1993-94 यह वह समय था, जब इंजीनियरींग कालेज मे पढ़ना बड़ी बात मानी जाती थी।
जब हमने 12 वी पास कर ली तो इंजीनियरींग मे प्रवेश करने की सोची, इस वर्ष महाराष्ट्र मे इंजीनियरींग कालेजो मे प्रवेश की प्रक्रिया केंद्रीकृत हो गई थी। सारे निजी और सरकारी कालेजो मे प्रवेश एक साथ एक ही जगह से दिया जाने लगा था।
निजी और सरकारी कालेजो मे भी अंतर नही था, विश्वेश्वरैया रीजनल कालेज आफ़ इंजीनियरींग (VRCE अब VNIT) से इंजीनियरींग करो या किसी निजी कालेज से, डीग्री नागपुर विश्वविद्यालय से ही मिलनी थी।
इस प्रवेश प्रक्रिया मे सरकारी कालेजो की 100% सीट्स फ़्री सीट्स थी अर्थात 4000 रूपये सालाना प्रवेश वाली। निजी कालेजो मे 50% फ़्री सीट्स, 50% पेमेंट सीट्स जिनकी फ़ीस 32,000 रूपये सालाना थी।
हमने 50 रूपये वाला प्रवेश फ़ार्म ख़रीदा और भर दिया। इस बीच कोई न्यायालय मे चला गया और प्रवेश प्रक्रिया पर न्यायालय ने रोक लगा दी। तब तक हमने बी एस सी मे प्रवेश ले लिया और पढ़ने लगे। तीन महीने बीते , अंतत: सितंबर मे प्रवेश से रोक हटी और प्रवेश प्रक्रिया आरंभ हुई। हम चल दिये काउंसलिंग और प्रवेश के लिये नागपुर।
पापा का स्वास्थ्य ठीक नही रहता था तो सब कुछ खुद ही करना था। नागपुर मेरे गांव झालिया से 200 किमी दूर था। समीप का शहर गोंदिया था। पास के रेल्वे स्टेशन आमगांव से पैसेंजर ट्रेन ली और काउंसलिंग के एक दिन पहले नागपुर पहुंच गये। पहली बार अकेले घर से निकले थे। पैसो की तंगी तो रहती ही थी। होटल मे रूकने के बारे मे ना तो पता था, ना ही पैसे थे, तो रात के नौ बजे से सुबह तक का समय रेल्वे स्टेशन पर गुजारा। सुबह रेल्वे स्टेशन पर ही नहा धो कर VRCE काउंसलिंग केंद्र पहुंचे।
चार्ट देखा, अपना क्रमांक दोपहर मे तीसरी बैच मे आना था। चाय पी और घर से लाये परांठे खाये। और एक पेड़ के नीचे जाकर बैठ गये। दोपहर मे अपना क्रमांक आने पर काउंसलिंग कराने पहुंचे।
काउंसलिंग डेस्क पर बैठे महानुभाव ने मुझे अकेले देखा, पूछा साथ मे कौन है ? हमने कहा कि हम अकेले ही है।
अब उसने पूछा कि कौनसा कालेज चाहिये ?
हमने पूछा कि कौनसा खाली है ?
उसने हमे घूरा! उपर से नीचे देखा और बोला तुम्हारे लिये अभी सारे नागपुर विश्वविद्यालय मे सीट्स खाली है। तुम्हे कौनसा कालेज चाहिये।
हमने सोचा कि नागपुर से आसपास के कालेज घर से दो सौ किमी दूर पड़ेंगे। जबकि गोंदिया केवल तीस किमी। पूछा गोंदिया मे दे दीजिए।
अब पूछा कौनसी ब्रांच चाहिये। अब हम सोच मे पढ़ गये। तो उन्ही महाशय ने कहा कि "कंप्यूटर साईंस एंड इंजीनियरींग" दे दुं ?
हमने सर हिला दिया। हो गया हमारा इंजीनियरींग मे प्रवेश।
20 अक्टूबर, कालेज मे पहला दिन! इंजीनियरींग पाठयक्रम मे प्रथम वर्ष सभी के लिये एक जैसा होता है तो कालेज प्रबंधन ने चार सेक्सन बना दिये थे। साठ छात्रो वाले सेक्सन ए मे सारी लड़कीया और अल्फ़ाबेटीक आर्डर से कुल 12 लड़के थे। जिसमे से एक हम, एक अशोक था जो मेरे साथ बी एस सी मे भी साथ मे था। मेरे दूसरी ओर एक और आशीष थे, जोकि मध्यप्रदेश के बड़े ठेकेदार के बेटे थे। उसने हमसे Production की स्पेलिंग पूछी। हमने पूछा क्यों तो बताया कि उसकी ब्रांच "प्रोड्क्शन इंजीनियरींग" है। पता चला कि भाई साहब ढाई लाख डोनेशन और बत्तीस हजार फ़ीस देकर मेनेजमेंट कोटा से आये है। एक भाई साहब अनूप मिले, पता चला कि जो फ़ार्म हमने पचास रूपये मे खरीदा था, वो उन्हे सत्तर हजार मे मिला था। पड़ोस के बालाघाट से एक अभिनव थे, जो कि ऐसे ही नजराना देकर आये थे।
खैर सबसे दोस्ती हो गई। तीन चार महीने बाद अपने बालाघाटी अभिनव सर्दी खांसी से परेशान हो गये, गोंदिया का मौसम या होस्टल का खानपान रहन सहन रास नही आया और बोरिया बिस्तर लपेट कर वापस चल दिये। हम सोच रहे थे कि कम से कम दो लाख का चूना लगा होगा जोकि मेरे पापा कि पांच साल की कुल कमाई होगी।
साल भर बीता, दूसरे आशीष भाई इंजीनियरींग ड्राईंग को छोड़ हर विषय मे फ़िसड्डी। अनूप भाई साहब सुबह से लेकर देर रात तक ट्युशन अटेंड करते रहते थे। मार्च आया, परिक्षायें हुई। गर्मीयो मे सब अपने अपने घर गये।
जुलाई मे कालेज शुरु हुये, हमने द्वितिय वर्ष मे प्रवेश लिया। नतीजे नही आये थे, लेकिन क्लासे आरंभ हो गई थी। आशीष और अनूप दोनो ने प्रवेश नही लिया था, ना ही गोंदिया आये थे। अगस्त मे परिणाम आये। आशीष ड्राईंग छोड़ हर विषय मे फ़ेल थे, जबकि अनूप सारे विषयों मे।
अशोक से चर्चा की। वो बोला कि चिंता मत कर, ये सब भी इंजीनियरींग कर लेंगे, चार साल मे नही तो छह आठ बरस मे लेकिन कर लेंगे। उन्हे हमारी तुम्हारी तरह नौकरी थोड़े खोजना है। वे इंजीनियरींग की डीग्री खरीदने आये है और उन्हे मिल जायेगी।
अशोक सही था, जब हम कालेज छोड़ कर निकल रहे थे तो आशीष मिला था, प्रथम वर्ष निकाल लिया था, द्वितिय वर्ष के कुछ विषय भी। कुल मिलाकर तृतीय वर्ष मे प्रवेश की पात्रता हासिल हो गई थी। अनूप महाराज अब भी संघर्षरत थे।
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