मेरा गांव जहां मेरा सारा बचपन और किशोरावस्था बीता एक आम भारतीय गांव था। गांव के पश्चिम मे पाठशाला थी ,उसके बाद एक बड़ा सा मैदान। इस मैदान को ‘झंडा टेकरा’ कहा जाता था। पाठशाला के पीछे एक पहाड़ी, पहाड़ी और ‘झंडा टेकरा’ को विभाजित करती हुयी एक नहर। गांव के उत्तर मे था एक बडा बरगद का पेड़ और उसके पिछे एक बड़ा सा तालाब। बरगद के पेड़ और गांव को अलग करती एक पक्की सडक।
ये बरगद का पेड़ गांव का हृदय-स्थल था, ये बस स्थानक तो था ही साथ मे चौपाल का भी कार्य करता था। गांव के सारे के सारे ठलुये दिन भर और बाकी सभी शाम को यहीं पर पाये जाते थे।
सुबह जब चरवाहा सारे गांव से गायो को एकत्र कर चराने के लिये ले जाता था, तब उन्हे कुछ देर के लिये इसी बरगद के नीचे खडा करता था।बरसात मे जब खेतो के काम खत्म हो जाते थे ग्रामीण यहां आल्हा गाते थे। घनघोर बरसात मे आल्हा की वो तान
इस बरगद के पेड के नीचे कुछ चाय-पान और साइकिल मरम्मत की दुकानें भी थी। साइकिल की ये दुकानें साइकिल किराये से भी देती थीं। यहां पर हमे बच्चों के लिये छोटी साइकिलें किराये से मिल जाती थी। किराया होता था १० पैसे घन्टा !बढ़े लढैया गड मोहबे के जिनके बल को वार न पार
छूट्टीयो मे हम सुबह सुबह साइकिल दुकान पहुंच जाते और साइकिले ले कर चल देते ‘झंडा टेकरा’ । साइकिलों की दौड़ होती थी और ढेर सारे करतब किये जाते थे। इन करतबो मे शामिल थे एक साइकिल पर ज्यादा से ज्यादा सवारी ले जाना। क्या आप विश्वास करेंगे कि हम लोगो का रिकार्ड है, एक साइकिल पर ७ लोगो को सवार कर सारे गांव का चक्कर( लगभग २ किमी) लगाने का ! साइकिल चला रहा था हमारा गामा पहलवान ‘अमरचन्द’ ! २ पीछे कैरियर पर थे, २ सीट पर, २ डंडे पर और १ हैंडल पर सामने देखते हुये ! सारे गांव मे बच्चे ताली बजा रहे थे और बुजुर्ग डांट रहे थे। अमरचन्द अच्छे खासे डील डौल वाला था, अपनी उम्र से ५ साल बड़ा लगता था। कबड्डी मे वह पूरी की पूरी विपक्षी टीम को अकेले खिंच लाता था।
साइकिलों के करतबो मे हैण्डल छोड़कर चलाना, उल्टे बैठकर साइकिल चलाना, कैरियर पर बैठकर चलाना, अगला चक्का हवा मे रखकर पिछले पहिए पर साइकिल चलाना और ना जाने क्या क्या करतब किये जाते थे। अब ऐसे करतब दिखांये, और गिरे पड़े ना ! ऐसा तो हो नही सकता था। घुटना और कुहनी छिलना तो रोज की बात थी। मुसीबत ये थी कि घर मे बता नही सकते थे कि आज साईकिल से गिर पड़े ! सबसे पहले पूछा जाता कि कि आज कौनसा करतब हो रहा था ? डांट तो पढ़ती ही थी, पापा कभी कभी रात का खाना बंद करा देते थे। रात का इसलिये कि दिन मे तो हम घर के खाने कि चिंता करते ही नही थे। कहीं भी किसी के भी घर खा लिया। आम, अमरूद, इमली,हरे चने, मटर जैसे मौसमी चीजें अलग। हम कितना भी छुपांये लेकिन छोटे भाई , बहन मे से कोई ना कोई गद्दारी कर ही जाता था। उन्होने गद्दारी नही कि तो जख्मो का दर्द गद्दारी कर जाता था। दर्द से जितनी तकलीफ़ नही होती थी, तकलीफ़ होती थी जब पापा डांट के साथ ‘टिंचर आयोडीन’ लगाते थे ! दर्द से यदि कराह निकली कि गाल पर भी दर्द सहना पढ़ता था ।
