वेलेन्टाईन दिवस पर श्रीमती जी ने पर्स उपहार मे दिया। पर्स हमारा लेकिन पसंद उनकी लेकिन हमने ये सोच कर ले लिया कि ऐसे भी हमारा पर्स हमारे पास होता ही कहाँ है? पर्स निकालने की आवश्यकता तो उनके ही आदेश के अनुसार ही होती है, हमारे पर्स पर 75% हक तो उन्ही का होता है।
पुराने पर्स ने चीजे निकालकर नये पर्स मे डाल रहे थे और सोचने लगे कि पर्स हमारे जीवन मे कब आया। याद आया कि मेरे पापा पर्स नही रखते थे। ऐसा नही कि पापा ने कभी पर्स नही खरीदा हो। उन्होने कुछ दफा पर्स या मम्मी की भाषा मे "मनीबैग" खरीदा अवश्य था। पापा का पर्स जब भी खरीदा गया वो तारीख महीने के पहले सप्ताह मे होती थी और दूसरे सप्ताह ही पर्स घर के किसी कोने मे पड़ा होता था। अब जब पर्स मे पैसे ही ना हो, तो जेब मे पर्स डालकर घूमने वालो मे से तो पापा थे ही नही। उनके जेब मे ऐसे भी चाक के टूकड़ो के साथ पड़े पड़े पर्स उन कुछ गीने चुने दिनो मे भी कसमसाता रहता होगा। सोचता होगा कि इन चाक के टूकड़ो ने मेरे अच्छे श्याम रंग पर सफेदा पोत कर बरबाद कर दिया है।
मेरे स्कूली दिनो मे पर्स रखने का तो प्रश्न ही नही होता। कालेज के दिनो मे भी पर्स नही रखा था, उन दिनो मे ऐसे भी हम एक बड़ा सा पिठ्ठू बैग लटकाये घूमते थे, जिसमे कापी किताबे, कैल्क्युलेटर, पेन, पेंसील तथा रेलवे का मासिक पास रखा होता था, उसी के साथ दोपहर मे खाने के लिये लंचबाक्स। लंचबाक्स मे मम्मी की मेहरबानी से इतने परांठे होते थे कि स्वयं की पेटपूजा के साथ 1-2 होस्टल के दोस्तो की आत्मा भी तृप्त हो जाती थी। इस आत्मातृप्ती के बदले मे शाम को वो भी हमे कालेज की कैंटीन मे या गेट के बाहर की टपरी पर समोसो का भोग लगा देते थे। कालेज आने जाने घर से ट्रेन और साईकल का माध्यम था। खाने के लिये कोई समस्या नही थी तो जेब मे पैसों की भी आवश्यकता नही थी। पर्स रखने का सवाल ही नही था।
कालेज के दिन गुजरे। पहली नौकरी मिली, वेतन भी ज्यादा नही था। यही कोई आठ हजार रूपये मासिक के आसपास। छोटी कंपनी थी, वेतन नगद मे मिलता था। महिने प्रारंभ मे अपने हिस्से का कमरे का किराया, कमरे के खर्च मे अपना हिस्सा, खाने की मेस का पैसा, ट्रेन का मासिक पास देने के बाद जो बचता था, वो घर भेज देते थे। फक्कड़ी के इस दौर मे पर्स की आवश्यकता ही महसूस नही हुयी। ये 1998-2000 का समय था, जेब मे पैसे नही होने के बाद भी किस्मत ऐसी थी कि कभी किसी बात की कमी महसूस नही हुयी। कंपनी मे दो बार चाय आती थी, शाम को कभी बाहर निकलना हुआ तो समोसे, वड़ा पाव के पैसे देने की आवश्यकता नही पड़ी, अपनी जेब मे हाथ डालने से पहले ही कोई सीनीयर हड़का के खुद पैसे दे देता था।
इसी दौर मे भटकते हुये एक मित्र के दिल्ली घुमने के निमंत्रण पर दिल्ली पहुंचे, उसी की कंपनी मे नौकरी के लिये साक्षात्कार दिया। चुन लिये गये। यहाँ पहले से ज्यादा आसानी थी। हम कुछ मित्रो के साथ काल्काजी दिल्ली मे रहते थे, कंपनी गुड़गांव मे थी लेकिन आने जाने के लिये कंपनी की ही बस थी। खाने के लिये भी समस्या नही थी, खाना बनाने के लिये एक कामवाली थी। हम घर से ही नाश्ता कर, दोपहर का खाना लेकर आफीस जाते थे। पर्स की आवश्यकता अब भी महसूस नही हुयी थी। लेकिन नई कंपनी ने एच डी एफ़ सी बैंक मे वेतन खाता खोल दिया था, डेबीट कार्ड नामक मुसीबत मत्थे पड़ गयी थी। लेकिन कार्ड की आवश्यकता भी महिने के पहले सप्ताह मे ही पड़ती थी। सप्ताहांत मे आवारागर्दी भी राजेश के साथ होती थी, सारा खर्च वह करता था, महिने के अंत मे हिसाब लगा कर उसे पैसे दे दिया करता था।
