एक शाम मैं अपने रूम पर अकेला ही था। बादल घिरे हुये थे। मौसम ठंडा हो गया था। अंधेरा छा रहा था। देखते देखते ही बुंदाबांदी शुरू हो गयी। बालकनी पर खडा बारिश की भटककर आती हुये बुंदो का आनंद लेते हुये रीम झीम बारिश के निनाद का आनंद ले रहा था।
कुछ देर बाद ऐसे ही टीवी चालू किया हिमेश बाबू नाक दबा कर गा रहा था
“एक बार आजा आजा.. झलक दिखला जा……"
गुस्से मे आकर टी वी बंद कर दिया और आकाशवाणी की शरण ली…
विविध-भारती के क्या कहने….. सुभा मुदगल गा रही थी…..
“अब के सावन ऐसे बरसे……”
पूरा म…
३१ जुलाई हिन्दी के उपन्यास सम्राट और कहानीकार प्रेमचंद का १२६ वां जन्मदिन है। उनके जन्मदिन पर मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।
दसवी मे पढा था कि उनका असली नाम नवाबराय था। उनकी पहली रचना सोजे-वतन थी जिसमें देशभक्ति पूर्ण कहानियां थीं। छपते ही इसे अंग्रेजों ने जब्त कर लिया। तत्पश्चात वे प्रेमचंद के नाम से लिखने लगे।
प्रेमचंद मेरे प्रिय लेखक रहे हैं, उनके लगब्भग सभी उपन्यास और ढेरो कहानिया पढी है।प्रेमचंद को पढना तो बचपन से ही शुरू हो गया था। कक्षा दूसरी मे बालभारती मे उनकी कहानी पढी…
निधीजी के चिठ्ठे पर एक मजनू के बारे मे पढा, मेरे आस पास तो मजनूओ की भरमार रही है। सोचा चलो एक के बाद एक मजनूओ के किस्से लिखना शुरू कर दे।
ये किस्सा है उन दिनो का जब मै नया नया दिल्ली पहुंचा था। हम लोग कुल आठ लोग एक ही फ्लैट मे काल्काजी मे रहते थे। सभी के सभी नागपूर और उसके आसपास के क्षेत्र से थे। कुछ नौकरी करते थे, कुछ सघर्ष कर रहे थे। फ्लैट का खर्च नौकरीशुदा लोगो की जिम्मेदारी थी। जो संघर्ष कर रहे थे, उनका एक काम था, दिन मे अपना बायोडाटा बांटना, साक्षात्कार देना और रात मे…
अपना ग़म ले के कहीं और न जाया जाये
घर में बिखरी हुई चीज़ों को सजाया जाये,
घर से मस्जिद है बहुत दूर ,चलो यू टर्न ले
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये ।
निदा फाजली की ये गजल मै कल फिर एक बार “वाह वाह″ मे सुनी। जब उन्होने ये शेर पाकिस्तान मे एक मुशायरे मे पढे थे,उसके बाद कुछ श्रोताओ ने उनसे पूछा कि
“मस्जिद किसी बच्चे से बडी कैसे हो सकती है।
उनका जवाब था
"मस्जिद तो इंसान के हाथ बनाते है, लेकिन बच्चो को तो खुदा के हाथ बनाते है !"
