलाई 17th, 2006

अच्छा लगा।
eshadow द्वारा दिनांक जुलाई 18th, 2006

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1 टिप्पणियाँ

pradeep ने कहा…
बहुत अच्छा लिखा हैं ,अपने बारे में ! :)