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शिक्षक दिन 2015 : मेरे जीवन को गढ़ने वाले महानुभावो का आभार

आज शिक्षक दिन है। आज मै जो कुछ भी हुं, अपने शिक्षकों की दी हुयी शिक्षा के कारण। मेरे इन शिक्षकों मे मेरे स्कूली शिक्षकों के अतिरिक्त हर वह व्यक्ति शामिल है जिससे मैने कोई सबक प्राप्त किया है।

जब भी मै अपने शिक्षकों के बारे मे सोचता हुं, सबसे पहले मुझे याद आते है मेरे अपने पापा, जो स्वयं एक शिक्षक थे। उन्होने ही मेरी औपचारिक शिक्षा का आरंभ अक्षर ज्ञान कराया था। हाथों मे कलम पकड़कर स्लेट पर अक्षर लिखना सिखाया था, उसके बाद होल्डर पेन से कॉपी पर लिखना भी।

मेरा बचपन एक छत्तीसगढ़, मप्र की सीमा पर स्थित ज़िला गोंदिया महाराष्ट्र के एक गांव झालिया मे बीता है। पास के गांव कावराबांध के ज़िला परिषद हाई स्कूल मे मेरे पापा गणित और विज्ञान के शिक्षक थे। इस क्षेत्र की की कम से कम तीन से चार पीढ़ी को पापा ने गणित और विज्ञान पढ़ाई है। पापा के जाने के लगभग 17 वर्ष बाद भी जब मै उस क्षेत्र से गुजरता हुं, मेरी पहचान मेरे अपने नाम से नही, मेरे पापा के नाम से है, लोग आज भी मुझे श्रीवास्तव गुरूजी का लड़का के नाम से जानते है।

जब से मैने होश सम्हाला था पापा को अपने छात्रों मे मध्य ही पाया था। पापा स्कूल मे तो पढ़ाते ही थे, लेकिन पापा के पास पढ़ने के उनके छात्र सुबह से आ जाते थे। घर के बाहर आंगन मे पापा इन लोगो को चटाई पर बिठाकर हर छात्र को उसकी क्षमता के अनुसार प्रश्न हल करवाते रहते थे। हर छात्र पर पापा का निजी ध्यान रहता था, एक छात्र ज्यामिति के प्रश्न हल कर रहा होता, तो दूसरा बीज गणित के समीकरणों मे उलझा रहता था। शाम को पापा जब स्कूल से लौटते तब भी रात के आठ नौ बजे तक उनके छात्र फिर से आ जाते थे। स्कूल के बाहर पापा का छात्रो को पढ़ाना ट्युशन नही था, पापा इसके किसी से कोई फ़ीस नही लेते थे। होता यह था कि पापा के हाईस्कूल मे जो अधिकतर छात्र पहुंचते थे, उनका गणित का आधार पूरी तरह से गायब रहता था। अधिकतर छात्र किसानो के पुत्र, और स्कूल सरकारी, किसी मे शिक्षक है, तो किसी मे नही। स्कूल मे शिक्षक हो तो भी मातापिता द्वारा प्राथमिक स्कूल और कृषि कार्य मे कृषि कार्यो को प्राथमिकता। अब ऐसे छात्रो स्कूल के समय मे पाठयक्रम संबंधित ही पढाया जाये तो सारा का सारा ज्ञान उनके सर के उपर से चला जाता था, ऐसे छात्रो को पापा घर आने कह देते थे।  अधिकतर छात्र इसके बदले मे कभी सब्ज़ियाँ, कभी गन्ने, कभी हरे चने, या उनके खेतो मे जो भी कुछ उग रहा हो ला देते थे। जब मै छोटा था, स्कूल प्रारंभ नही किया था, इन सभी के साथ पापा मुझे भी पढ़ाते थे।

जब मै चार वर्ष का हुआ तो पापा ने मुझे स्कूल हिंदी पूर्व माध्यमिक शाला झालिया मे पहली कक्षा मे भर्ती करवा दिया। यह 1980 का वर्ष था। यह स्कूल पहली से सांतवी तक था। इस स्कूल के मुख्याध्यापक थे लिल्हारे गुरूजी । छह फ़ीट उंचे, हट्टा कट्टा शरीर, भीड़ मे दूर से नजर आने वाला व्यक्तित्व। पढ़ाने मे सौम्य लेकिन ग़लती करने पर सजा देने मे उतने ही कठोर। जब हमारे कक्षा शिक्षक ना आयें हो तब वे ही पढ़ाते थे। उन्होने औपचारिक शिक्षा सातवी कक्षा तक ही प्राप्त की थी और शिक्षक बन गये थे। बाद मे उन्होने द्सवी कर ली थी। उन्होने हमे पहाड़े कुछ इस तरिके से याद करवाये थे कि मुझे आज तक तीस तक के पहाड़े याद है। वर्ग करना, वर्गमूल निकालना के आसान तरीके भी सिखाये थे।

