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मेरे प्रायमरी के शिक्षक :जांभुळकर गुरुजी

समय : 1980-1983
स्थान : झालीया (गोंदिया जिला, महाराष्ट्र का एक गांव)

इस गांव का स्कूल हिंदी पूर्व माध्यमिक शाला झालीया जहाँ कक्षा 1 से 7 वी तक पढ़ाई होती थी। आस पास के चार पांच गांव और टोलो के लिये एक मात्र स्कूल।

स्कूल  मे हर कक्षा मे यही कोई पचास साठ छात्र, कहने को तो एक से अधिक सेक्सन होते थे, लेकिन सारे बच्चे एक की कमरे मे बैठते थे। एक ही शिक्षक सारे बच्चो को सारे विषय पढ़ाते थे।

कक्षा एक से तीसरी तक हमे जांभुळकर गुरुजी ने पढ़ाया। एक दम श्याम वर्ण के घुंघराले बालो वाले जांभुळकर गुरुजी जो पास से एक टोले साखरीटोला से आते थे। अक्सर साईकिल से आते थे, कभी कभार पैदल भी आते थे।

शिक्षक अच्छे थे, लेकिन थोड़े कड़क मिजाज। उनके मिजाज को समझना मुश्किल होता था, बच्चो के साथ मुस्कराते नही देखा था। गलती होने पर विद्यादायनी से सजा दिया करते थे। गलती पढ़ाई लिखाई से संबधित हो आवश्यक नही, सजा देने के लिये बढे हुये बाल, नाखून, मैले हाथ पैर, मैले कपड़े पर भी धुनाई कर देते थे। कपड़े पुराने, फ़टे चलेंगे लेकिन मैले नही चाहीये। स्कूल मे युनिफ़ार्म थी, सफ़ेद शर्ट, नीला पैट/स्कर्ट, स्कूल मे युनिफ़ार्म ना पहनने पर सजा शायद ही कभी मिली हो।

मुझे उनसे बहुत डर लगता था, कभी भी किसी भी कारण से धुनाई कर देते थे। कारण बहुत अजीब देते थे कि तु मास्टर का लड़का है, तेरी धुनाई होगी तो बाकी  सब सीधे रहेंगे।

मेरे पापा बाजू के एक दूसरे गांव के हाई स्कूल मे गणित और विज्ञान के शिक्षक थे। पापा और जांभुळकर  गुरुजी मे एक आदत समान थी, पढ़ने की। दोनो मे पुस्तको का आदान प्रदान मेरे माध्यम से होते रहता था। हर सप्ताह जांभुळकर गुरुजी आदेश देते थे, कि अपने पापासे किताब मांगकर ले आना। अब पापा के पास नई किताब ना हो और उन्होने ना दी तो आज्ञा के पालन ना करने मेरे कान उमेठे जाते। और किताब दे देते तो शाबाश कहते हुये जोरो से पीठ ठोंकी जाती।

झालिया और उसके आसपास के गांवो के अधिकतर लोग कृषक थे। गिने चुने ब्राह्मण परिवार थे, 80% कृषक और शेष दलित जातियों से  जुडे़ परिवार। यह अनुपात शिक्षको मे भी था। गांव अपने टोलो सहित पिछड़ा था, शिक्षित लोग बहुत कम थे, सारे गांव मे मुश्किल से चार या पांच ग्रेड्युट रहे होंगे। मेरे स्कूल के अधिकतर शिक्षक भी दसंवी/बारहंवी के बाद शिक्षक हो गये थे, बाद मे उनमे से कुछ ने धीरे धीरे गेड्युएशन कर लिया था। अधिकतर शिक्षको का छात्रो से व्यवहार उनकी पृष्ठभूमी पर निर्भर करता था। वे संपन्न परिवार, उंची जाति वाले परिवार से आनेवाले छात्रो और होनहार छात्रो से अच्छा व्यवहार करते थे। जबकि अन्य से उनका व्यवहार तिरस्कार करने वाला ही होता था। 

जांभुळकर गुरुजी  छात्रो से व्यवहार मे अन्य शिक्षको से भिन्न थे। वे होनहार छात्रो या संपन्न परिवार, उंची जाति वाले परिवार से आनेवाले छात्रो पर ध्यान कम देते थे। शायद वो मानते थे कि ये लोग तो पढ़ लिख जायेंगे ही। लेकिन कमजोर और दलित परिवारों से आने वाले छात्रों के साथ कड़ाई से पेश आते थे। उन्हे अधिक और कठिन सजा देते थे।

