कल एक मित्र से अवसाद पर चर्चा हुई और मुझे अपना अवसाद वाला एपिसोड याद आ गया।
अप्रैल/मई 2012 हम लोग उस समय सिडनी आस्ट्रेलिया मे थे।
मेरा प्रोजेक्ट समाप्त हो गया था, पोस्ट प्रोडक्शन सपोर्ट का काम था, वह भी बैंक का तो कभी भी फोन आ जाते थे। कुल मिलाकर 24x7 अलर्ट रहना होता था। कुल मिलाकर तनाव वाला काम था।
उन्ही दिनो मुझे अचानक गैस, एसीडीटी संबंधित समस्या होने लगी। जैसे ही पेट खाली होता अचानक पेट फूलने लगता, खट्टी डकारे , बैचेनी होती थी। कुछ खाने या एंटासीड लेने पर राहत मिलती थी। यह सिलसिला एक महीने तक चला। डाक्टर से मिला, डाक्टर ने कुछ जांच की और एक दवाई दी। उससे राहत मिली, लेकिन तात्कालिक। इस राहत से डाक्टर को शक हुआ कि मेरे पेट मे कुछ बैक्टेरीया है जो गैस बना रहे है, जिसके लिये एंटीबायोटिक का कोर्स लेना होगा। लेकिन इस कोर्स को प्रारंभ करने से पहले उन्हे खाली पेट सांस की जांच करनी थी जिससे यह संक्रमण तय हो जाये। दूसरी समस्या यह थी कि मैने जो दवाई ली थी, उसके असर के पूरी तरह समाप्त होने तक यह जांच नही की जा सकती थी, जिसके लिये 30 दिन लगते। डाक्टर ने सीधे कह दिया कि तब तक एंटासीड से काम चलाओ। एंटीबायोटिक पूरी तरह से संक्रमण तय होने के बाद ही दिये जायेंगे।
इतने मे मेरे भारत आने का कार्यक्रम बना। भारत मे एक गैस्ट्रोएंटरोलॉजीस्ट से मिला। उन्होने लक्षणो के आधार पर ही एंटीबायोटिक कोर्स प्रारंभ कर दिया। साथ मे उन्होने एक और दवाई लिओसल्प्राईड भी दे दी। कहा कि पूरा कोर्स होने के बाद दवाईयाँ बंद कर देना। हम खुश।
कुछ दिनो बाद वापिस सिडनी पहुंचे। कोर्स पूरा होने के बाद दवाई बंद कर दी। जिस दिन से दवाई बंद की दूसरे दिन से नींद गायब, मन उदास। एक दिन निकला , दूसरा दिन निकला, समस्या वही! सारी रात जागता था, नींद आने का नाम नही। धीरे धीरे समस्या बढ़ने लगी, अचानक गर्मी लगती थी, घबराहट होती थी, दिल की धड़कन तेज हो जाती थी। मन एकदम उदास रहता था, किसी भी बात मे मन नही लगता था। समझ मे आने लगा था कि यह अवसाद (डीप्रेशन/एंजायटी) के लक्षण है लेकिन सोचा कि कुछ दिनो मे ठीक हो जाउँगा। दो सप्ताह बीत गये हालत और खराब हो गये, ऑफ़िस जा रहा था लेकिन उदास मन से काम भी कर रहा था लेकिन हर बात से डरने लगा था। फ़ोन की घंटी से, इमेल से जैसे इनसे कोई बुरी खबर आ रही हो।
निवेदिता मुझे पैरामेटा के अस्पताल की इमरजेंसी मे लेकर गई। ढेर सारी जांच हुई, सीटी स्कैन हुआ। सारी रिपोर्ट सामान्य। डाक्टर हैरान कि समस्या क्या है। अचानक मेरे मन मे आया कि इन्हे भारत का प्रिस्क्रिप्शन दिखाया जाये। डाक्टरो ने जैसे ही प्रिस्क्रिप्सन देखा, दूसरे डाक्टरो को बुलाया। नये डाक्टर ने कुछ सामान्य प्रश्न पुछे। नया डाक्टर भारतीय ही था। उसके बाद अचानक पूछा कि तुम्हें कोई आत्मा दिखती है, देवी आती है जो तुम्हें आदेश देती है, बातें करती है ?
