ये कहानी शुरू होती है मेरे अभियांत्रिकी के अंतिम वर्ष से। अंतिम वर्ष और कालेज का प्रोजेक्ट दोनो का एक दूसरे से गहरा नाता है। मै ठहरा कंप्युटर विज्ञान का छात्र, मतलब प्रोजेक्ट याने एक साफ्टवेयर बनाओ। चार साल की मेहनत इसी प्रोजेक्ट पर निर्भर होती है क्योंकि २०% अंक प्रोजेक्ट पर दिये जाते है। प्रोजेक्ट के लिये महाविद्यालय की कंप्युटर प्रयोगशाला मे जो समय मिलता था, पर्याप्त नही होता था। मेरी कक्षा के अधिकांश छात्रो के पास खुद के कंप्यूटर थे या उन्होने किसी कंप्यूटर संस्थान मे प्रवेश लिया था। मै कंप्युटर खरीदना तो दूर किसी कंम्प्युटर संस्थान मे प्रवेश ले कर प्रोजेक्ट बनाने की हालत मे नही था। मेरे परिवार की आर्थिक स्थिती उस समय काफी डांवाडोल चल रही थी।
समस्या ! क्या किया जाये ? इसी उधेड्बुन मे मै एक कंप्यूटर संस्थान (एप्टेक) पहुंच गया, इरादा था कि तीन महिनो के लिये फीस की जानकारी ली जाये, उसके बाद मे कुछ तिकडम लगा कर फीस का जुगाड करें। लेकिन ऐसा कोई मौका नही आया। जब मै पहुंचा पता चला उन्हे C और C++ पढाने के लिये कुछ शिक्षक चाहिये ! मेरी बांछे खिल गयी, हम तो ठहरे डेनीश रीची के भक्त, मतलब C और C++ के मास्टर। उसी समय साक्षात्कार दिया और चुन भी लिये गये। मुझे अब शाम ६-८ बजे तक की दो कक्षाये लेनी थी और ८-९ कंप्युटर प्रयोगशाला मे छात्रो की प्रायोगिक कक्षा लेनी थी। और क्या चाहिये बदले मे मुझे २००० रू महिने के मिलने थे, साथ मे अपना काम करने के लिये पूरी की पूरी कंप्युटर प्रयोगशाला। सोचा क्या किस्मत है, छात्र बनने गये थे, मास्टर बन कर आ गये !
अब हम बन गये मास्टर , पढाते तो थे, साथ मे पढते भी थे, अपना कालेज का प्रोजेक्ट भी बनाते थे। उम्र थी यही कोई २१ साल। भरी पूरी नौजवानी। एप्टेक मे मेरी कक्षा मे आधे से भी ज्यादा खूबसूरत कन्यांये थी, सोने पर सुहागा। हम भी पूरा मन लगा कर पढाते थे, कुछ इज्जत का सवाल होता था और कुछ रोब जमाना (स्टाईयल मारना) होता था। पढाने मे काफी आनंद आ रहा था और पैसा भी।
एक दिन बारिश हो रही थी, कक्षा मे सिर्फ ५-६ कन्याये आयी थी और बाकी सब गायब थे, किसी का पढने का मूड नही था। हम भी लग गये इधर उधर की बतियाने। ऐसे भी हमे बातों का बादशाह कहा जाता है। जब अच्छे श्रोता हो, वो भी कन्याये तो फिर क्या कहने। हांकना शुरू कर दी। अब बात चली करीयर से और दोस्ती-रिश्ते-जीन्दगी तक जा पहुंची। अब पता नही ऐसा क्या है “दोस्ती-रिश्ते-जीन्दगी” जैसी फिलासफाना बातो मे कन्याओ का मन अच्छे से लगता है, हम लपेटते रहे और वे सुनते रहे। अब बातों का बादशाह अपने पूरे सरूर मे था, झोंक झोंक मे कह गया
“पता नही मै तुम लोगो के साथ कब तक रहुंगा, लेकिन जिन्दगी मे तुम्हे कभी मेरी आवश्यकता मह्सुस हो , मुझसे संपर्क कर लेना मै मदद के लिये उपलब्ध रहुंगा।”