मेरी कक्षा मे एक उद्दंड छात्र था, नाम था राजेंद्र। उसके परिवार का पेशा मृत पशुओं से खाल उतारना, खाल पकाना और उससे जुते चप्पल और कृषि कार्य मे प्रयुक्त होने वाली चमड़े की वस्तुयें बनाना था। राजेंद्र के शरीर से एक अजीब सी गंध आती थी, कपड़े और हाथ पैर मैले रहेते  थे। राजेंद्र  पढ़ने लिखने मे तो कमजोर था ही, साथ ही हर ओर से मिलने वाले तिरस्कार से वह उधमी, उद्दंड भी हो गया था। जांभुळकर गुरुजी उसे सुधारने मे लगे रहते थे। अन्य लोगो से दुगनी सजा देते थे। बाकि छात्रो से अधिक ध्यान राजेंद्र पर रहता था।

जांभुळकर गुरुजी का यह व्यवहार अन्य दलित छात्रो के साथ भी रहता था, वे राजेंद्र को तो नही सुधार पाये लेकिन इन दलित छात्रो मे से कुछ अच्छी तरह से पढ़ पाये और आगे भी बढ़े।

स्कूल के उन दिनो मे मुझे लगता था कि जांभुळकर गुरुजी ऐसा पक्षपात क्यों करते है। इन नाकारा छात्रो पर अधिक ध्यान क्यों देते है?  बाद मे बड़े होने पर और समझ विकसित होने पर पता चला कि पक्षपात जांभुळकर गुरुजी नहीं अन्य शिक्षक करते थे। जांभुळकर गुरुजी तो उनकी सहायता मे लगे रहते थे जिन्हे उसकी आवश्यकता अधिक है।

हम स्कूल से निकले, गांव छूटा, जड़े छूटी। झालिया स्कूल तो 1987 मे छूट गया था। गांव 1998 मे, फ़िर भी साल मे एक दो बार स्कूल चला जाता था। 1998 के बाद वह भी छूट गया। एक लंबे अरसे के बाद जब 2004 मे गांव गया था तो स्कूल भी गया। पता चला कि जांभुळकर गुरुजी रिटायर हो गये थे और उसके कुछ दिनो बाद जीवन से भी।

कक्षा 1 से 3, वर्णमाला से लेकर बारहखड़ी, शुरुवाती अंकगणित से नींव बनाने वाले जांभुळकर गुरुजी  चले गये थे।

#गुरु_पुर्णीमासमय : 1980-1983
स्थान : झालीया (गोंदिया जिला, महाराष्ट्र का एक गांव)

इस गांव का स्कूल हिंदी पूर्व माध्यमिक शाला झालीया जहाँ कक्षा 1 से 7 वी तक पढ़ाई होती थी। आस पास के चार पांच गांव और टोलो के लिये एक मात्र स्कूल।

स्कूल  मे हर कक्षा मे यही कोई पचास साठ छात्र, कहने को तो एक से अधिक सेक्सन होते थे, लेकिन सारे बच्चे एक की कमरे मे बैठते थे। एक ही शिक्षक सारे बच्चो को सारे विषय पढ़ाते थे।

कक्षा एक से तीसरी तक हमे जांभुळकर गुरुजी ने पढ़ाया। एक दम श्याम वर्ण के घुंघराले बालो वाले जांभुळकर गुरुजी जो पास से एक टोले साखरीटोला से आते थे। अक्सर साईकिल से आते थे, कभी कभार पैदल भी आते थे।

शिक्षक अच्छे थे, लेकिन थोड़े कड़क मिजाज। उनके मिजाज को समझना मुश्किल होता था, बच्चो के साथ मुस्कराते नही देखा था। गलती होने पर विद्यादायनी से सजा दिया करते थे। गलती पढ़ाई लिखाई से संबधित हो आवश्यक नही, सजा देने के लिये बढे हुये बाल, नाखून, मैले हाथ पैर, मैले कपड़े पर भी धुनाई कर देते थे। कपड़े पुराने, फ़टे चलेंगे लेकिन मैले नही चाहीये। स्कूल मे युनिफ़ार्म थी, सफ़ेद शर्ट, नीला पैट/स्कर्ट, स्कूल मे युनिफ़ार्म ना पहनने पर सजा शायद ही कभी मिली हो।

मुझे उनसे बहुत डर लगता था, कभी भी किसी भी कारण से धुनाई कर देते थे। कारण बहुत अजीब देते थे कि तु मास्टर का लड़का है, तेरी धुनाई होगी तो बाकी  सब सीधे रहेंगे।