मैने कहा नही तो ? आप यह प्रश्न क्यों पुछ रहे है ?
पता चला कि नये डाक्टर मनोचिकित्सक (साइकियाट्रीस्ट) थे। उन्होने कहा कि तुम्हें भारत मे लिओसल्प्राईड क्यों दी थी ?
मैने कहा एसीडीटी/गैस के कारण!
डाक्टर : तुम्हे डाक्टर ने इसे बंद कैसे करना है बताया था ?
हम : नही! आप ये क्यों पुछ रहे है ?
डाक्टर : लिओसल्प्राईड स्क्रिजोफ़ेनिआ के मरीज़ो को भी देते है। यह मानसिक रोगों के लिये प्रयुक्त होने वाली दवा है। तुम्हें इस दवा के अचानक बंद करने से उसने डिप्रेसन/एंजायटी को ट्रिगर कर दिया है।
इस मनोचिकित्सक ने अपने सिनियर को फोन किया, वे उस समय उपलब्ध नही थे। ऐसे भी रात के बारह बज गये थे। डाक्टर ने कहा कि आपको कम से कम एक दिन भरती रहना होगा। कल एक डॉक्टरों की एक टीम आपसे चर्चा करेगी उसके बाद आगे का इलाज तय होगा।
हम बोले ठीक है। उन्होने मेरे उस अस्पताल से दूसरे अस्पताल मे भेजने की तैयारी शुरु कर दी। जिंदगी मे पहली बार एंबुलेंस की सवारी की। जब दूसरे अस्पताल पहुंचे तो पता चला कि वह मनोचिकित्सालय था। एडमीशन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद उन्होने निवेदिता को वापिस भेज दिया और दूसरे दिन आने कहा।
उन्होने मुझे अंदर वार्ड मे भेजा, अंदर जाते साथ एक महिला को देखा, वह टहल रही थी, मुझे देखते साथ बोली "एक और आ गया..."
मनोचिकित्सालय का अनुभव बहुत बुरा होता है। इसमे हर कमरे मे सीसीटीवी होते है, ताले मुख्य नियंत्रण कक्ष से खुलते और बंद होते है। अब तक मै सामान्य था, लग रहा था कि अस्पताल मे हुं ठीक हो जाउंगा। लेकिन मनोचिकित्सालय के पहले दो घंटो के अनुभव ने डरा दिया। तय कर लिया कि कल डाक्टरो से बात कर इस अस्पताल से तो निकलना ही है।
नर्स आई, उसने मुझे नींद की दवाई दी। जीवन मे पहली बार नींद की दवाई ली, दो सप्ताह बाद नींद के आगोश मे पहुंचा। चार पांच घंटे ही सोया था कि सबको जगा दिया गया। नहाने का आदेश हुआ, नाश्ता मिला। पता चला कि अब पूरा दिन बाहर बिताना है, वार्ड का दरवाजा बंद हो गया है। इन सबमे दस बज गये।
दस बजे मुझे एक कमरे मे बुलाया गया। दो डाक्टर थे। सारा इतिहास पूछा गया। इस बार प्रश्न कुछ इस तरह से थे कि वे जानना चाह रहे थे कि मुझ मे आत्महत्या वाले या हिंसक लक्षण तो नही दिख रहे। सब कुछ होने के बाद उन्होने बताया कि मुझे एंजायटी और डीप्रेशन है जिसके लिये तीन महीने एंटी डीप्रेशन की दवायें लेनी होगी और इस दौरान हर सप्ताह मनोचिकित्सक से मिलना होगा। साथ मे उन्होने यह भी कहा कि मेरा विटामीन डी स्तर कम है, और रक्त जांच मे हायपोथायराइड्ज्म के लक्षण दिख रहे है। ये दो कारक भी अवसाद के लिये जिम्मेदार हो सकते है।