पता नही ये शब्द दिल से निकले थे या नही, आज जब मै पिछे मुडकर देखता हुं तब यह सब कुछ बचकाना लगता है।
खैर मेरी बातों का एक कन्या का तत्काल ही कुछ ज्यादा ही असर हुआ। कन्या ज्यादा खूबसूरत वाली श्रेणी की थी। जब कक्षा खत्म हुयी, और मै अपने कंप्युटर पर अपना कार्य कर रहा था वह बाजु मे आ कर बैठ गयी। मुझे लगा कि उसे कोई तकनीकी शंका होगी। मैने पूछा
“कहो क्या बात है ?”जवाब आया
“आपसे मुझे निजी बात करनी है”मै मन मे
“कर लिया आ बैल मुझे मार वाली हालत, अब झेलो इन मोहतरमा को! “मै प्रत्यक्ष मे
” हां कहो , क्या बात है ? हम आप की क्या मदद कर सकते है ?”उसने एक लंबी कथा सूनायी जिसका सक्षेंप ये था कि वह एक महत्वाकांक्षी लडकी है। उसे अपनी जिंदगी मे कुछ बनना है। उसके घर मे उसके पिताजी उसे प्रोत्साहन देते है लेकिन उसका भाई हर चिज मे टांग अडाता है। उसकी मम्मी भी भाई का साथ देती है। उस लडकी का मेरे से ये अपेक्षा थी कि मै उसके लिये एक मार्गदर्शक, एक प्रोत्साहक की भूमिका निभाऊं।
अब मैने सोचा “अब बडी बडी बांते कर ली है, लम्बी लम्बी फेंक तो दी है, चलो प्रयास भी कर लेते है।”
मैने उसे कहा
“देखो, मै तुम्हे मार्गदर्शन तो दे सकता हुं, सलाह दे सकता हुं, लेकिन निर्णय तुम्हारा अपना होगा। रही बात तुम्हारे घर की और भाई की तुम्हे अपनी लडाई खुद लडनी होगी, मै तुम्हारे कैरीयर के लिये मै पूरी मदद करूंगा।”उसने कहा, वह यह सब कर सकती है लेकिन उसे एक मानसीक रूप से संबल देने वाला चाहिये, जो उसकी नजरो मे मै था। मै मन मे
“लो कर लो बात ! खुद के कैरीयर का कोई ठौर ठिकाना नही , चले दुसरो का कैरीयर बनाने।”धीरे धीरे नज़दीकियाँ बडी, उसके हर निर्णय मे मै सहभागी होने लगा था। बात यहां तक आ पहुंची थी कि वो अपने पिताजी की सलाह देने पर उसका जवाब होता था
“आपकी बात ठीक है लेकिन मै आशीष से पूछ्कर आपको बताती हुं।”
मैं खुद हैरान कोई भी व्यक्ती मुझ पर इतना निर्भर कैसे हो सकता है ? समय आगे बढ़ा, मै कालेज से निकला। मेरी घर के आर्थिक हालात बदतर हो गये थे, गुजारा सिर्फ ,मेरी ऎप्टेक की कमाई पर चल रहा था। मैने एक साहसिक निर्णय लिया और चल दिया दिल्ली । इरादा था कि 1-2 महिने नौकरी का प्रयास करो, मिल गयी तो ठीक वर्ना वापिस आ जाओ। जब घर के हालात ठीक हो जायें तब दुबारा प्रयास करेंगे। लेकिन मै किस्मत का धनी, दिल्ली मे मेरे कुछ मित्र थे मै उन्ही के साथ रहता था। अब रहने के लिये छत, खाना और पुस्तको की समस्या नही थी। मेरे एक मित्र प्रवीण पांडेय ने अपनी कंपनी मे मेरा परिचय दिया और मेरा साक्षात्कार का प्रबंध करा दिया। साक्षात्कार अच्छा रहा और मै चुन लिया गया। एक महिने पहले मै जहां 2000 रू महिना कमाता था, अब 15000 महिना कमा रहा था !
