हाल ही मे मै एक शादी मे गया था। मेरे बहन के देवर की शादी थी। काफी सारे लोगो से मिला और नये परिचय हुये, नये दोस्त बने। शादी ब्याह के मामले मे मैं थोड़ा बदकिस्मत हूं। मैने काफी कम शादियों मे अपनी उपस्थिति दर्ज की है। जब मैं कॉलेज मे हुआ करता था तब शादी-ब्याह के मौसम मे मेरी परीक्षायें हुआ करती थी, आज जब परीक्षाओं से मुक्ति मिली हुयी है तब शादी ब्याह की तारीखो के आसपास मेरे प्रोजेक्ट खत्म होने की तारीख़े हुआ करती हैं। शायद यह भी एक कारण है कि मैं अब तक क्वारां हूं !
लेकिन यह स्थिति हमेशा नही रही है। मेरे बचपन और किशोरावस्था मे काफी सारी शादियों मे भाग लिया है। शादी ब्याह, वह भी गांव मे। मेरा बचपन गावों मे बीता है। और गावों मे शादी ब्याह की बात ही कुछ और होती है।
लड़के की शादी हो या लड़की की, सारा गांव भाग लेता है। हर शादी गांव के लड़के की या गांव की बेटी की शादी होती है। ये परंपरा आज भी भारत के गावों मे है।
जब गावों मे शादी ब्याह का मौसम शुरू होता था, तब चौपाल पर की बाते कुछ ऐसी होती थी। “सोमवार को अलां की बेटी की शादी है, बुधवार को फलां के भतीजे की शादी है, शनिवार को अला के घर शादी है….” कुल मिलाकर किसी को अपने घर मे किसी की शादी की तारीख तय करने से पहले ये देखना होता था कि उस दिन गांव मे कोई और शादी ना हो।
शादी से महीनों पहले तैयारीयां शुरू हो जाती है। शादी के सप्ताह भर पहले से नाते रिश्तेदार जमा होना शुरू हो जाते थे। गांव मे एक हलचल सी मची रहती थी। कभी कभी एक घर की शादी मे आये रिश्तेदारो को हम लोग ग़लतफहमी मे दूसरे के घर छोड़ आते थे। अक्सर ये भी होता था एक शादी के लिये आये ये लोग २-३ शादीयों मे उपस्थिति लगाने के बाद ही अपने गांव वापिस जाते थे।
एक आम भारतीय गांव एक बड़ा परिवार होता है। गांव मे हर कोई हर किसी का चाचा-भतीजा, मामा-भान्जा, दादा-नाती, रिश्ते मे कुछ ना कुछ होता है। जब भी किसी के घर किसी की शादी तय होती थी, जब अपनी अपनी जिम्मेदारीयां बांट लेते थे। किसी भी के घर शादी हो किसी भी जाति का हो, गरीब हो या अमीर कोई भेदभाव नही होता था। नाई हर घर मे न्योता ले कर जाता था। एक पंरपरा मैने देखी थी कि यदि शादी किसी ग़रीब के घर मे हो रही हो तो न्योता देने वाले नाई के हाथो हर घर से “सीधा” भेजा जाता था। ये “सीधा” का मतलब होता था थोड़ा चावल , थोड़ा आटा, थोडी दाल, बाकी तेल मसाले और कुछ पैसे। यानी की शादी का सारा खर्च सारे गांव मे बट गया। बेचारा नाई बोरा लादे घूमते रहता था।
अब बारी आती थी शादी के कामो की, चिन्ता किस बात की कुम्हार बर्तन रख जायेगा, नाई न्योता दे आयेगा, कहार पानी का जिम्मा उठा लेगा, खाना बनाने के लिये महाराज है ही। और रहे बाकि काम “लफंगा पार्टी“(नौजवान लडके यानी हम लोग) किस दिन काम आयेगी।किसी को कुछ भी कहने की जरूरत नही , समय पर सभी के सभी हाज़िर रहेंगे।
इन शादियों मे मैने तीन महत्वपूर्ण रिवाज होते थे। मंडप, सगाई(फलदान) और लग्न और ये तीन दिनो मे होते थे। अब शायद सब कुछ एक ही दिन मे निपटा देते है। पहले दिन खेतो से या गांव के किनारे के जंगल से मंडप के लिये बल्ली काट के लायी जायेगी। सारे गांव मे न्योता जायेगा। जब सभी जमा हो जायेंगे, तब हंसी मजाक रीति रिवाज़ों के साथ मडंप डलेगा।
दूसरे दिन सगाई के लिये बड़े बुढो की बारात जायेगी या आयेगी। मेरी आजतक समझ नही समझ मे आया “लफंगा पार्टी” को इससे दूर क्यों रखा जाता था। तीसरे दिन होता था लग्न। इसमे हम लोगो को भाग लेने दिया जाता था।
