हम फिल्मे क्यों देखते है ? अरे भाई मै तो सिर्फ अपने बारे मे बता सकता हुं कि मै फिल्मे क्यों देखता हुं। भगवान की दया से अब तक क्वांरा हु और कोई महिला मित्र है नही, इसलिये अकेले ही देखता हुं। एक जमाना था जब हम यारो के साथ फिल्मे देखा करते थेहै। वैसे यारो के साथ फिल्मे कहां देखते थे, हंगामा करते थे, नैन सुख लेते थे, पॊप कार्न खाते थे और ठंडा पीते थे। मतलब कुल जमा चित्रपट गृह मे फ़िल्म देखने के अलावा हर वो हरकत करते थे जो नयी नयी जवानी मे की जाती है।
फिल्मे अब भी देखते है लेकिन अकेले देखते हैं। अब क्यो देखते है ? यह तो निश्चित ही शोध का विषय है, फुर्सत मिले तो पी एच डी कर सकते हैं। लेकिन कम्बख्त हर सप्ताह कम से कम २-४ फिल्मे आ जाती है, फुरसत मिले तो कहां से। वैसे भी फुरसत पर तो अब फुरसतियाजी का एकाधीकार हो गया है।
अब सवाल उठ ही गया है तो सोचते है कि हम(मै) फिल्मे क्यों देखते हैं।
जब हम कालेज मे थे और मार्च अप्रैल का विकट काल चल रहा होता था, मतलब की परिक्षायें चल रहे होती थी। तब यदि किसी विषय का प्रश्नपत्र अच्छे से हल कर आ गये तो हम खुश हो कर फिल्म देखने जाते थे।भाई इतना इस प्रश्नपत्र मे सफल होने के लिये फलां दादा को पूरे ५ प्रयास करने पडे थे, अब हम तो पहली बार मे निकाल रहे है, थोडा उत्सव तो होना चाहिये। अब यदि प्रश्नपत्र अंग्रेजी मे आ गया है(मतलब कि सारे के सारे प्रश्न समझ से बाहर हो) और असफल होने के पूरे आसार हो, तब मुड ठिक करने फिल्म देखते थे। आखिर अगले प्रश्नपत्र की भी तो तैयारी करनी है, अब मुड खराब हो तो अगला प्रश्नपत्र भी तो ठुक जायेगा ना।
जब यह विकट काल बीत जाता था, तब कुछ करने तो होता नही था अब क्या करे फिल्मे देखों।
कालेज जमाने मे हमारे फिल्म देखने के कुछ कारण :
- वो अपनी सहेलियों के साथ फिल्म देखने जा रही है।
- राजेश अपनी महिला मित्र के साथ फिल्म देखने जा रहा है।(हम थोडे विघ्न संतोषी जीव ! जब राजेश ने हमारे साथ फिल्म देखने से मना कर दिया तो उसके साथ कैसे देख सकता है ?)
- आज पहली तारीख है, घर से धनादेश आया है।
- रविद्रकांत आज घर से वापिस आया है। (अब खाली हाथ थोडे ही आया होगा)
- आज सुमित का जन्मदिन है, सभी को फिल्म दिखायेगा।
- नन्दी जिस पर मरता है उसका जन्मदिन है। (अब वो लड्की नन्दी महाराज को घास नही डालती तो इसमे हमारी क्या गलती ?)
- उसने साथ मे फिल्म देखने के प्रस्ताव को ठुकरा दिया। सारा मुड खराब हो गया।
- उसने साथ मे फ़िल्म देखने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। (ये बात और है कि अपने साथ अपनी दोनो छोटी बहनो को भी ले आयी।)
वगैरह वगैरह…।।
अब कालेज के दिन गये, उज्जड जवानी गयी ! ना भईया हम अभी बुढे नही हुये है, मै तो अभी भी जवान हुं। अब हमारी जवानी मे परिपक्वता आ गयी है, अब हम विघ्न सतोषी नही है। किसी दोस्त को अपनी महिला मित्र (पत्नी) के साथ फिल्मे देखते हुये हम गाते है
लाखों तारे आसमा मे एक मगर ढुढें से ना मिला
देख के दुनिया की दिवाली दिल मेरा चुपचाप जला !