दिल्ली की नई नौकरी मे एक साल गुजरा, मार्च आया। कंपनी ने फ़ार्म 16 दिया, आयकर रीटर्न भरा। इस सारी प्रक्रिया मे पैन कार्ड नामक एक और मुसीबत आ गयी। 2002 चल रहा था, आई टी वालो के बुरे दिन चल रहे थे, डाट काम का बुलबुला फुट चुका था, रही सही कसर ओसामा बीन लादेन ने पूरी कर दी थी। मेरी कंपनी के बुरे हाल थे, वेतन वृद्धि की जगह वेतन मे कटौती हो रही थी। गनिमत थी कि मै जिस प्रोजेक्ट मे था उससे सारी कंपनी की रोजी रोटी चल रही थी। जब वेतन कटौती की बात आयी तो हम अड़ गये कि यदि वेतन मे कटौती हुई तो काम बंद। कंपनी की मजबूरी थी, हमारे वेतन मे कटौती नही हुयी। लेकिन हमे मालूम था कि अभी कंपनी की मजबूरी है तो हमारी सुन रही है, जिस दिन मजबूरी खत्म उस दिन कहेगी कि बेटा अब घूम जाओ और पीछे से लात देगी। इससे पहले कि कंपनी निकाले, खुद ही भाग जाओ।
नई नौकरी खोजनी प्रारंभ की। एक सप्ताह मे ही दो तीन आफर लेटर लेकर घूम रहे थे। नयी नौकरी के साथ पहुंच गये चेन्नई। लेकिन अब तक पर्स नही खरीदा था। यहां कंपनी ने ICICI बैंक मे खाता खुलवाया, एक डेबीट कार्ड और आ गया। इस मध्य मे एक बहन की शादी थी, सोचा कि आपातकाल के लिये एक क्रेडीट कार्ड ले लो। कुछ दिनो बाद मोटरसाईकल भी ले ली, उसके साथ ड्राइवींग लाइसेंस भी आया। अब मेरे पास दो डेबिट कार्ड, एक क्रेडिट कार्ड, एक पैन कार्ड और एक ड्राइविंग लाइसेंस था। पैसो से ज्यादा इन सभी कार्डो को रखने की समस्या थी। थक हार कर पर्स खरीद लिया गया।
पर्स लेने की यह महान घटना 2004 मे घटित हुयी, अब इस घटना को घटित हुये यही कोई दस ग्यारह वर्ष हो रहे है। आज भी पर्स मे नगद नही होता है। नगद हुआ भी तो यही कोई सौ दो सौ रूपये। श्रीमती जी हमेशा भूनभूनाते रहती है कि पर्स पैसे रखने के लिये होता है, दिखाने के लिये नही। पर्स मे नगद नही रखने की आदत को विदेश यात्राओं मे बढ़ावा मीला जहाँ लगभग हर जगह डेबिट कार्ड से भूगतान किया। वहाँ नगद मे भूगतान करने पर रेजगारी सम्हालने की मुसीबत होती है। अपने कई मित्रो को किलो दो किलो रेजगारी जमा कर वालमार्ट मे नगदी मे बदलने लेजाते देखा है। हमे ऐसा करने की नौबत कभी नही आयी।
अब भारत मे भी अधिकतर जगह कार्ड से भूगतान हो जाता है, जहाँ नही होता है, वह दुकानदार खुद ही पास का एटीएम बता देता है। कभी कभी तो वह स्वयं कह देता है कि मै अपने आदमी को आपके साथ भेज देता हुं, आप इसे पैसा दे दिजिये। महिने की प्रारंभ मे दूधवाले, अखबारवाले, कामवाली के भूगतान और सप्ताहांत की छुटपुट की खरीददारी जैसे सब्जी, फल इत्यादि के लिये नगद की आवश्यकता होती है, तब ही पर्स मे नगद की कृपा होती है। आज भी महिने के पहले सप्ताह के अतिरिक्तपर्स अपने नसीब पर रोते रहता है!
