हमारा बचपन ठेठ गाँव में बीता है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ की सीमा के पास महाराष्ट्र के गोंदिया जिले में झालिया गांव! आदिवासी , नक्सली तहसील सालेकसा का गाँव। स्कूली शिक्षण भी पहली से सांतवी तक हिंदी माध्यम में झालिया के सरकारी प्राथमिक स्कूल में पढ़ी, उसके बाद बगल के गाँव कावराबांध से आंठवी से दसंवी पढ़ी। इसी स्कूल में पापा भी गणित और विज्ञान पढ़ाते थे।
कक्षा 11 और 12 पड़ोस के कस्बे आमगांव के सरकारी स्कूल से की, विज्ञान लिया था जोकि महाराष्ट्र में केवल अंग्रेजी माध्यम में ही उपलब्ध था। उस समय गाँव उंगलियों पर गिने जा सकने वाले ग्रेजुएट थे, जिसमे से एक मेरे पापा थे। मेरा परिवार बुंदेलखंड से पापा की नौकरी के साथ भटकते हुए उस गाँव में पहुंचा था, जिसमे मेरी दादी भी बिना किसी औपचारिक शिक्षा के गीता, रामचरित मानस पढ़ लेती थी।
लेकिन 1993-94 यह वह समय था, जब इंजीनियरींग कॉलेज मे पढ़ना बड़ी बात मानी जाती थी।
जब हमने 12 वी पास कर ली, मेडिकल का सपना टूटा तो तो इंजीनियरींग मे प्रवेश लेने की सोची। हमारी खुशकिस्मती से इस वर्ष महाराष्ट्र मे इंजीनियरींग कॉलेजों मे प्रवेश की प्रक्रिया केंद्रीकृत हो गई थी। सारे निजी और सरकारी कॉलेजों मे प्रवेश एक साथ एक ही जगह से दिया जाने लगा था।
जब हमने 12 वी पास कर ली, मेडिकल का सपना टूटा तो तो इंजीनियरींग मे प्रवेश लेने की सोची। हमारी खुशकिस्मती से इस वर्ष महाराष्ट्र मे इंजीनियरींग कॉलेजों मे प्रवेश की प्रक्रिया केंद्रीकृत हो गई थी। सारे निजी और सरकारी कॉलेजों मे प्रवेश एक साथ एक ही जगह से दिया जाने लगा था।
निजी और सरकारी कॉलेजों मे भी अंतर नही था, विश्वेश्वरैया रीजनल कॉलेज आफ़ इंजीनियरींग (VRCE अब VNIT) से इंजीनियरींग करो या किसी निजी कॉलेज से, डीग्री नागपुर विश्वविद्यालय से ही मिलनी थी।
इस प्रवेश प्रक्रिया मे सरकारी कॉलेजों की 100% सीट्स फ़्री सीट्स थी अर्थात 4000 रूपये सालाना प्रवेश वाली। निजी कॉलेजों मे 50% फ़्री सीट्स, 50% पेमेंट सीट्स जिनकी फ़ीस 32,000 रूपये सालाना थी।
हमने 50 रूपये वाला प्रवेश फ़ार्म ख़रीदा और भर दिया। इस बीच इस प्रवेश प्रक्रिया के खिलाफ कोई न्यायालय मे चला गया और प्रवेश प्रक्रिया पर न्यायालय ने रोक लगा दी। तब तक हमने समीप के शहर गोंदिया में बी एस सी मे प्रवेश ले लिया और पढ़ने लगे। तीन महीने बीते , अंतत: सितंबर मे प्रवेश से रोक हटी और प्रवेश प्रक्रिया आरंभ हुई। हम चल दिये काउंसलिंग और प्रवेश के लिये नागपुर।
पापा का स्वास्थ्य ठीक नही रहता था तो सब कुछ खुद ही करना था। नागपुर मेरे गांव झालिया से 200 किमी दूर था। पास के रेलवे स्टेशन आमगांव से पैसेंजर ट्रेन ली और काउंसलिंग के एक दिन पहले नागपुर पहुंच गये।
पहली बार अकेले घर से निकले थे। उस समय पैसो की तंगी तो रहती ही थी। नागपुर में कोई परिचित नहीं था और किसी होटल में रूकने के बारे मे ना तो पता था, ना ही पैसे थे, तो रात के नौ बजे से सुबह तक का समय रेलवे स्टेशन पर गुजारा। सुबह रेलवे स्टेशन पर ही नहा धो कर VRCE(अब VNIT) काउंसलिंग केंद्र पहुंचे।
काउंसलिंग केंद्र पर चार्ट देखा, अपना क्रमांक दोपहर मे तीसरी बैच मे आना था। चाय पी और घर से लाये परांठे खाये। और एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गये। दोपहर मे अपना क्रमांक आने पर काउंसलिंग कराने पहुंचे।
काउंसलिंग डेस्क पर बैठे महानुभाव ने मुझे अकेले देखा, पूछा साथ मे कौन है ? हमने कहा कि हम अकेले ही है।
अब उसने पूछा कि कौनसा कॉलेज चाहिये ?
हमने पूछा कि कौनसा खाली है ?