उसके बाद उन्होने निवेदिता को बुलाया, उसका लंबा इंटरव्यू लिया। यह इंटरव्यू यह जानने था कि वह मेरी देखभाल कर पायेगी या नही। पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद उन्होने मुझे डीस्चार्ज कर दिया। दो सप्ताह के लिये नींद की दवायें दी गई, और साथ मे एंटीडीप्रेशन की दवाई। कहा कि नींद की दवाये एडीक्टीव होती है, उन्हे जितनी जल्दी हो सके बंद कर दो। चाय/काफ़ी कम कर दो। अच्छी नींद के लिये "स्लीप हायजीन" का पालन करो। जीम जाओ, दौड़ लगाओ , इन गतिविधियों से अवसाद रोधी हार्मोन निकलते है।
घर आये, पहली रात नींद की गोली से चार पांच घंटे सो पाया। मानसीक दृढता इतनी थी कि दो गोली की बजाय एक ही गोली लेकर सोया था।
सुबह दस बजे घर की घंटी बजी, पता चला कि अस्पताल वालो ने मेरी जांच के लिये दो वालींटीयर भेजे थे। वो सब कुछ देखकर पूरी तरह संतुष्ट हो कर गये।
अगले कुछ दिन संघर्ष के थे, मन उचाट तो रहता था, नींद केवल दवाई से आती थी। लेकिन निवेदिता मुझे व्यस्त रखती थी। दोपहर मे माल ले जाते थी, शाम को पैरामैटा नदी के किनारे के पार्क मे। इस सबसे यह हुआ कि नींद की दवाई एक सप्ताह बाद ही बंद कर दी।
दूसरे सप्ताह से हालात सुधरे। सुबह के कुछ घंटे भारी होते थे लेकिन शाम को मन ठीक हो जाता था। दस दिन बाद ऑफ़िस जाना आरंभ कर दिया। डाक्टर से दोबारा मिला, वह मेरी प्रगति देख कर खुश हो गया था।
मेरा कोर्स तीन महीने का था लेकिन छः सप्ताह के बाद डाक्टर ने मेरी प्रगति को देखकर दवा आधी कर दी और आठ सप्ताह बाद बंद कर दी।
अवसाद का यह एपिसोड इतना भयावह था कि दवा के बंद होने के बाद मै दो साल तक गिनता था कि दवाई बंद किये आज एक सप्ताह हुआ, आज एक महिना हुआ, आज एक साल हुआ।
अवसाद के इस एपिसोड से मुझे पता चला कि इससे प्रभावित लोगो की हालत क्या होती है, वे चाहकर भी खुश नही हो पाते है। आनंद उत्पन्न करने वाले रसायन ही नही बनते है या कम बनते है। यह वह दौर होता है जब उन्हे बाह्य सहारे की आवश्यकता होती है। लेकिन भूलकर भी उन्हे भाषण ना पिलाये, लेक्चर ना दे, उन्हे भावनात्मक सहारा दे। यह वह दौर है जो उन्होने निमंत्रित नही किया है।
अवसाद(डिप्रेशन) ना तो फैशन है, ना ही नौटंकी। यह माना जाता है कि अवसाद हर व्यक्ति को जीवन मे कम से कम एक बार अवश्य घेरता है, अधिकतर मामलो मे व्यक्ति इससे कुछ समय मे स्वयं ही उबर जाता है लेकिन कुछ मामलो मे चिकित्सीय सहायता की आवश्यकता होती है।
मै कभी भी नही चाहुंगा कि अवसाद की छाया किसी पर भी पड़े, इसके परिणाम ना केवल उस व्यक्ति के लिये, साथ ही उसके निकट के लोगो के लिये भयावह हो सकते है। अवसाद कई वजहो से हो सकता है, किसी दुर्घटना से, किसी नीजी, व्यवसायिक हानि से, किसी निकट के व्यक्ति से दुराव से, किसी दवा के दुष्प्रभाव से।
अवसाद केवल असफ़ल प्रेम प्रसंगो से, महत्वाकांक्षा के पूरे ना होने से ही नही होता है, इसके पीछे कई अन्य कारण हो सकते है।
