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मेरी एक मूर्खता


पिछली पोष्ट मे मैने कहा था:
दूसरे दिन मैने संगणक अभियांत्रीकी मे प्रवेश ले लिया और अपने विज्ञान महाविद्यालय को अलविदा कहा । इस दिन एक ऐसी घटना घटी जिसे मैं आज भी नही भुला पाया हूं। ये एक लंबा किस्सा है फिर कभी…।
ये चिठ्ठा वही किस्सा है….
ये पढने के बाद ये तो शर्तिया है कि आप लोग मुझे कोसना शुरू कर देंगे, कुछ गालीयां देंगे, हो सकता है कि कुछ खतरनाक सी टिप्पणियां भी आयें। वैसे मैं इस प्रतिक्रिया के लिये तैयार भी हुं ।

सन १९९४, उम्र लगभग १७ वर्ष । वही किशोरावस्था और युवावस्था की संधि पर खड़ा मै । मध्यमवर्ग के आदर्शों के बीच पला बढ़ा आसमान को छूने की आकांक्षाओं रखने वाला , थोड़ा गुस्सैल , थोड़ा विद्रोही मन।

सपने देखे थे मेडिकल के, अच्छे अंकों के बावजूद प्रवेश नही मिल पाया था। निराशा थी पर निराशा से ज्यादा, व्यवस्था पर आक्रोश था। उम्र ही ऐसी थी जो व्यवस्था के अनुसार ढलने की बजाय व्यवस्था को तोड़ने मे विश्वास करती है।

हर असफलता एक नयी शुरूआत को जन्म देती है। मैने भी एक नयी शुरूआत का निश्चय कर लिया। चलो मेडिकल ना सही, विज्ञान मे स्नातक(बी एस सी) कर लेते है। पदवी(Degree) आने के बाद नागरी सेवा(Civil Services) का लक्ष्य निर्धारित किया। अब विषय कौन से चुने जायें ? जवाब आसान था ,भौतिकी और गणित मे तो रूचि बचपन से थी,लेकिन रसायन पसंद नही था। इसलिये इलेक्ट्रानिक्स ले लिया । मेडिकल की असफलता के बाद जीव-शास्त्र का तो प्रश्न ही पैदा नही होता था।

अब हम ठहरे थोडे पढाकू किस्म के जीव, पहले ही दिन से कक्षाओं मे जाना शुरू । बाकी पढाकूओ से सिर्फ अंतर इतना था कि कक्षा मे हम सामने की बेंचो पर ना बैठकर पीछे बैठते थे।

पहले ही दिन जब सभी का परिचय हो रहा था, हमने भी अपना परिचय दिया।
मैं आशीष हुं, मैं ज़िला परिषद स्कूल आमगांव से हुं और मैने १२ वी मे ९४ % अंक प्राप्त किये है !

मैने जैसे ही यह कहा सारी की सारी कक्षा मेरी तरफ देखने लगी, जैसे मै चिडियाघर से छूटा हुआ प्राणी हूं। कक्षा मे फुसफुसाहट शूरू हो गयी, पता नही ये फुसफुसाहटें मेरे सरकारी स्कूल से होने की वजह से थी या एक गांव से होने या मेरे अंकों से या इन सभी से !

कॉलेज जीवन मे नया नया प्रवेश था। एक नया रोमांच था, एक नया माहौल था। भाई लोग पढ़ाई से ज्यादा गपशप, कैण्टीन मे समय गुज़ारते थे। कक्षा से गोल मारकर फ़िल्मे देखना और दूसरे दिन उसकी चर्चा करना। आसपास से गुजरती कन्याओ पर सीटी बजाना, टिप्पणियां करना …………

मेरे लिये ये सब कुछ नया था। मैं परिवार के साथ एक गांव मे रहता था। रोज़ सुबह साईकिल से ६ किमी आमगांव जाता था, वहां से २४ किमी ट्रेन से गोंदिया कालेज । शाम को इसका उल्टा। पढने के अलावा और कोई धुन नही थी। घर से कालेज , कालेज से घर और इसी मे मस्त। मस्ती का समय , रेल का सफर मे होता था। २० मिनट के सफर मे खूब मज़े होते थे। हम लोग टिकट निरीक्षक को देखकर जान बूझकर अपने डिब्बे से दूसरे डिब्बे मे चले जाते थे, वो हमारे पीछे पीछे आता था। उसे पूरी रेल घुमाने के बाद हम उसे अपनी मासिक टिकिट दिखा देते थे ।

कक्षा मे पढाकू और अनुशासित होने के कारण, थोडे लोकप्रिय हो गये थे, विशेषतः कन्याओ मे। हर काम समय से करने की आदत बचपन से डाल दी गयी थी। स्कूल मे कोई काम समय से ना करने की सबसे ज्यादा सजा मुझे ही मिलती थी। जुमला होता था “एक शिक्षक का पुत्र यदि ऐसा करेगा तो बाकी क्या करेंगे ?” घर मे सजा दुबारा मिलती थी , बोनस मे। एक आदत हो गयी थी । इसी से कालेज मे हमारे नोट्स और प्रायोगिक पुस्तिका हमेशा पूर्ण रहती थी । रोज कोई ना कोई मेरे नोट्स और प्रायोगिक पुस्तिका नकल करने ले जाता था।