कक्षा एक से लेकर तीसरी तक मेरे कक्षाध्यापक थे जामुनकर गुरूजी । सुबह ग्यारह बजे से लेकर शाम के पांच बजे तक जामुनकर गुरूजी हमे हिंदी, गणित जैसे विषय पढ़ाते थे। घर मे ही अक्षर ज्ञान हो जाने के कारण मै हिंदी लिख लेता था और सरल वाक्यो को पढ़ भी लेता था। ऐसे मे जामुनकर गुरुजी को जब कक्षा से बाहर जाना होता था मुझे मेज पर खड़ा कर श्यामपट पर लिखने और बाकी कक्षा को अपनी अपनी स्लेट पर नकल करने लगा देते थे। तीन  वर्षो तक जामुनकर गुरूजी ने हमे अक्षरज्ञान, गणित, पहाड़े, हिंदी जैसे विषय पढ़ाये। जामुनकर गुरूजी की एक ख़ासियत थी, वे पिछड़े समाज से आने वाले छात्रो पर विशेष ध्यान देते थे। मुझ पर तो सबसे अलग ही ध्यान रहता था, किसी भी गलती पर वे मुझे अन्य छात्रो से कठोर सजा देते थे, उनका कहना होता था कि तुम एक शिक्षक के पुत्र हो कर गलती करोगे, तो बाकी तुम्हारी नकल करेंगे। उस समय मुझे उन पर क्रोध आता था, अब मै जानता हुं कि वे सही थे।

कक्षा चौथी मे हमारे कक्षाध्यापक थे तिवारी गुरूजी। अब हमारे विषय बढ़ गये थे, कक्षा मे हिंदी, गणित, इतिहास, भूगोल और विज्ञान पढ़ाये जाते थे। तिवारी गुरूजी  का पढ़ाने का अंदाज अलग था। वे किसी भी एक छात्र को खड़ा कर पुस्तक पढ़ने लगा देते थे और उसके बाद समझाते थे, साथ मे कापीयों मे महत्वपूर्ण बाते लिखवाते जाते थे। इस वर्ष हमने अपनी कक्षा की दिवारो पर हर विषय की महत्वपूर्ण तथ्यों को चित्रो और आलेखो से सजा दिया गया था। जब हमारे स्कूल का वार्षिक निरीक्षण हुआ था तब हमारी कक्षा को विशेष रूप से प्रदर्शित किया गया था। तिवारी गुरुजी स्कूल मे होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमो के प्रभारी थे। वे एक अच्छे नाटक लेखक और निर्देशक भी थे। उनके निर्देशन मे हमने स्कूली स्तर पर कई नाटको मे भाग लिया था, इसमे से एक नाटक "शिवाजी द्वारा अफजल खान वध" तथा "भील आदिवासी नृत्य" का मंचन तो काफ़ी बार हुआ था।  तिवारी गुरूजी को इन दो कार्यक्रमो के द्वारा काफ़ी प्रसिद्धी मिली थी।

कक्षा पांचवी मे हम आये शेख बहनजी के अंतर्गत। पांचवी मे दो विषय बढ़ गये थे, अब हिंदी के साथ अंग्रेजी और मराठी भी आ गये थे, गणित, विज्ञान, इतिहास, भूगोल और नागरिक शास्त्र तो थे ही। शेख बहनजी काफी सौम्य शिक्षिका थी। स्कूल का संगीत विभाग उन्ही के अंतर्गत था। मराठी का पहला पाठ मैने शेख बहनजी से ही पढ़ा था। पांचवी मे गणित के अतिरिक्त सभी विषय शेख बहनजी ने ही पढ़ाये थे। इस दौरान स्कूल मे नैकाने गुरूजी आ गये थे, उन्होने पांचवी से लेकर सांतवी तक गणित पढ़ाया। नैकाने गुरूजी की विशेष कृपा मुझ पर रहती थी, वे जानते थे कि मै अपना अपना काम सबसे पहने समाप्त करने के बाद दूसरो को तंग करता हुं, तो वे बाकि सहपाठीयों की तुलना मे दोगुना प्रश्न दे देते थे। पिटाई, मुर्गा बनना या खड़ा रहना बोनस मे रहता था। वैसे गणित की कक्षा समाप्त होने पर शेख बहनजी के आने पर सजा समाप्त हो जाती थी। शेख बहनजी से सब कुछ अच्छे से पढ़ाया लेकिन वे भी अपने सारे प्रयासो बावजूद मेरे गले से सूर नही निकाल पायी, मै हमेशा की तरह बेसुरे तरिके से गाता था, और आज भी वही हाल है।