कुछ कारणो मे शामील है
ऐसा भी नही है कि आधुनिक जीवन शैली, नाभिकिय परिवार , आत्मकेंद्रित जीवन ही अवसाद के लिये उत्तरदायी हो, भरे पूरे परिवार मे भी अवसाद से आत्महत्या होते रही है।
भारतीय समाज अवसाद को गंभीरता से नही लेता। वह मनोचिकित्सको को पागलो का डाक्टर मानता है।
अवसाद ग्रस्त व्यक्ति हताशा मे क़दम नही उठाता है, वह सब जानता है , समझता है। उसका मस्तिष्क किसी स्वस्थ व्यक्ति के जैसे ही सक्रिय होता है। कई मामलों मे जैसे किसी आपदा, दुर्घटना से निपटने मे अवसाद ग्रस्त व्यक्ति किसी अन्य व्यक्तियों से बेहतर होते है क्योंकि वे सबसे बुरी परिस्तिथि , बुरे परिणाम की कल्पना कर चूके होते है।
अवसाद ग्रस्त व्यक्तियों मे आनंद की अनुभूति , जीने की ललक उत्पन्न करने वाले हार्मोन कम बनते है। यह किसी दुर्घटना, स्वास्थ्य कारणों, मानसिक तनाव या किसी ड्रग, नशे के कारण भी हो सकता है। हार्मोनों के प्रभाव के कारण उसे किसी भी बात मे आनंद नही आता है, जीने की ललक समाप्त हो जाती है।
उन्हे भाषण की नही चिकित्सक , परिवार के सहारे की आवश्यकता होती है। जब भी आप अपने आसपास के किसी व्यक्ति के व्यवहार मे अचानक परिवर्तन देखे, वह अकेला रहना पसंद करने लगे, शांत रहने लगे, चिड़चिड़ा हो जाये तो उसपर ध्यान दे। हो सकता है कि वह आपके इस सहानुभूति वाले व्यवहार से भी चिढ़ जाये , लेकिन आपको ही , परिवार को ही उसे सम्हालना है। उसे भाषण ना दे, बस कारण जानने का प्रयास करे, मनोचिकित्सक की सहायता ले।
इसके बाद भी आप इसे फैशन या नौटंकी मानते है तो अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता हो या नही, आपको अवश्य है।
अप्रैल/मई 2012 हम लोग उस समय सिडनी आस्ट्रेलिया मे थे।
मेरा प्रोजेक्ट समाप्त हो गया था, पोस्ट प्रोडक्शन सपोर्ट का काम था, वह भी बैंक का तो कभी भी फोन आ जाते थे। कुल मिलाकर 24x7 अलर्ट रहना होता था। कुल मिलाकर तनाव वाला काम था।
उन्ही दिनो मुझे अचानक गैस, एसीडीटी संबंधित समस्या होने लगी। जैसे ही पेट खाली होता अचानक पेट फूलने लगता, खट्टी डकारे , बैचेनी होती थी। कुछ खाने या एंटासीड लेने पर राहत मिलती थी। यह सिलसिला एक महीने तक चला। डाक्टर से मिला, डाक्टर ने कुछ जांच की और एक दवाई दी। उससे राहत मिली, लेकिन तात्कालिक। इस राहत से डाक्टर को शक हुआ कि मेरे पेट मे कुछ बैक्टेरीया है जो गैस बना रहे है, जिसके लिये एंटीबायोटिक का कोर्स लेना होगा। लेकिन इस कोर्स को प्रारंभ करने से पहले उन्हे खाली पेट सांस की जांच करनी थी जिससे यह संक्रमण तय हो जाये। दूसरी समस्या यह थी कि मैने जो दवाई ली थी, उसके असर के पूरी तरह समाप्त होने तक यह जांच नही की जा सकती थी, जिसके लिये 30 दिन लगते। डाक्टर ने सीधे कह दिया कि तब तक एंटासीड से काम चलाओ। एंटीबायोटिक पूरी तरह से संक्रमण तय होने के बाद ही दिये जायेंगे।