ये पंक्तिया फिर याद आ गयी जब गढ्ढे मे गिर…
मेरा गांव जहां मेरा सारा बचपन और किशोरावस्था बीता एक आम भारतीय गांव था। गांव के पश्चिम मे पाठशाला थी ,उसके बाद एक बड़ा सा मैदान। इस मैदान को ‘झंडा टेकरा’ कहा जाता था। पाठशाला के पीछे एक पहाड़ी, पहाड़ी और ‘झंडा टेकरा’ को विभाजित करती हुयी एक नहर। गांव के उत्तर मे था एक बडा बरगद का पेड़ और उसके पिछे एक बड़ा सा तालाब। बरगद के पेड़ और गांव को अलग करती एक पक्की सडक।
ये बरगद का पेड़ गांव का हृदय-स्थल था, ये बस स्थानक तो था ही साथ मे चौपाल का भी कार्य करता था। गांव के सारे के सारे…
लालु और सूअर का बच्चा
लालुजी अपने ड्रायवर के साथ एक बार कार से जा रहे थे। एक गांव से पहले उनकी कार के निचे एक सूअर का बच्चा कुचल कर मर गया। लालुजी दुखी हुये। ड्रायवर को कुछ पैसे दिये और कहा कि “गांव मे जाओ और सूअर के मालिक को मुआवजा दे आओ”
ड्रायवर पैसे लेकर गांव चला गया। एक घंटा बीत गया, दो घंटे बीत गये ड्रायवर वापिस नही आया। लालुजी बैचेनी से टहलते रहे। तिसरे घंटे के आखिर मे ड्रायवर एक बोरा सिर पर लादे आते दिखा। पास आने पर लालुजी ने पूछा “का रे ड्रायबर , अतना देर काहे लगा दि…
ये किस्से उस समय के है जब मै प्राथमिक पाठ्शाला मे था। हम महाराष्ट्र के गोंदिया जिले मे एक गांव झालिया मे रहते थे, गांव के बाहर थी हमारी पाठशाला। पाठशाला के ठीक सामने एक बडा सा मैदान और एक कुंआ। एक तरफ ध्वजस्तंभ,जिसका प्रयोग साल मे दो बार १५ अगस्त और २६ जनवरी को होता था। पाठशाला के एक तरफ थी,पानी की नहर, पीछे एक छोटी सी पहाड़ी।
पाठशाला की इमारत का निर्माण इस तरह से किया गया था कि किसी भी कक्षा मे प्रवेश करने के लिये तीन सीढीया चढनी होती थी। पाठशाला का समय होता था ११ बजे सुबह…
आज गुरु पूर्णिमा है, वेद व्यास का जन्मदिन ! गुरु पूर्णिमा एक ऐसा पर्व है जिसमें हम अपने गुरुजनों, श्रेष्ठजनों व माता-पिता के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं तथा उनका आदर करते है।
इस दिन के साथ बचपन की काफी सारी खट्टी मीठी यादे जुड़ीं हुयी हैं। मुझे याद है कि मेरा स्कूल मे प्रवेश इसी दिन कराया गया था। सुबह कलम -पाटी पूजा हुयी थी, तिलक लगाया गया था। पाटी पर एक बड़ा सा ॐ बनाया गया था। एक मंत्र भी पढ़ा गया था
ॐ नमः सिद्धम ।
ॐ नमः सिद्धम । इस मंत्र से याद आया कि हमारे गांव मे एक …
हमारा देश हमेशा प्रगति के मार्ग पर रहता है, इसका मूल कारण यह है कि मार्ग पर हमेशा कार्य चलते रहता है। मार्ग पर कार्य रूकने का मतलब होता है प्रगति का मार्ग अवरुद्ध हो गया है। हर तरफ पहले गहरे गड्डे खोदना, उसमे से अलग अलग तरह के पाईप निकाल कर रख देना। कितने ही तरह की पाईप-लाईन होती है पीने के पानी की, गटर लाईन(ये दोनो पास पास ही होती है, आवश्यकता होने पर एक दूसरे की मदद करती है),टेलीफ़ोन की, बिजली की, गैस की,टाटा की, रिलायंस की… वगैरह वगैरह। इन सभी पाईपलाईने किसी हसीना की चोट…
और पढ़ेंचेन्नई मे कार्य करते हुये एक वर्ष बीत चुका था । एक ही कार्य की नीरसता से मन उब गया था । किसी परिवर्तन की आवश्यकता महसुस हो रही थी । ऐसे मे प्रदीप ने एक शाम खाने के समय कहा चलो कन्याकुमारी चलते हैं । अंधा क्या चाहे , दो आँखें । बिना सोचे विचारे कह दिया, चलो चलते है । अगले दिन आँफिस आ कर सहकर्मीयों से बात की। तब एक और महाशय श्रीनिवास भी तैयार हो गये । आनन फानन कार्यक्रम बना । चल दिये हम तीनों सुदूर भारत के दक्षिण मे ‘’कन्याकुमारी'’ ।
हमारा ‘’चेन्नई कन्याकुमारी'’ एक्सप…
“रांग नंबर” यह फोन पर वार्ता का सबसे मह्त्वपूर्ण शब्द है। ऐसे तो हमारे फोन इतिहास मे ना जाने कितने रांग नंबर आते है ,लेकिन कुछ रांग नम्बर हमेशा याद रह जाते है…
ऐसा ही एक रांग नम्बर मुझे आया था।
एक घनघोर अंधेरी रात, बारिश हो रही थी और बिजली जा चुकी थी। बिजली जाने पर हमेशा की तरह मै मोमबत्ती ढूंढ रहा था।वैसे भी मुझे मोमबत्ती हमेशा बिजली आ जाने के बाद ही मिलती है। मै मोमबत्ती शोध मुहिम मे व्यस्त था कि मेरा फोन बजा। फोन उठाने पर एक कर्णप्रिय मधुर आवाज आयी
“हैलो, बिजली आफिस ”
“…
बहुत पुरानी बात है, जब हम प्राथमिक स्कूल के छात्र थे। हमारा एक सहपाठी था मुन्नाभाई!