हम लोगो का दूसरा खेल होता था तालाब मे तैरना! दोपहर मे जब तालाब मे कोई नही होता था, तब हम पहुंच जाते थे तालाब। घंटो तैरते रहते थे। तालाब के एक किनारे एक आम का पेड़ था जो तालाब पर झुका हुआ था। हम पेड़ पर चढ़कर तालाब मे कुदा करते थे। हम लोगो को भैंस की पुंछ पकड़ कर तालाब को पार करना सबसे मजेदार खेल लगता था। यह सब हम गांव वालो और घरवालों की नजर बचा कर किया करते थे। ये सावधानी बरती जाती कि किसी को पता ना चले कि हम तालाब मे मस्ती करते है। जरूरी ये होता था कि तालाब से बाहर निकलने के बाद कपड़े और सर के बाल सूखे हो। बस हम तालाब मे नंगधडंग कूद जाते थे। कोई तालाब के आस पास फटका कि बाहर निकलो, कपड़े उठाओ और भाग लो।
एक बार हम लोग तालाब मे मस्ती कर रहे थे किसी ने मेरे घर मे खबर कर दी। जब पापा तालाब पहुंचे, हम लोग भैंस की पुंछ पकड़े हुये दूसरे किनारे जा रहे थे। तालाब से निकल कर भागना संभव नही था। कपडे भी उस किनारे पडे थे, जंहा पापा खडे थे। सबकी सिट्टी-पिट्टी गुम। लेकिन पापा ने हम लोगो से कुछ नही कहा, बस किनारे रखे सारे के सारे कपड़े उठाये और चल दिये।
अब क्या करें ? सारे के सारे नंगधंडंग पानी मे !
सब एक दूसरी की तरफ देख रहे थे। ऐसे ही पानी मे खड़े खड़े एक घन्टा गुज़र गया, तब गामा पहलवान ‘अमरचंद’ आता नजर आया। जब उसे सारी बात पता चली तो वह आधा घण्टे तो हंसते हंसते लोट पोट होता रहा। उसके बाद उसे अगले हफ्ते साइकिल के किराये के पैसे देने के वादे की रिश्वत दी गयी, साथ मे ये भी वादा किया गया कि अगली अमरूदो की चोरी मे से उसके हिस्से के अलावा एक हिस्सा और दिया जायेगा। वो मेरे अलावा सबके घर जाकर सबकी मम्मीयों से उल्टे सीधे बहाने बनाकर कपड़े ले आया। मेरे घर मे पापा ने उसे दरवाज़े से ही भगा दिया। लेकिन गामा पहलवान कम नही था, वह मेरे लिये अपने कपड़े ले आया था। सबने कपडे पहने। मैने अमरचन्द के कपडे पहने। उसके कपडे मुझ पर ऐसे लग रहे थे जैसे कि हैंगर पर कपडे सुखते है !
शाम को मेरी मिंत्र मंडली जब कपडे लेने मेरे घर पहुंचे, उन्हे पापा ने कपडो साथ ‘प्रसाद’ दिया और लम्बा चौडा भाषण पिलाया। मेरे साथ क्या हुआ ये अब मै ही बताउंगा क्या ?
5 टिप्पणीयां “बचपन की शरारतें भाग २” पर
मतलब चीरहरण सिर्फ गोपियों का ही नहीं हुआ था। पिता भी कृष्ण की भूमिका कर सकते हैं जिनके लिये बच्चे गोपियां होते हैं।अच्छा लगा विवरण। आगे बताओ क्या हुआ तुम्हारे साथ?
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक जुलाई 18th, 2006
वाह वाह, मजा आ गया और हँसी भी आई।
eshadow द्वारा दिनांक जुलाई 19th, 2006
बढिया लगा .बहुत अच्छा लिखा . पूरा दृश्य आँखों के सामने आ गया
pratyaksha द्वारा दिनांक जुलाई 19th, 2006
बहुत बढ़िया किस्से हैं आशीष । लगता है बचपन में आप बहुत पिटे हैं । लड़के खैर शायद सभी पिटते हैं । आपकी ख़ुराफ़ातें पढ़ के लगा कि बचपन का भरपूर आनंद उठाया है आपने ।
निधि द्वारा दिनांक जुलाई 22nd, 2006
मस्त लिखा है…आगे भी लिखें इसी सीरीज़ में!
अन्तर्मन द्वारा दिनांक जुलाई 27th, 2006
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