मेरे पापा बाजू के एक दूसरे गांव के हाई स्कूल मे गणित और विज्ञान के शिक्षक थे। पापा और जांभुळकर  गुरुजी मे एक आदत समान थी, पढ़ने की। दोनो मे पुस्तको का आदान प्रदान मेरे माध्यम से होते रहता था। हर सप्ताह जांभुळकर गुरुजी आदेश देते थे, कि अपने पापासे किताब मांगकर ले आना। अब पापा के पास नई किताब ना हो और उन्होने ना दी तो आज्ञा के पालन ना करने मेरे कान उमेठे जाते। और किताब दे देते तो शाबाश कहते हुये जोरो से पीठ ठोंकी जाती।

झालिया और उसके आसपास के गांवो के अधिकतर लोग कृषक थे। गिने चुने ब्राह्मण परिवार थे, 80% कृषक और शेष दलित जातियों से  जुडे़ परिवार। यह अनुपात शिक्षको मे भी था। गांव अपने टोलो सहित पिछड़ा था, शिक्षित लोग बहुत कम थे, सारे गांव मे मुश्किल से चार या पांच ग्रेड्युट रहे होंगे। मेरे स्कूल के अधिकतर शिक्षक भी दसंवी/बारहंवी के बाद शिक्षक हो गये थे, बाद मे उनमे से कुछ ने धीरे धीरे गेड्युएशन कर लिया था। अधिकतर शिक्षको का छात्रो से व्यवहार उनकी पृष्ठभूमी पर निर्भर करता था। वे संपन्न परिवार, उंची जाति वाले परिवार से आनेवाले छात्रो और होनहार छात्रो से अच्छा व्यवहार करते थे। जबकि अन्य से उनका व्यवहार तिरस्कार करने वाला ही होता था। 

जांभुळकर गुरुजी  छात्रो से व्यवहार मे अन्य शिक्षको से भिन्न थे। वे होनहार छात्रो या संपन्न परिवार, उंची जाति वाले परिवार से आनेवाले छात्रो पर ध्यान कम देते थे। शायद वो मानते थे कि ये लोग तो पढ़ लिख जायेंगे ही। लेकिन कमजोर और दलित परिवारों से आने वाले छात्रों के साथ कड़ाई से पेश आते थे। उन्हे अधिक और कठिन सजा देते थे।

मेरी कक्षा मे एक उद्दंड छात्र था, नाम था राजेंद्र। उसके परिवार का पेशा मृत पशुओं से खाल उतारना, खाल पकाना और उससे जुते चप्पल और कृषि कार्य मे प्रयुक्त होने वाली चमड़े की वस्तुयें बनाना था। राजेंद्र के शरीर से एक अजीब सी गंध आती थी, कपड़े और हाथ पैर मैले रहेते  थे। राजेंद्र  पढ़ने लिखने मे तो कमजोर था ही, साथ ही हर ओर से मिलने वाले तिरस्कार से वह उधमी, उद्दंड भी हो गया था। जांभुळकर गुरुजी उसे सुधारने मे लगे रहते थे। अन्य लोगो से दुगनी सजा देते थे। बाकि छात्रो से अधिक ध्यान राजेंद्र पर रहता था।

जांभुळकर गुरुजी का यह व्यवहार अन्य दलित छात्रो के साथ भी रहता था, वे राजेंद्र को तो नही सुधार पाये लेकिन इन दलित छात्रो मे से कुछ अच्छी तरह से पढ़ पाये और आगे भी बढ़े।

स्कूल के उन दिनो मे मुझे लगता था कि जांभुळकर गुरुजी ऐसा पक्षपात क्यों करते है। इन नाकारा छात्रो पर अधिक ध्यान क्यों देते है?  बाद मे बड़े होने पर और समझ विकसित होने पर पता चला कि पक्षपात जांभुळकर गुरुजी नहीं अन्य शिक्षक करते थे। जांभुळकर गुरुजी तो उनकी सहायता मे लगे रहते थे जिन्हे उसकी आवश्यकता अधिक है।

हम स्कूल से निकले, गांव छूटा, जड़े छूटी। झालिया स्कूल तो 1987 मे छूट गया था। गांव 1998 मे, फ़िर भी साल मे एक दो बार स्कूल चला जाता था। 1998 के बाद वह भी छूट गया। एक लंबे अरसे के बाद जब 2004 मे गांव गया था तो स्कूल भी गया। पता चला कि जांभुळकर गुरुजी रिटायर हो गये थे और उसके कुछ दिनो बाद जीवन से भी।

कक्षा 1 से 3, वर्णमाला से लेकर बारहखड़ी, शुरुवाती अंकगणित से नींव बनाने वाले जांभुळकर गुरुजी  चले गये थे।

#गुरु_पुर्णीमा

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