मेरे मित्रो ने मुझ पर जो अहसान किये थे, उसका बदला चुकाने का मेरे पास एक ही उपाय था। जैसा मेरे मित्रो ने मेरा करीयर बनाया वैसे तुम भी किसी और का कैरीयर बना दो, और मेरे पास उसका उम्मीदवार भी था।
मैने उसी दिशा मे कदम उठाये, सोचा कि इसे पहले आर्थिक रूप से स्वतंत्रता दिलायी जाये। उसका बी एस सी हो चुका था, एप्टेक का कोर्स भी खत्म हो गया था । मैने उसे उसी ऎप्टेक मे अपनी जगह नौकरी दिलवा दी। उसके बाद उसके आगे क्या करना चाहिये इसका पूरा रोडमैप बना दिया।
मै अब अपनी नयी जिन्दगी मे लग गया और उसे उसी तरह फोन और इमेल से सलाह देता रहा ! उसे जब भी जरूरत होती वो मुझे मेल कर देती थी।
लेकिन दोनो के आसंमा अलग अलग थे, दोनो की अपनी सोचो का एक अलग दायरा था। कुछ समय बाद मुझे लगा कि अब वह रोड्मैप से भटक रही है। मैने ये महसूस किया कि कोई उसकी जिंदगी मे काफ़ी करीब आ चुका है और उसकी मंजिल बदल चुकी है।
कुछ दिनो बाद जब मै उससे मिला तब उसने मुझसे बताया कि उसे अपने एक सहकर्मी से प्रेम हो गया है।
मैने उससे कहा
“तो आगे क्या सोचा है?”जवाब था
“कुछ नही!”मेरा जवाब था
“अपनी निजी लडाई तुम्हे खुद लडनी है, और जहां तक तुम्हारे कैरीयर का सवाल है मै सोचता हुं, मेरा रोल खत्म हो चुका है।”और ये मेरी उससे आखीरी मुलाकात थी। उस लड़की ने अगले वर्ष उससे शादी कर ली, वह अपने परिवार मे व्यस्त है। अपने जीवन मे स्वतंत्र रहकर करियर बनाना अब उसकी प्राथमिकता मे नही था।
और मैने नये उम्मीदवार की तलाश शुरू कर दी, वो मुझे मिला भी। मेरा नया उम्मीदवार विप्रो मे काम कर रहा है। वह एक पिछड़े आदीवासी क्षेत्र से है, अपने पूरे खानदान मे पहला स्नातक। लेकिन मेरे दोनो उम्मीदवार मे एक अंतर है, मेरा नया उम्मीदवार एक लडका है।
कभी कभी मै सोचता हुं, उस लडकी की जिन्दगी मे से मेरा अचानक बाहर आना उचित था या नही ? मैने उस लड़की से उसके सपनो को पूरा करने का जो वादा किया था, वो तो अधुरा ही रह गया ? ये मेरे मन की एक खीज भी हो सकती है क्योंकि मेरी मेहनत व्यर्थ गयी थी और मेरा अपना स्वार्थ भी तो था। मेरा अपना खुद का सपना किसी का गाडफादर बनने का जो टूट गया था !
कभी ये लगता है कि मेरा निर्णय उचित था क्योंकि मैने अपनी तरह से प्रयास पूरा किया था लेकिन उसका आसमां कुछ और था !
2 टिप्पणीयां
1. अनूप शुक्ला उवाच :
दिसम्बर 16, 2005 at 1:34 am ·
बड़ा बढ़िया संस्मरण लिखा।
2. अनूप शुक्ला उवाच :
दिसम्बर 16, 2005 at 8:32 am ·
जैसे हर सफल पुरुष के पीछे एक अदद महिला का हाथ माना जाता है वैसे ही हर गाडफादर की सफलता में गाडमदर का भी योगदान होता होगा। उसकी खोज करो।
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