बचपन की जितनी धुँधली याद है, मेरे जीवन की सबसे पहली पुस्तक चंदामामा या नंदन ही रही होगी। इसमे से चंदामामा पौराणीक कहानीयों के लिये जानी जाती है, इसकी खासीयत इसके रंगबिरंगे खूबसूरत चित्र होते थे। विक्रम बेताल का परिचय चंदामामा से ही हुआ। चंदामामा ने ही भारत ही नही विश्व की पौराणीक गाथाओं से भी परिचय कराया, जिसमे तमिळ काव्य शिलप्पादिकारम (जिसकी नायिका कण्णगी है), इलियड और ओडीसी भी शामिल है।
इसके दूसरी ओर नंदन थी, परीकथा और जादुई दुनिया वाली बाल पत्रिका। विश्व बाल साहित्य से परिचय इसी पत्रिका ने कराया जिसमे हेंस क्रिश्चियन एंडरसन जैसे लेखक का समावेश है। उनकी कहानी ’नन्ही दियासलाई वाली लड़की(The Little Match Girl)' नंदन मे ही पढ़ी थी। नंदन की ख़ासियत इसके मध्य मे छपने वाला चार पृष्ठो का अखबार होता था।
पापा को कामिक्स पसंद नही आते थे, वे हमे कामिक्स पढ़ने मना भी करते थे। लेकिन इसका अपवाद थी अमर चित्रकथा जो वे खुद ला देते थे। अधिकतर भारतीय पौराणीक गाथाओं से परिचय अमर चित्र कथा से ही हुआ था।
इस बीच बीच मे कभी कभी पराग, चंपक और लोटपोट भी आ जाती थी। पंचतंत्र की थीम पर जानवरो के माध्यम से कहानी कहने का अंदाज़ लिये चंपक थी। पराग के कार्टून का अपना अलग ही रंग होता था। लोटपोट के मोटू पटलू , घसीटा और डा झटका एक पीढी के बाद गार्गी को भी पसंद है। लोटपोट मे ही हम काजल कुमार जी के चिंपु और मिन्नी से मीले। कभी सोचा नही था कि काजल जी से कभी आभासी ही सही मित्रता भी होगी।
1986 के आसपास बालहंस से परिचय हुआ। इसके दो पात्र अब भी याद है, ठोलाराम और कवि आहत! अपेक्षाकृत सस्ती लेकिन ढेर सारी पठनीय सामग्री वाली पत्रिका। नन्हे सम्राट और मुर्खीस्तान का परिचय इसी दौरान हुआ।
1988 के आसपास विज्ञान प्रगति पढ़ना आरंभ हुआ। देवेन मेवाड़ी सर की सौरमंडल शृंखला ने अंतरिक्ष मे जो रुची जगाई वह आज भी जारी है। इसी दौरान स्पेस शटल डिस्कवरी का प्रक्षेपण भी हुआ था। अविष्कार भी पढने मीली लेकिन थोड़ी बोझील सी लगी, शायद समय से पहले पढ़ रहे थे। इस समय जब गर्मियों मे ताउजी के घर सिहोर जाते थे, तब चकमक पढ़ने मील जाती थी जोकि महाराष्ट्र मे नही मिल पाती थी।
बड़े हो रहे थे, रुचि बदल रही थी। एक किशोरों की पत्रिका थी सुमन सौरभ, पढ़ी लेकिन मजा नही आया। इलेक्ट्रॉनिक फ़ॉर यु भी पढ़ना आरंभ किया। कादंबिनी, सरिता जैसी पत्रिकाये भी पढ़ने मे आ रही थी, इसके साथ प्रतियोगिता दर्पण भी।
जब कालेज मे इंजीनियरींग करने पहुंचे पत्रिकाये पढ़ना कम होते गया लेकिन कभी कभार, इंडीया टूडे, कांपटीशन सक्सेस, आउटलूक, माया जैसी पत्रिकायें भी पढ़ लेते थे। कालेज के बाद नौकरी करते समय रेलयात्राओं मे भी इन पत्रिकाओं का पढ़ना जारी रहा लेकिन पिछले कुछ वर्षो मे पत्रिका पढ़ना पूरी तरह से बंद हो गया है। अधिकतर पढ़ना इंटरनेट, आईपैड और किंडल पर ही होता है।
किसी को बताईयेगा नही लेकिन किसी समय मनोहर कहानियाँ और सत्यकथा जैसी पत्रिकायें भी पढ़ी है। कभी कभार तबियत से धुनाई भी हुई है!