एक दिन एक खूबसूरत कन्या ने हमारी प्रायोगिक पुस्तिका मांगी। [इस कन्या के पीछे सारी कक्षा के लड़के पडे थे। एक अनार और ४० बीमार।] मैं एक प्रयोग मे व्यस्त था,शराफत से उसे कहा मेरे बैग से निकाल ले । दूसरे दिन वह पुस्तिका वापिस ले आई। हम फिर से व्यस्त, उसे बैग मे रख देने कहा। मेरी जगह कोई और होता तो उसके हाथो मे पुस्तिका देकर(या लेकर) धन्य हो जाता और सारी की सारी कक्षा को कैंटीन मे चाय और समोसो की पार्टी दे देता।

इतने मे अशोक आया,उसने भी वही वाली प्रायोगिक पुस्तिका मांगी। अशोक हमारी कक्षा मे बी बी सी के नाम से जाना जाता था। यदि आपको कोई खबर कालेज मे फैलानी हो तो आपके पास २ रास्ते है; १. किसी कन्या को बता दो और कह दो कि किसी को ना बताए। २. आप अशोक को बता दो।

हमने उससे भी पुस्तिका बैग से निकाल लेने कहा। और ये मेरी बेवकूफी की शुरूवात थी। अशोक ने पुस्तिका निकाली। पुस्तिका के साथ एक सुगंधित गुलाबी लिफाफा भी निकल आया। अशोक ने लिफाफा देखकर मजमून भांप लिया । पूरी कक्षा मे सभी के सामने ज़ोर ज़ोर से पढ़ना शुरू कर दिया

प्रिय आशीष,
……………………… ……………………….. ………..
मुझे तुमसे प्यार है, मैं तुम्हारे बिना जी नही सकती
………. ………….. ………….. …………………… ………
तुम्हारी और सिर्फ तुम्हारी
………………

मेरा चेहरा एकदम लाल हो गया था, कुछ शर्म से कुछ क्रोध से। कक्षा की सारी कन्याये मेरी ओर देख कर मुस्करा रहीं थी जैसे कह रही हो बड़े छुपे रूस्तम निकले। लडके मज़े ले रहे थे। ये सब मेरे लिये अजीब सा था। मैने उस कन्या को ढूंढने की कोशिश की। वो कक्षा मे नही थी। मैने अशोक से पत्र छीना और कक्षा से बाहर आया ।

वो कन्या गैलरी से कालेज के बाहर जा रही थी। मैने उसके पीछे जाकर उसे रोका । गुस्से से मेरा दिमाग काम नही कर रहा था। ‘सटाक’ मैने एक थप्पड उसके चेहरे पर रसीद किया और पत्र फाडकर फेंक दिया । उसके मुंह से निकला
“तुम मुझे नही चाहते इसका मतलब ये नही कि तुम मुझे अपनी पसंद के इज़हार से रोक सकते हो।”
मै पैर पटकते हुये कॉलेज से निकला और अगली रेल से घर पहुंचा। रास्ते मे दिमाग ठंडा हुआ। मम्मी परेशान ,आज ये जल्दी कैसे आ गया। शाम को पापा ने कहा “कल से अभियांत्रीकी के प्रवेश शुरू हो रहे है, तुम्हारा नाम प्रथम सूची मे है। कल जाकर प्रवेश ले लो।” दूसरे दिन मैने संगणक अभियांत्रीकी मे प्रवेश ले लिया और अपने विज्ञान महाविद्यालय को अलविदा कहा । वह दिन मेरा उस कालेज मे आखिरी दिन था, वह कन्या भी मुझे उस दिन के बाद कभी नही मिली।

आज जब मै पीछे मुड़कर देखता हुं तो एक अफसोस होता है कि काश मैने गुस्से को एक दिन के लिये काबू पा लिया होता। उसके प्यार को स्वीकारना या ना स्वीकारना अलग बात थी, लेकिन थप्पड मारना तो किसी भी तरह से सही नही था। उसने सही कहा था,आप किसी को अपनी पसंद के इज़हार से रोक तो नही सकते।
गलती अशोक की थी, उसे पत्र नही पढ़ना चाहिये था। लेकिन मेरा गुस्सा उस लड़की पर निकला। मैं उसे बाद मे प्यार से समझा भी सकता था। नही समझाता तो भी दूसरे दिन तो मैने कालेज ही छोड़ दिया था।
काश……घड़ी की सुईया पिछे की जा सकती…..
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13 टिप्पणीयां “मेरी एक मूर्खता” पर
अरे ये क्या किया आशीष भाई, लड़की को चाँटा मार दिया। अगर आपकी जगह मैं होता तो ….
लेकिन भगवान हमेशा ग़लत इंसान को ग़लत चीज़ देता है। मुझे दी फूटी किस्मत और आपको ……
प्रतीक पाण्डे द्वारा दिनांक मई 22nd, 2006