जब ऐसा मुड हो तब हम बेखटके ‘देवदास’ देख आते है।
जब हम अपने रहने के लिये आशियाना ढुण्ढ रहे होते है और मकान मालिक हमारे क्वारेपन के कारण इकार कर देता है, तब हमे “घरौंदा” जैसी फिल्मे देख लेते है। अब नौकरी अच्छी है, अच्छा खासा कमा लेते है,लेकिन ‘दिल है कि मानता ही नही’ और पैसा चाहिये ! मन बहलाने के लिये “कांटे”, “आंखे” जैसी फिल्म देख आते है।
अभी जहा हम काम कर रहे है, वहा पर नये रंगरूटो के आने का समय है। हर सोमवार को नये नये खूबसूरत चेहरे दिखाई दे जाते है, कार्यालय की खूबसूरती मे हर हफ्ते इजाफा होते जाता है। हमारे मुरझाई उमगों की जडो मे पानी पड जाता है, दिल मे नयी लहरे उठना शुरू होती है। और हमारा रोमांटिक फिल्मे देखने का मौसम आ जाता है।
अब जब हम भारत मे रह रहे है, देर सबेर कभी ना कभी सरकारी दफ्तरो से तो पाला पड्ता ही है। अव्यवस्था, रिश्वतखोरी से चिढ होती है, तब हमे नाना पाटेकर की फिल्मो(प्रहार जैसी) का भुत चढता है। भारत पाकिस्तान क्रिकेट मैच मे भारत के हारने पर जब पडोस के मुहल्ले मे पटाखे छुटते है तब हम सन्नी दयोल की “गदर” या “मिशन कश्मीर ” नुमा फिल्मे देखते है।
कभी कभी घर मे बिजली गुम हो जाती है, और गर्मी के मारे बूरा हाल हो जाता है तब हम मिथुन दा की फिल्म देख आते है। क्या मीठी निंद आती है , मिथुन दा की फिल्मो मे। मेरे ख्याल से मिथुन दा को तो अनिद्रा के रोगीयो के लिये एक चिकित्सालय खोल ही लेना चाहिये।
कुल मिला के हाल यह है कि मुड कोई भी हो, हमारे मुड के अनुसार फिल्मे मिल ही जाती है।
वैसे हमे समानांतर सिनेमा से कोई दुश्मनी नही है, लेकिन हमारा मानना है कि फिल्मे हल्के फुल्के मनोरंजन का साधन है। जिंदगी मे ऐसे भी परेशानीयो की, दुखो की कमी तो नही है जो सिनेमागृह मे भी जाकर वही सब कुछ देखे। मै ज्यादातर ऐसी फिल्मे देखता हुं जिसमे सोचने की जरूरत ना हो, दिमाग घर पर रख कर आओ। सारी दुनिया जहान को भुल्कर २-३ घन्टे फिल्म का आनंद लो, खुल कर हंसो। अब आप ही बताये “जाने भी दो यारो” से बढ्कर कोई यथार्थ वादी फिल्म हो सकती है, हास्य और यथार्थ का कितना सुंदर संगम है !
हां जब मुझे अपने आप को जब बुद्धीजिवी(इंट्लैक्चुवल) साबीत करना होता है या दिमाग पर जोर देना होता है तब मै घर पर ही(सिनेमाघर मे नही) समानांतर सिनेमा देख लेता हुं।
बस हम ऐसे ही फिल्म देख लेते है !
4 टिप्पणीयां
1. Atul उवाच :
नवम्बर 16, 2005 at 7:24 pm ·
फिल्मे देखने के कारण तो सुँदर है पर मिथुन दा की फिल्मे इतनी बुरी तो नही होती थी बँधु, याद करो मृगया, डिस्को डाँसर और एक फिल्म का नाम भूल रहा हूँ जिसमें वह हिरोईन के हाथ कटे भाई बनकर विनोद मेहरा से पँगा लेते थे, वगैरह। किसी जमाने में मिथुन दा गरीब निर्देशकों के अमिताभ कहलाते थे।
2. अनूप शुक्ला उवाच :
नवम्बर 17, 2005 at 6:50 am ·
बढ़िया पिक्चर है। हमें तुम्हारी बनाई पिक्चर का इंतजार रहता है।जहां तक बात रही फ़ुरसत की तो भइये हम सारी की सारी भेज देते हैं। जी भर मौज करो।
3. अक्षरग्राम » Blog Archive » अवलोकन अनुगूँज १५ - हम फिल्में क्यूँ देखते हैं उवाच :
दिसम्बर 2, 2005 at 1:35 pm ·
[…] विषय तो सभी को प्रिय होगा इतना पता था पर अपने आशीष जी खालीपीली के उत्साह की दाद देनी पड़ेगी पहली प्रविष्टि भेजने के लिए बधाई। लिखी भी एकदम फक्कड़ स्टाइल से है और “छड़यां दी जून बुरी” के बारे में बताना नहीं भूले। जिंदगी के हर मूड के लिए उनके पास फिल्में हैं - […]
0 टिप्पणियाँ