इतने मे मेरे भारत आने का कार्यक्रम बना। भारत मे एक गैस्ट्रोएंटरोलॉजीस्ट से मिला। उन्होने लक्षणो के आधार पर ही एंटीबायोटिक कोर्स प्रारंभ कर दिया। साथ मे उन्होने एक और दवाई लिओसल्प्राईड भी दे दी। कहा कि पूरा कोर्स होने के बाद दवाईयाँ बंद कर देना। हम खुश।
कुछ दिनो बाद वापिस सिडनी पहुंचे। कोर्स पूरा होने के बाद दवाई बंद कर दी। जिस दिन से दवाई बंद की दूसरे दिन से नींद गायब, मन उदास। एक दिन निकला , दूसरा दिन निकला, समस्या वही! सारी रात जागता था, नींद आने का नाम नही। धीरे धीरे समस्या बढ़ने लगी, अचानक गर्मी लगती थी, घबराहट होती थी, दिल की धड़कन तेज हो जाती थी। मन एकदम उदास रहता था, किसी भी बात मे मन नही लगता था। समझ मे आने लगा था कि यह अवसाद (डीप्रेशन/एंजायटी) के लक्षण है लेकिन सोचा कि कुछ दिनो मे ठीक हो जाउँगा। दो सप्ताह बीत गये हालत और खराब हो गये, ऑफ़िस जा रहा था लेकिन उदास मन से काम भी कर रहा था लेकिन हर बात से डरने लगा था। फ़ोन की घंटी से, इमेल से जैसे इनसे कोई बुरी खबर आ रही हो।
निवेदिता मुझे पैरामेटा के अस्पताल की इमरजेंसी मे लेकर गई। ढेर सारी जांच हुई, सीटी स्कैन हुआ। सारी रिपोर्ट सामान्य। डाक्टर हैरान कि समस्या क्या है। अचानक मेरे मन मे आया कि इन्हे भारत का प्रिस्क्रिप्शन दिखाया जाये। डाक्टरो ने जैसे ही प्रिस्क्रिप्सन देखा, दूसरे डाक्टरो को बुलाया। नये डाक्टर ने कुछ सामान्य प्रश्न पुछे। नया डाक्टर भारतीय ही था। उसके बाद अचानक पूछा कि तुम्हें कोई आत्मा दिखती है, देवी आती है जो तुम्हें आदेश देती है, बातें करती है ?
मैने कहा नही तो ? आप यह प्रश्न क्यों पुछ रहे है ?
पता चला कि नये डाक्टर मनोचिकित्सक (साइकियाट्रीस्ट) थे। उन्होने कहा कि तुम्हें भारत मे लिओसल्प्राईड क्यों दी थी ?
मैने कहा एसीडीटी/गैस के कारण!
डाक्टर : तुम्हे डाक्टर ने इसे बंद कैसे करना है बताया था ?
हम : नही! आप ये क्यों पुछ रहे है ?
डाक्टर : लिओसल्प्राईड स्क्रिजोफ़ेनिआ के मरीज़ो को भी देते है। यह मानसिक रोगों के लिये प्रयुक्त होने वाली दवा है। तुम्हें इस दवा के अचानक बंद करने से उसने डिप्रेसन/एंजायटी को ट्रिगर कर दिया है।
इस मनोचिकित्सक ने अपने सिनियर को फोन किया, वे उस समय उपलब्ध नही थे। ऐसे भी रात के बारह बज गये थे। डाक्टर ने कहा कि आपको कम से कम एक दिन भरती रहना होगा। कल एक डॉक्टरों की एक टीम आपसे चर्चा करेगी उसके बाद आगे का इलाज तय होगा।
इस अस्पताल मे भर्ती थे हम |
उन्होने मुझे अंदर वार्ड मे भेजा, अंदर जाते साथ एक महिला को देखा, वह टहल रही थी, मुझे देखते साथ बोली "एक और आ गया..."