आशीष जी,
मुझे तो बस ये पंक्तियाँ याद आ रही है
“कभी किसी को मुक्कमल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता”
सागर चन्द नाहर द्वारा दिनांक मई 22nd, 2006

आशीष तुम्हारी सजा यही है कि तुम उसे जिन्दगी भर याद रखोगे।
तुमने उसे भले ही बुरा भला कहा हो, लेकिन यकीन के साथ कह सकता हूँ, तुम्हारे दिल के किसी ना किसी कोने मे उसने घर बना लिया था। अब भी दिल्ली दूर नही, ढूंढना चाहो तो वो मिल सकती है (अपने रवि रतलामी “जिन खोजा तिन पांइया” सर्विस चलाते है।(मेरी वाली को ढूंढ रहे है, तुम्हारी वाली को भी ढूंढ देंगे)
और हाँ, अशोक टाइप के बन्दो से होशियार रहना: ये खुद तो रायता खाते नही, बस फ़ैला देते है।
बकिया चकाचक,
जीतू द्वारा दिनांक मई 22nd, 2006

:)
जो बीत गई, वो बात गई…भविष्य के लिये शुभकामनाऎं.
समीर लाल द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006

दुःख हुआ पढकर आशीष भाई। भगवान आपके गुस्से को कम करे।
e-shadow द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006

मैं आपकी मनःस्थिती समझ सकता हूं….. कैसे और क्यों मत पूछो
खैर जो हुआ सो हुआ… वैसे जैसा जीतू जी ने कहा है.. तलाश करवालो..
और मिल जाये तो क्षमा मांग लो.. वैसे बहुत लंबी सजा काट चुके हो….
नितिन द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006

दुख हुआ पढ कर! जो हुआ सो हुआ. लेखन में तुम्हारी ईमानदारी का और हिम्मत का कायल हूं -अब बीती ताहीं बिसार दे आगे की सुध ले!
ई-स्वामी द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006

लेख पढ़ा अभी-अभी। कन्या अभी भी अनजाने में गाल सहलाती होगी। शायद गाना भी गाती हो:-

‘हमसे का भूल भई जो ये सजा हमका मिली’
आगे की मूर्खतायें सुनने का इंतजार है।
आगे की मूर्खतायें सुनने का इंतजार है।
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006

ये पढने के बाद ये तो शर्तिया है कि आप लोग मुझे कोसना शुरू कर देंगे, कुछ गालीयां देंगे, हो सकता है कि कुछ खतरनाक सी टिप्पणियां भी आयें। वैसे मैं इस प्रतिक्रिया के लिये तैयार भी हुं।
अब क्या कहें। आपको कोसने का क्या फ़ायदा, जो बीत गया समय वह वापस नहीं आ सकता, कोस तो आप अपने आपको स्वयं ही रहे होंगे, हमार कोसने से का होगा!! यह भी ज्ञात है कि क्रोध में व्यक्ति अंधा हो जाता है। बस यही कामना है कि भूतकाल में की गई गलतियाँ आप दोहराएँगे नहीं।
Amit द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006

:( कोसा तो नहीं आपको पर समझ नहीं आया - लड़की को झापड़ । और तो और आपने अपना सन्काय भी बदल लिया । विचित्र किस्सा है । पहले कभी नहीं सुनी ऐसी बात । हाँ एक सुझाव है, कभी वह कन्या मिल जाय तो माफ़ी मान्ग लीजियेगा | मेरे हिसाब सेे बेचारी ने इतनी बडी़ गलती भी नहीं की थी कि उसे ऐसी सज़ा दी जाती |
Nidhi द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006

भाई आशीष, एक बार तो ढूंढना ही चाहिए आपको उन्हें।

रजनीश मंगला द्वारा दिनांक मई 23rd, 2006
[…] मैने शादी के पहले विद्यार्थी जीवन मे, और शादी के बाद – मुन्ने की मां के विरोध के बावजूद - अनगिनत राते मैदानो मे, खेतों मे, नदी के किनारे बितायीं हैं: कभी पुच्छल तारे को देखने के लिये, कभी लिओनिडस को देखने के लिये, पर अधिकतर आसमान मे तारों को देखने के लिये| मुझे आसमान के तारों को देखना, उनका अध्यन करना हमेशा पसन्द था| पर काश कभी कोई मेरे साथ होती जिससे मै तारों के वर्गीकरण के बारे मे बता पाता| पर क्या मालुम मै भी वही मूर्खता कर बै� ता जो यहां बतायी जा रही है| […]
छुट-पुट » Blog Archive » Oh Be A Fine Girl Kiss Me द्वारा दिनांक मई 24th, 2006

are bhai, chaanta maar diya, kuch bhi ho jaata main kisi ladki ko chaanta naa maar paata, vishwaas ho giya kaa paa bahut hi krodhit rahe honge, gussa sach me ek pahadi nadi ke manid hai, ummeed hai ke ab aap waise mijaz nahi rakhte.
kumar द्वारा दिनांक मई 28th, 2006

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1 टिप्पणियाँ

अनूप शुक्ल ने कहा…
फिर से बांचना मजेदार रहा।