उसने हमे घूरा! उपर से नीचे देखा और कहा तुम्हारे लिये अभी सारे नागपुर विश्वविद्यालय मे सीट्स खाली है। तुम्हे कौनसा कॉलेज चाहिये।
हमने सोचा कि नागपुर के आसपास के कॉलेज घर से दो सौ किमी दूर पड़ेंगे। जबकि गोंदिया केवल तीस किमी। हमने कहा कि गोंदिया मे दे दीजिए।
अब पूछा कौनसी ब्रांच चाहिये। अब हम सोच मे पढ़ गये। तो उन्ही महाशय ने कहा कि "कंप्यूटर साईंस एंड इंजीनियरींग" दे दुं ?
काउंसलिंग केंद्र पर चार्ट देखा, अपना क्रमांक दोपहर मे तीसरी बैच मे आना था। चाय पी और घर से लाये परांठे खाये। और एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गये। दोपहर मे अपना क्रमांक आने पर काउंसलिंग कराने पहुंचे।
काउंसलिंग डेस्क पर बैठे महानुभाव ने मुझे अकेले देखा, पूछा साथ मे कौन है ? हमने कहा कि हम अकेले ही है।
अब उसने पूछा कि कौनसा कॉलेज चाहिये ?
हमने पूछा कि कौनसा खाली है ?
उसने हमे घूरा! उपर से नीचे देखा और कहा तुम्हारे लिये अभी सारे नागपुर विश्वविद्यालय मे सीट्स खाली है। तुम्हे कौनसा कॉलेज चाहिये।
हमने सोचा कि नागपुर के आसपास के कॉलेज घर से दो सौ किमी दूर पड़ेंगे। जबकि गोंदिया केवल तीस किमी। हमने कहा कि गोंदिया मे दे दीजिए।
अब पूछा कौनसी ब्रांच चाहिये। अब हम सोच मे पढ़ गये। तो उन्ही महाशय ने कहा कि "कंप्यूटर साईंस एंड इंजीनियरींग" दे दुं ?
हमने सर हिला दिया। हो गया हमारा इंजीनियरींग मे प्रवेश।
यह वह समय था जब मेकेनिकल , केमिकल इंजीनियरींग जैसी ब्रांचो की तूती बोलती थी। नागपुर बोर्ड से प्रथम आये छात्र ने इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया था। कंप्यूटर साइंस उस समय प्राथमिकता में सिविल से थोड़ा ऊपर ही आंठवे नौवें स्थान पर आता था। लेकिन उन सज्जन ने पता नहीं क्या सोच कर मुझे कंप्यूटर साईंस एंड इंजीनियरींग दे दिया था।
20 अक्टूबर, कॉलेज मे पहला दिन! इंजीनियरींग पाठयक्रम मे प्रथम वर्ष सभी के लिये एक जैसा होता है तो कॉलेज प्रबंधन ने चार सेक्सन बना दिये थे। साठ छात्रो वाले सेक्सन A मे सारी लड़कियांऔर अल्फ़ाबेटीक आर्डर से कुल 12 लड़के थे। जिसमे से एक हम, एक अशोक था जो मेरे साथ बी एस सी मे भी साथ मे था। मेरे दूसरी ओर एक और आशीष थे, जोकि मध्यप्रदेश के बड़े ठेकेदार के बेटे थे। उसने हमसे Production की स्पेलिंग पूछी। हमने पूछा क्यों तो बताया कि उसकी ब्रांच "प्रोड्क्शन इंजीनियरींग" है। पता चला कि भाई साहब ढाई लाख डोनेशन और बत्तीस हजार फ़ीस देकर मेनेजमेंट कोटा से आये है। एक भाई साहब अनूप मिले, पता चला कि जो फ़ार्म हमने पचास रूपये मे खरीदा था, वो उन्हे सत्तर हजार मे मिला था। पड़ोस के बालाघाट से एक अभिनव थे, जो कि ऐसे ही नजराना देकर आये थे।
20 अक्टूबर, कॉलेज मे पहला दिन! इंजीनियरींग पाठयक्रम मे प्रथम वर्ष सभी के लिये एक जैसा होता है तो कॉलेज प्रबंधन ने चार सेक्सन बना दिये थे। साठ छात्रो वाले सेक्सन A मे सारी लड़कियांऔर अल्फ़ाबेटीक आर्डर से कुल 12 लड़के थे। जिसमे से एक हम, एक अशोक था जो मेरे साथ बी एस सी मे भी साथ मे था। मेरे दूसरी ओर एक और आशीष थे, जोकि मध्यप्रदेश के बड़े ठेकेदार के बेटे थे। उसने हमसे Production की स्पेलिंग पूछी। हमने पूछा क्यों तो बताया कि उसकी ब्रांच "प्रोड्क्शन इंजीनियरींग" है। पता चला कि भाई साहब ढाई लाख डोनेशन और बत्तीस हजार फ़ीस देकर मेनेजमेंट कोटा से आये है। एक भाई साहब अनूप मिले, पता चला कि जो फ़ार्म हमने पचास रूपये मे खरीदा था, वो उन्हे सत्तर हजार मे मिला था। पड़ोस के बालाघाट से एक अभिनव थे, जो कि ऐसे ही नजराना देकर आये थे।
कॉलेज में बहुत से बी एस सी वाले मित्र भी थे, सब कह रहे थे कि कंप्यूटर साइंस लेकर गलती की, कुछ कॉलेज चयन पर भी गलती बता रहे थे। उन्हें क्या बताएं कि गोंदिया से बाहर पढ़ना मेरे लिए बहुत से कारणों से संभव नहीं था। और कंप्यूटर साइंस का भविष्य आने वाला था!