मनोचिकित्सालय का अनुभव बहुत बुरा होता है। इसमे हर कमरे मे सीसीटीवी होते है, ताले मुख्य नियंत्रण कक्ष से खुलते और बंद होते है। अब तक मै सामान्य था, लग रहा था कि अस्पताल मे हुं ठीक हो जाउंगा। लेकिन मनोचिकित्सालय के पहले दो घंटो के अनुभव ने डरा दिया। तय कर लिया कि कल डाक्टरो से बात कर इस अस्पताल से तो निकलना ही है।
नर्स आई, उसने मुझे नींद की दवाई दी। जीवन मे पहली बार नींद की दवाई ली, दो सप्ताह बाद नींद के आगोश मे पहुंचा। चार पांच घंटे ही सोया था कि सबको जगा दिया गया। नहाने का आदेश हुआ, नाश्ता मिला। पता चला कि अब पूरा दिन बाहर बिताना है, वार्ड का दरवाजा बंद हो गया है। इन सबमे दस बज गये।
दस बजे मुझे एक कमरे मे बुलाया गया। दो डाक्टर थे। सारा इतिहास पूछा गया। इस बार प्रश्न कुछ इस तरह से थे कि वे जानना चाह रहे थे कि मुझ मे आत्महत्या वाले या हिंसक लक्षण तो नही दिख रहे। सब कुछ होने के बाद उन्होने बताया कि मुझे एंजायटी और डीप्रेशन है जिसके लिये तीन महीने एंटी डीप्रेशन की दवायें लेनी होगी और इस दौरान हर सप्ताह मनोचिकित्सक से मिलना होगा। साथ मे उन्होने यह भी कहा कि मेरा विटामीन डी स्तर कम है, और रक्त जांच मे हायपोथायराइड्ज्म के लक्षण दिख रहे है। ये दो कारक भी अवसाद के लिये जिम्मेदार हो सकते है।
उसके बाद उन्होने निवेदिता को बुलाया, उसका लंबा इंटरव्यू लिया। यह इंटरव्यू यह जानने था कि वह मेरी देखभाल कर पायेगी या नही। पूरी तरह संतुष्ट होने के बाद उन्होने मुझे डीस्चार्ज कर दिया। दो सप्ताह के लिये नींद की दवायें दी गई, और साथ मे एंटीडीप्रेशन की दवाई। कहा कि नींद की दवाये एडीक्टीव होती है, उन्हे जितनी जल्दी हो सके बंद कर दो। चाय/काफ़ी कम कर दो। अच्छी नींद के लिये "स्लीप हायजीन" का पालन करो। जीम जाओ, दौड़ लगाओ , इन गतिविधियों से अवसाद रोधी हार्मोन निकलते है।
घर आये, पहली रात नींद की गोली से चार पांच घंटे सो पाया। मानसीक दृढता इतनी थी कि दो गोली की बजाय एक ही गोली लेकर सोया था।
सुबह दस बजे घर की घंटी बजी, पता चला कि अस्पताल वालो ने मेरी जांच के लिये दो वालींटीयर भेजे थे। वो सब कुछ देखकर पूरी तरह संतुष्ट हो कर गये।
अगले कुछ दिन संघर्ष के थे, मन उचाट तो रहता था, नींद केवल दवाई से आती थी। लेकिन निवेदिता मुझे व्यस्त रखती थी। दोपहर मे माल ले जाते थी, शाम को पैरामैटा नदी के किनारे के पार्क मे। इस सबसे यह हुआ कि नींद की दवाई एक सप्ताह बाद ही बंद कर दी।
दूसरे सप्ताह से हालात सुधरे। सुबह के कुछ घंटे भारी होते थे लेकिन शाम को मन ठीक हो जाता था। दस दिन बाद ऑफ़िस जाना आरंभ कर दिया। डाक्टर से दोबारा मिला, वह मेरी प्रगति देख कर खुश हो गया था।
मेरा कोर्स तीन महीने का था लेकिन छः सप्ताह के बाद डाक्टर ने मेरी प्रगति को देखकर दवा आधी कर दी और आठ सप्ताह बाद बंद कर दी।
अवसाद का यह एपिसोड इतना भयावह था कि दवा के बंद होने के बाद मै दो साल तक गिनता था कि दवाई बंद किये आज एक सप्ताह हुआ, आज एक महिना हुआ, आज एक साल हुआ।