मुन्नाभाई हमारी कक्षा का नेता था, मतलब कि कक्षा कप्तान था। स्कूल के उसके दैनिक कार्यो मे होता था, सुबह सबसे पहले पहुंच कर दरीयों पर कब्जा करना। जी हां आपने सही पढा दरीयों पर कब्जा करना। हमारे स्कूल मे डेस्क बेंच नाम की वस्तुएँ नही हुआ करती थी। १०-१२ फुट लंबी और एक फुट चौडी दरीयां, दरीयां छात्रों की संख्या के हिसाब से उसी तरह कम हुआ करती थी, जिस तरह आई आई टी और आई आई एम की सीटें कम होती है। म…
१९९७-१९९८, संगणक अभियांत्रीकी का अंतिम वर्ष। इस समय तक हम डेनिस रिची के परम भक्त बन चुके थे, यशवंत कान्हेटकर हमारे दूसरे देवता थे । ‘सी’ कंप्यूटर प्रोग्रामिंग भाषा पर मेरा अच्छा खासा अधिकार हो गया था। मै इस भाषा का उपयोग सामान्य प्रोग्रामिंग के अतिरिक्त ,वायरस बनाने, टी एस आर(टर्मिनेट एंड स्टे रेसीडेन्ट प्रोग्राम), सिस्टम प्रोग्रामिंग के लिये भी करता था। यह वह दौर था जब कंप्यूटर प्रोग्रामिंग मेरे लिये एक दीवानगी बन चुकी थी, मैं गर्व से कहता था ‘कंप्यूटर’ मेरा पहला प्यार है।
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पिछली पोष्ट मे मैने कहा था:
दूसरे दिन मैने संगणक अभियांत्रीकी मे प्रवेश ले लिया और अपने विज्ञान महाविद्यालय को अलविदा कहा । इस दिन एक ऐसी घटना घटी जिसे मैं आज भी नही भुला पाया हूं। ये एक लंबा किस्सा है फिर कभी…।
ये चिठ्ठा वही किस्सा है….
ये पढने के बाद ये तो शर्तिया है कि आप लोग मुझे कोसना शुरू कर देंगे, कुछ गालीयां देंगे, हो सकता है कि कुछ खतरनाक सी टिप्पणियां भी आयें। वैसे मैं इस प्रतिक्रिया के लिये तैयार भी हुं ।
सन १९९४, उम्र लगभग १७ वर्ष । वही किशोरावस्था और युवावस्था …
सपने, हां सपने तो मैने खूब देखे है, बचपन से लेकर जवानी तक ! सपने देखना कब शुरू किया , याद नही, शायद होश संभालने के साथ ही, सपने देखना शुरू कर दिया था। सपने , खुली आंखों के सपने !
बचपन नंदन ,चंदामामा और इंद्रजाल कामिक्स पढ़ते हुये बीता। परिया, जादू की छडी, चमत्कारी शक्तियों और जादू की छडी से सराबोर वो कहानियां ! इन कहानियो के मायाजाल मे लिपटे सपने ! जो यथार्थ के धरातल पर असंभव थे, लेकिन बाल-मन उन्ही सपनों के मग्न रहता था। इसी दौरान दूर-दर्शन पर विक्रम बेताल और सिहांसन बत्तीस…
सोशल मिडीया पर