खैर सबसे दोस्ती हो गई। तीन चार महीने बाद अपने बालाघाटी अभिनव सर्दी खांसी से परेशान हो गये, गोंदिया का मौसम या होस्टल का खानपान रहन सहन रास नही आया और बोरिया बिस्तर लपेट कर वापस चल दिये। हम सोच रहे थे कि कम से कम दो लाख का चूना लगा होगा जोकि मेरे पापा कि पांच साल की कुल कमाई होगी।
साल भर बीता, दूसरे आशीष भाई इंजीनियरींग ड्राईंग को छोड़ हर विषय मे फ़िसड्डी। अनूप भाई साहब सुबह से लेकर देर रात तक ट्युशन अटेंड करते रहते थे। मार्च आया, परिक्षायें हुई। गर्मीयो मे सब अपने अपने घर गये।
जुलाई मे कॉलेज शुरु हुये, हमने द्वितिय वर्ष मे प्रवेश लिया। नतीजे नही आये थे, लेकिन क्लासे आरंभ हो गई थी। आशीष और अनूप दोनो ने प्रवेश नही लिया था, ना ही गोंदिया आये थे। अगस्त मे परिणाम आये। आशीष ड्राईंग छोड़ हर विषय मे फ़ेल थे, जबकि अनूप सारे विषयों मे।
अशोक से चर्चा की। वो बोला कि चिंता मत कर, ये सब भी इंजीनियरींग कर लेंगे, चार साल मे नही तो छह आठ बरस मे लेकिन कर लेंगे। उन्हे हमारी तुम्हारी तरह नौकरी थोड़े खोजना है। वे इंजीनियरींग की डीग्री खरीदने आये है और उन्हे मिल जायेगी।
अशोक सही था, जब हम कॉलेज छोड़ कर निकल रहे थे तो आशीष मिला था, प्रथम वर्ष निकाल लिया था, द्वितिय वर्ष के कुछ विषय भी। कुल मिलाकर तृतीय वर्ष मे प्रवेश की पात्रता हासिल हो गई थी। अनूप महाराज अब भी संघर्षरत थे।
खैर सबसे दोस्ती हो गई। तीन चार महीने बाद अपने बालाघाटी अभिनव सर्दी खांसी से परेशान हो गये, गोंदिया का मौसम या होस्टल का खानपान रहन सहन रास नही आया और बोरिया बिस्तर लपेट कर वापस चल दिये। हम सोच रहे थे कि कम से कम दो लाख का चूना लगा होगा जोकि मेरे पापा कि पांच साल की कुल कमाई होगी।
साल भर बीता, दूसरे आशीष भाई इंजीनियरींग ड्राईंग को छोड़ हर विषय मे फ़िसड्डी। अनूप भाई साहब सुबह से लेकर देर रात तक ट्युशन अटेंड करते रहते थे। मार्च आया, परिक्षायें हुई। गर्मीयो मे सब अपने अपने घर गये।
जुलाई मे कॉलेज शुरु हुये, हमने द्वितिय वर्ष मे प्रवेश लिया। नतीजे नही आये थे, लेकिन क्लासे आरंभ हो गई थी। आशीष और अनूप दोनो ने प्रवेश नही लिया था, ना ही गोंदिया आये थे। अगस्त मे परिणाम आये। आशीष ड्राईंग छोड़ हर विषय मे फ़ेल थे, जबकि अनूप सारे विषयों मे।
अशोक से चर्चा की। वो बोला कि चिंता मत कर, ये सब भी इंजीनियरींग कर लेंगे, चार साल मे नही तो छह आठ बरस मे लेकिन कर लेंगे। उन्हे हमारी तुम्हारी तरह नौकरी थोड़े खोजना है। वे इंजीनियरींग की डीग्री खरीदने आये है और उन्हे मिल जायेगी।
अशोक सही था, जब हम कॉलेज छोड़ कर निकल रहे थे तो आशीष मिला था, प्रथम वर्ष निकाल लिया था, द्वितिय वर्ष के कुछ विषय भी। कुल मिलाकर तृतीय वर्ष मे प्रवेश की पात्रता हासिल हो गई थी। अनूप महाराज अब भी संघर्षरत थे।
और रहा कंप्यूटर साइंस का, तो मेरी कंप्यूटर साइंस क्लास के 40 सहपाठीयों में अधिकतर अच्छी स्तिथि में है, बहुत सारे अमरीका, आस्ट्रेलिया या यूरोप में है , मेरे जैसे कुछ भारत में है वो भी अपनी मर्जी से अपनी शर्तो पर है!
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