अवसाद के इस एपिसोड से मुझे पता चला कि इससे प्रभावित लोगो की हालत क्या होती है, वे चाहकर भी खुश नही हो पाते है। आनंद उत्पन्न करने वाले रसायन ही नही बनते है या कम बनते है। यह वह दौर होता है जब उन्हे बाह्य सहारे की आवश्यकता होती है। लेकिन भूलकर भी उन्हे भाषण ना पिलाये, लेक्चर ना दे, उन्हे भावनात्मक सहारा दे। यह वह दौर है जो उन्होने निमंत्रित नही किया है।
अवसाद(डिप्रेशन) ना तो फैशन है, ना ही नौटंकी। यह माना जाता है कि अवसाद हर व्यक्ति को जीवन मे कम से कम एक बार अवश्य घेरता है, अधिकतर मामलो मे व्यक्ति इससे कुछ समय मे स्वयं ही उबर जाता है लेकिन कुछ मामलो मे चिकित्सीय सहायता की आवश्यकता होती है।
मै कभी भी नही चाहुंगा कि अवसाद की छाया किसी पर भी पड़े, इसके परिणाम ना केवल उस व्यक्ति के लिये, साथ ही उसके निकट के लोगो के लिये भयावह हो सकते है। अवसाद कई वजहो से हो सकता है, किसी दुर्घटना से, किसी नीजी, व्यवसायिक हानि से, किसी निकट के व्यक्ति से दुराव से, किसी दवा के दुष्प्रभाव से।
अवसाद केवल असफ़ल प्रेम प्रसंगो से, महत्वाकांक्षा के पूरे ना होने से ही नही होता है, इसके पीछे कई अन्य कारण हो सकते है।
कुछ कारणो मे शामील है
- विटामीन डी की कमी जो कि सूर्य प्रकाश ना मिलने से होती है और यह कमी सर्दी-बरसात के दिनो मे भी हो सकती है, आपको बिना किसी मानसिक कारण के अवसाद मे धकेल सकता है।
- हायपोथायराईड - थाईराइड हार्मोन के उचित मात्रा मे नही बनने से भी अवसाद आ सकता है। तंत्रिका तंत्र, हृदयरोग की कुछ दवाईयाँ भी अवसाद को आमंत्रित कर सकती है।
ऐसा भी नही है कि आधुनिक जीवन शैली, नाभिकिय परिवार , आत्मकेंद्रित जीवन ही अवसाद के लिये उत्तरदायी हो, भरे पूरे परिवार मे भी अवसाद से आत्महत्या होते रही है।
भारतीय समाज अवसाद को गंभीरता से नही लेता। वह मनोचिकित्सको को पागलो का डाक्टर मानता है।
अवसाद ग्रस्त व्यक्ति हताशा मे क़दम नही उठाता है, वह सब जानता है , समझता है। उसका मस्तिष्क किसी स्वस्थ व्यक्ति के जैसे ही सक्रिय होता है। कई मामलों मे जैसे किसी आपदा, दुर्घटना से निपटने मे अवसाद ग्रस्त व्यक्ति किसी अन्य व्यक्तियों से बेहतर होते है क्योंकि वे सबसे बुरी परिस्तिथि , बुरे परिणाम की कल्पना कर चूके होते है।
अवसाद ग्रस्त व्यक्तियों मे आनंद की अनुभूति , जीने की ललक उत्पन्न करने वाले हार्मोन कम बनते है। यह किसी दुर्घटना, स्वास्थ्य कारणों, मानसिक तनाव या किसी ड्रग, नशे के कारण भी हो सकता है। हार्मोनों के प्रभाव के कारण उसे किसी भी बात मे आनंद नही आता है, जीने की ललक समाप्त हो जाती है।
उन्हे भाषण की नही चिकित्सक , परिवार के सहारे की आवश्यकता होती है। जब भी आप अपने आसपास के किसी व्यक्ति के व्यवहार मे अचानक परिवर्तन देखे, वह अकेला रहना पसंद करने लगे, शांत रहने लगे, चिड़चिड़ा हो जाये तो उसपर ध्यान दे। हो सकता है कि वह आपके इस सहानुभूति वाले व्यवहार से भी चिढ़ जाये , लेकिन आपको ही , परिवार को ही उसे सम्हालना है। उसे भाषण ना दे, बस कारण जानने का प्रयास करे, मनोचिकित्सक की सहायता ले।
इसके बाद भी आप इसे फैशन या नौटंकी मानते है तो अवसाद ग्रस्त व्यक्ति को मानसिक चिकित्सा की आवश्यकता हो या नही, आपको अवश्य है।
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