इति श्री पर्स गाथा।
पुराने पर्स ने चीजे निकालकर नये पर्स मे डाल रहे थे और सोचने लगे कि पर्स हमारे जीवन मे कब आया। याद आया कि मेरे पापा पर्स नही रखते थे। ऐसा नही कि पापा ने कभी पर्स नही खरीदा हो। उन्होने कुछ दफा पर्स या मम्मी की भाषा मे "मनीबैग" खरीदा अवश्य था। पापा का पर्स जब भी खरीदा गया वो तारीख महीने के पहले सप्ताह मे होती थी और दूसरे सप्ताह ही पर्स घर के किसी कोने मे पड़ा होता था। अब जब पर्स मे पैसे ही ना हो, तो जेब मे पर्स डालकर घूमने वालो मे से तो पापा थे ही नही। उनके जेब मे ऐसे भी चाक के टूकड़ो के साथ पड़े पड़े पर्स उन कुछ गीने चुने दिनो मे भी कसमसाता रहता होगा। सोचता होगा कि इन चाक के टूकड़ो ने मेरे अच्छे श्याम रंग पर सफेदा पोत कर बरबाद कर दिया है।
मेरे स्कूली दिनो मे पर्स रखने का तो प्रश्न ही नही होता। कालेज के दिनो मे भी पर्स नही रखा था, उन दिनो मे ऐसे भी हम एक बड़ा सा पिठ्ठू बैग लटकाये घूमते थे, जिसमे कापी किताबे, कैल्क्युलेटर, पेन, पेंसील तथा रेलवे का मासिक पास रखा होता था, उसी के साथ दोपहर मे खाने के लिये लंचबाक्स। लंचबाक्स मे मम्मी की मेहरबानी से इतने परांठे होते थे कि स्वयं की पेटपूजा के साथ 1-2 होस्टल के दोस्तो की आत्मा भी तृप्त हो जाती थी। इस आत्मातृप्ती के बदले मे शाम को वो भी हमे कालेज की कैंटीन मे या गेट के बाहर की टपरी पर समोसो का भोग लगा देते थे। कालेज आने जाने घर से ट्रेन और साईकल का माध्यम था। खाने के लिये कोई समस्या नही थी तो जेब मे पैसों की भी आवश्यकता नही थी। पर्स रखने का सवाल ही नही था।
कालेज के दिन गुजरे। पहली नौकरी मिली, वेतन भी ज्यादा नही था। यही कोई आठ हजार रूपये मासिक के आसपास। छोटी कंपनी थी, वेतन नगद मे मिलता था। महिने प्रारंभ मे अपने हिस्से का कमरे का किराया, कमरे के खर्च मे अपना हिस्सा, खाने की मेस का पैसा, ट्रेन का मासिक पास देने के बाद जो बचता था, वो घर भेज देते थे। फक्कड़ी के इस दौर मे पर्स की आवश्यकता ही महसूस नही हुयी। ये 1998-2000 का समय था, जेब मे पैसे नही होने के बाद भी किस्मत ऐसी थी कि कभी किसी बात की कमी महसूस नही हुयी। कंपनी मे दो बार चाय आती थी, शाम को कभी बाहर निकलना हुआ तो समोसे, वड़ा पाव के पैसे देने की आवश्यकता नही पड़ी, अपनी जेब मे हाथ डालने से पहले ही कोई सीनीयर हड़का के खुद पैसे दे देता था।
इसी दौर मे भटकते हुये एक मित्र के दिल्ली घुमने के निमंत्रण पर दिल्ली पहुंचे, उसी की कंपनी मे नौकरी के लिये साक्षात्कार दिया। चुन लिये गये। यहाँ पहले से ज्यादा आसानी थी। हम कुछ मित्रो के साथ काल्काजी दिल्ली मे रहते थे, कंपनी गुड़गांव मे थी लेकिन आने जाने के लिये कंपनी की ही बस थी। खाने के लिये भी समस्या नही थी, खाना बनाने के लिये एक कामवाली थी। हम घर से ही नाश्ता कर, दोपहर का खाना लेकर आफीस जाते थे। पर्स की आवश्यकता अब भी महसूस नही हुयी थी। लेकिन नई कंपनी ने एच डी एफ़ सी बैंक मे वेतन खाता खोल दिया था, डेबीट कार्ड नामक मुसीबत मत्थे पड़ गयी थी। लेकिन कार्ड की आवश्यकता भी महिने के पहले सप्ताह मे ही पड़ती थी। सप्ताहांत मे आवारागर्दी भी राजेश के साथ होती थी, सारा खर्च वह करता था, महिने के अंत मे हिसाब लगा कर उसे पैसे दे दिया करता था।