इसके दूसरी ओर नंदन थी, परीकथा और जादुई दुनिया वाली बाल पत्रिका। विश्व बाल साहित्य से परिचय इसी पत्रिका ने कराया जिसमे हेंस क्रिश्चियन एंडरसन जैसे लेखक का समावेश है। उनकी कहानी ’नन्ही दियासलाई वाली लड़की(The Little Match Girl)' नंदन मे ही पढ़ी थी। नंदन की ख़ासियत इसके मध्य मे छपने वाला चार पृष्ठो का अखबार होता था।
पापा को कामिक्स पसंद नही आते थे, वे हमे कामिक्स पढ़ने मना भी करते थे। लेकिन इसका अपवाद थी अमर चित्रकथा जो वे खुद ला देते थे। अधिकतर भारतीय पौराणीक गाथाओं से परिचय अमर चित्र कथा से ही हुआ था।
इस बीच बीच मे कभी कभी पराग, चंपक और लोटपोट भी आ जाती थी। पंचतंत्र की थीम पर जानवरो के माध्यम से कहानी कहने का अंदाज़ लिये चंपक थी। पराग के कार्टून का अपना अलग ही रंग होता था। लोटपोट के मोटू पटलू , घसीटा और डा झटका एक पीढी के बाद गार्गी को भी पसंद है। लोटपोट मे ही हम काजल कुमार जी के चिंपु और मिन्नी से मीले। कभी सोचा नही था कि काजल जी से कभी आभासी ही सही मित्रता भी होगी।
1986 के आसपास बालहंस से परिचय हुआ। इसके दो पात्र अब भी याद है, ठोलाराम और कवि आहत! अपेक्षाकृत सस्ती लेकिन ढेर सारी पठनीय सामग्री वाली पत्रिका। नन्हे सम्राट और मुर्खीस्तान का परिचय इसी दौरान हुआ।
1988 के आसपास विज्ञान प्रगति पढ़ना आरंभ हुआ। देवेन मेवाड़ी सर की सौरमंडल शृंखला ने अंतरिक्ष मे जो रुची जगाई वह आज भी जारी है। इसी दौरान स्पेस शटल डिस्कवरी का प्रक्षेपण भी हुआ था। अविष्कार भी पढने मीली लेकिन थोड़ी बोझील सी लगी, शायद समय से पहले पढ़ रहे थे। इस समय जब गर्मियों मे ताउजी के घर सिहोर जाते थे, तब चकमक पढ़ने मील जाती थी जोकि महाराष्ट्र मे नही मिल पाती थी।
बड़े हो रहे थे, रुचि बदल रही थी। एक किशोरों की पत्रिका थी सुमन सौरभ, पढ़ी लेकिन मजा नही आया। इलेक्ट्रॉनिक फ़ॉर यु भी पढ़ना आरंभ किया। कादंबिनी, सरिता जैसी पत्रिकाये भी पढ़ने मे आ रही थी, इसके साथ प्रतियोगिता दर्पण भी।
जब कालेज मे इंजीनियरींग करने पहुंचे पत्रिकाये पढ़ना कम होते गया लेकिन कभी कभार, इंडीया टूडे, कांपटीशन सक्सेस, आउटलूक, माया जैसी पत्रिकायें भी पढ़ लेते थे। कालेज के बाद नौकरी करते समय रेलयात्राओं मे भी इन पत्रिकाओं का पढ़ना जारी रहा लेकिन पिछले कुछ वर्षो मे पत्रिका पढ़ना पूरी तरह से बंद हो गया है। अधिकतर पढ़ना इंटरनेट, आईपैड और किंडल पर ही होता है।
किसी को बताईयेगा नही लेकिन किसी समय मनोहर कहानियाँ और सत्यकथा जैसी पत्रिकायें भी पढ़ी है। कभी कभार तबियत से धुनाई भी हुई है!
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