यदि लड़के की शादी हो तो चिन्ता नही होती थी, तैयार होकर बारात मे चल दो। बारात बाकायदा सजी धजी बैलगाडीयो से जाती थी। दुल्हन के गांव पहुचो, जनवासे मे ठहरो। तैयार हो कर चल दो आवारागर्दी के लिये। सारे गांव का कम से कम एक चक्कर तो लगाया ही जायेगा। इतने मे “लफंगा पार्टी” को ढुंढते हुये कोई ना कोई आ जायेगा और डांटते हुये ले जायेगा। जनवासे से बारात चलेगी, पेट्रोमेक्स की रोशनी मे।
गांव की बैलगाड़ीयों वाली बारात |
दूल्हे वाली सजी धजी बैलगाड़ी |
बडे बूढे जैसे तैसे दूल्हे को खींच खांच कर अलग करते और मडंप मे ले जाते। मंत्रोच्चार के साथ लग्न होता, फेरे होते। बस हम लोगो का काम खत्म। खाओ पियो और खिसको। दूल्हन और बारात बिदा करा लाने का काम बडे बुढो का।
यदि लड़की की शादी हो तब बारात के स्वागत से लेकर उनके ठहरने, नहाने धोना, खाना-पीना सब कुछ सम्हाल लेती थी ये “लफंगा पार्टी”। मजाल है किसी भी व्यवस्था मे कोइ खामी नजर आ जाये। और यही कारण था, हम लोगो की सारी शैतानी , हंगामो को डाटंफटकार के बाद नजर अंदाज कर दिया जाता था। लेकिन ये “लफंगा पार्टी” ये भी नजर रखती थी कि बाराती अपनी सीमा मे रहें। जरूरत पढने पर हाथ पैर जोड़ने से लेकर हाथ पैर तोड़ने के लिये भी तैयार !
एक बार गांव मे एक लड़की की शादी थी, दूर के गांव से बारात आयी थी। सारा का सारा इंतज़ाम “लफंगा पार्टी” ने सम्हाला हुआ था। सब कुछ तरीके से चल रहा था। अचानक एक लड़की हम लोगो के पास आयी, उसने हम लोगो से शिकायत की कि किसी बाराती ने उसके साथ छेड़छाड़ की है। “लफंगा पार्टी” का दिमाग सरक गया, बस हाथ पैर जोड़ने वाले ,हाथ पैर तोड़ने पर आ गये। उस बाराती को घेर लिया। गांव के बड़े बूढे बीच मे आ गये और हम लोगो को समझाया। बाराती ने माफी मांगी, लेकिन हम लोगो का दिमाग अभी भी सरका हुआ था। शादी हुयी, और सारे बाराती खा पीकर सोने चल दिये। हम लोगो ने भी खाना खाया।
सुबह बारात विदा होने का समय आया। ये क्या? दूल्हे की बैलगाडी गायब ! बाराती लोग दूल्हे की बैलगाडी ढुंढ रहे थे। सारा गांव छान मारा। बैलगाडी का नामोनिशान नही था। सब परेशान। मेरे गांववालों को शक हो रहा था कि ये सब कारनामा “लफंगा पार्टी” का है, और इन्होने रात की घटना का बदला लिया है। एक दो घंटे तक तक लोग परेशान रहे। लफंगा पार्टी भी बैलगाडी खोज मे लगी हुयी थी। अचानक किसी की नजर गांव के बाहर बस स्थानक के सामने बनी(इकलौती) पक्की छत वाली इमारत पर गयी। बैलगाडी शान से छ्त पर खडी थी। लोगो की समझ नही आ रहा था कि हंसे या रोयें। बारातीयो ने बडी बडी रस्सीया मगंवायी। दस लोग इमारत पर चढे, बैलगाडी को रस्सीयो से बांधा, दस आदमी नीचे खडे हुये और धीरे धीरे आधे घंटे की मेहनत के बाद बैलगाडी नीचे उतारी।
गांव मे आज तक रहस्य है बैलगाडी छत पर कैसे पहुंची !
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3 टिप्पणीयां “मेरे गांव की शादीयां” पर
बहुत अच्चा विवरन दिया है आप ने ग़ान्व के विवाह का!
ळेकिन लगता नहि है कि आपकि उमर इतनि ज्यादा है कि आपने बैल गाडियो वाले विवाह देखे होन्गे!
Ajay द्वारा दिनांक मार्च 4th, 2006
अच्छी यादेँ हैँ.अब समय की माँग है कि किसी गाडी पर चढ जाओ.
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक मार्च 4th, 2006
बाकी सब तो ठीक है, पर आशीष भाई, हम लोगों को तो बता दो कि बैलगाड़ी छत पर चढ़ाई कैसे??
Amit द्वारा दिनांक मार्च 5th, 2006
बैलगाड़ी छत पर पहुचाना बहुत आसान था! दो लफंगे छत पर! दोनो चक्के निकालो। छत पर पहुंचाओ। उसके बाद बैलगाड़ी को खड़ी कर दो, उपर से दो खीचेंगे, नीचे से चार उठा कर धकेलेंगे। अब छत पर चक्को को वापिस जोड़ दो!
आशीष द्वारा दिनांक मार्च 5th, 2006
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