कक्षा छठी मे टाटी गुरूदेव ने पढ़ाया। टाटी गुरूदेव वे शिक्षक है जिनका प्रभाव मेरे जीवन पर काफी रहा है। पापा को पढ़ने का शौक था ही, बचपन से ही खिलौने से ज्यादा पुस्तके देखी थी। अब टाटी गुरूदेव के साथ, भाषण देना, वाद विवाद प्रतियोगिता मे भाग लेना, सामान्य ज्ञान प्रतियोगिता मे भाग लेना भी जुड़ गया था। स्वयं स्फूर्त भाषण और वादविवाद प्रतियोगीताओं मे स्कूली दिनो से लेकर कालेज के दिनो तक  भाग लिया, ढेरो इनाम जीते, जिसका पूरा श्रेय टाटी गुरूदेव को जाता है। मेरे स्कूली दिनो मे कक्षा चौथी और सांतवी मे महाराष्ट्र शाषन द्वारा एक बुद्धिमत्ता परिक्षा होती थी, इसमे सफ़ल होने पर शिष्यवृत्ती मिलती थी। टाटी गुरूदेव ने हम लोगो को उसके लिये तैयार करवाया, और मैने चौथी और सांतवी दोनो मे परिक्षा पास की थी। इस कारण मुझे पांचवी से दंसवी तक हर वर्ष शिष्यवृत्ती मिलती थी। स्कूल मे शारीरिक शिक्षण विभाग भी टाटी गुरूदेव के ही जिम्मे था, योग और उसके सभी आयामो का परिचय उन्होने ही करवाया। सुबह उठकर दौड़, योग, स्नान के पश्चात ही कुछ करने की उन्होने जो आदत हम लोगो मे डलवायी थी, वह आज लगभग तीस वर्ष पश्चात आज भी है। टाटी गुरूदेव ने मुझे गायत्री मंदिर आमगांव के पुस्तकालय मे सदस्यता दिलवायी। वेदो से पहला परिचय उसी समय लगभ दस ग्यारह वर्ष की उम्र मे हुआ, शायद यही वह समय था जब मेरे मन मे नास्तिकता का बीज भी पड़ गया था। टाटी गुरूदेव से बहुत कुछ सीखा, जिसे एक पैरा या कुछ पन्नो मे भी व्यक्त करना मुश्किल है। टाटी गुरूदेव  से एक शिकायत भी रही कि वर्ष मे एक संक्षिप्त दौर ऐसा आता था कि कि वे कुछ सप्ताह के लिये शराब के ग़ुलाम हो जाते थे। वे कुछ सप्ताह के दौरान चौबीस घंटे मे नशे मे धुत्त रहते थे, कभी सड़क किनारे नाली मे भी पडे मिलते थे। उस समय उनसे डर भी लगता था लेकिन उस दौर के गुजरने के बाद वे सामान्य हो जाते थे।

कक्षा सातवी मे आये कुराहे गुरूजी। कुराहे गुरूजी ने हमारी अंग्रेजी सुधारने मे काफी मदत की थी। उन्होने काफ़ी प्रयास किया था कि मै पढ़ाई के अतिरिक्त खेलों मे भी भाग लुं, मुझे जबरन कबड्डी और खो खो टीम मे डाल देते थे, लेकिन हम खेल मे भाग लेने की बजाय मैदान से ही भाग लेते थे।

लिल्हारे गुरूजी, जामुनकर गुरूजी, तिवारी गुरूजी, शेख बहन जी, नैकाने गुरूजी, टाटी गुरूदेव, कुराहे गुरूजी वे शिक्षक थे, जिन्होनें मेरे भविष्य की नींव डाली। इस नींव पर इमारत खड़ी करने का कार्य हाईस्कूल के आंठवी से दसंवी मे शिक्षक तांडेकर सर, मच्छीरके सर, बसोने सर, रहांगडाले सर और दोनोड़े सर ने की। जुनियर कालेज मे यह कार्य बोरकर सर तथा पसिने सर ने किया।


मेरे जीवन को गढ़ने वाले महानुभावो , मै जानता हुं कि आप सब इस लेख को नही पढ़ पा रहे है लेकिन आज शिक्षक दिन पर आप सब की याद आ रही है, मै आप सबका आभारी हुं। पापा और जामुनकर गुरूजी आप दोनो तो चले गये हो, अब तो बहुत से शिक्षको के वर्तमान के बारे मे मेरे पास ज्यादा जानकारी भी नही है लेकिन आशा है कि आप सभी सकुशल और प्रसन्न होंगे। आप सबका आभार और धन्यवाद!

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