दिल्ली की नई नौकरी मे एक साल गुजरा, मार्च आया। कंपनी ने फ़ार्म 16 दिया, आयकर रीटर्न भरा। इस सारी प्रक्रिया मे पैन कार्ड नामक एक और मुसीबत आ गयी। 2002 चल रहा था, आई टी वालो के बुरे दिन चल रहे थे, डाट काम का बुलबुला फुट चुका था, रही सही कसर ओसामा बीन लादेन ने पूरी कर दी थी। मेरी कंपनी के बुरे हाल थे, वेतन वृद्धि की जगह वेतन मे कटौती हो रही थी। गनिमत थी कि मै जिस प्रोजेक्ट मे था उससे सारी कंपनी की रोजी रोटी चल रही थी। जब वेतन कटौती की बात आयी तो हम अड़ गये कि यदि वेतन मे कटौती हुई तो काम बंद। कंपनी की मजबूरी थी, हमारे वेतन मे कटौती नही हुयी। लेकिन हमे मालूम था कि अभी कंपनी की मजबूरी है तो हमारी सुन रही है, जिस दिन मजबूरी खत्म उस दिन कहेगी कि बेटा अब घूम जाओ और पीछे से लात देगी। इससे पहले कि कंपनी निकाले, खुद ही भाग जाओ।
नई नौकरी खोजनी प्रारंभ की। एक सप्ताह मे ही दो तीन आफर लेटर लेकर घूम रहे थे। नयी नौकरी के साथ पहुंच गये चेन्नई। लेकिन अब तक पर्स नही खरीदा था। यहां कंपनी ने ICICI बैंक मे खाता खुलवाया, एक डेबीट कार्ड और आ गया। इस मध्य मे एक बहन की शादी थी, सोचा कि आपातकाल के लिये एक क्रेडीट कार्ड ले लो। कुछ दिनो बाद मोटरसाईकल भी ले ली, उसके साथ ड्राइवींग लाइसेंस भी आया। अब मेरे पास दो डेबिट कार्ड, एक क्रेडिट कार्ड, एक पैन कार्ड और एक ड्राइविंग लाइसेंस था। पैसो से ज्यादा इन सभी कार्डो को रखने की समस्या थी। थक हार कर पर्स खरीद लिया गया।
पर्स लेने की यह महान घटना 2004 मे घटित हुयी, अब इस घटना को घटित हुये यही कोई दस ग्यारह वर्ष हो रहे है। आज भी पर्स मे नगद नही होता है। नगद हुआ भी तो यही कोई सौ दो सौ रूपये। श्रीमती जी हमेशा भूनभूनाते रहती है कि पर्स पैसे रखने के लिये होता है, दिखाने के लिये नही। पर्स मे नगद नही रखने की आदत को विदेश यात्राओं मे बढ़ावा मीला जहाँ लगभग हर जगह डेबिट कार्ड से भूगतान किया। वहाँ नगद मे भूगतान करने पर रेजगारी सम्हालने की मुसीबत होती है। अपने कई मित्रो को किलो दो किलो रेजगारी जमा कर वालमार्ट मे नगदी मे बदलने लेजाते देखा है। हमे ऐसा करने की नौबत कभी नही आयी।
अब भारत मे भी अधिकतर जगह कार्ड से भूगतान हो जाता है, जहाँ नही होता है, वह दुकानदार खुद ही पास का एटीएम बता देता है। कभी कभी तो वह स्वयं कह देता है कि मै अपने आदमी को आपके साथ भेज देता हुं, आप इसे पैसा दे दिजिये। महिने की प्रारंभ मे दूधवाले, अखबारवाले, कामवाली के भूगतान और सप्ताहांत की छुटपुट की खरीददारी जैसे सब्जी, फल इत्यादि के लिये नगद की आवश्यकता होती है, तब ही पर्स मे नगद की कृपा होती है। आज भी महिने के पहले सप्ताह के अतिरिक्तपर्स अपने नसीब पर रोते रहता है!
इति श्री पर्स गाथा।
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