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दख्खन की ओर : मदुरै, रामेश्वर और कन्याकुमारी यात्रा - भाग 2 कन्याकुमारी

दूसरा दिन 17 मई


सुबह पांच बजे अलार्म बजने से ठीक पहले ही नींद खुल गई। खुद उठे, बाथरूम मे घुसकर नहा धो कर बाहर निकले। तब तक गार्गी भी जाग गई थी, उसे नहला कर तैयार किया। तब तक निवेदिता सामान पैक कर रही थी। अंत मे निवेदिता के नहा धोकर तैयार होने पर बाहर निकले।

पता चला कि कार पार्किंग मे कार के आगे और पीछे कारें इस तरह से पार्क थी कि अपनी कार निकल नही सकती थी। होटल के रिसेप्शन पर शिकायत की तो उन्होने अपने ड्राईवर को भेजा। उसने हमारी कार के पीछे वाली कारों को हटाया, तब हमारी कार बाहर निकल पाई।

चेक-आउट कर बाहर आये, छ: बज गया था लेकिन मदुरै अब तक सुस्ता रहा था। होटल के सामने एक टपरीनुमा दुकान पर चाय पी। और चल दिये कन्याकुमारी की ओर।


मदुरै से कन्याकुमारी


रास्ता खाली था और 240 किमी की दूरी तय करनी थी। कन्याकुमारी ग्यारह बजे तक पहुंच जाने की उम्मीद थी। गति 100/120 किमी प्रतिघंटा चल रही थी। मदुरै से आगे 100 किमी की दूरी तय करने के पश्चात रास्ते के दोनो ओर पवनचक्कीयाँ दिखना शुरु हो गई थी और साथ मे गार्गी के प्रश्न भी। ये क्या है, क्या करती है, वगैरह! जैसे ही उसे बताया कि ये हवा से बिजली बनाती है, गार्गी बोली "ओह विंडव्हील! पापा ऐसे बताओ ना!"

पूरे रास्ते खेतो के मध्य पवनचक्कीयाँ ही नजर आ रही थी। इंटरनेट पर देखा तो पता चला कि एक 50 मीटर लंबाई की पंखुड़ी वाली पवन चक्की से एक वर्ष मे 60 लाख kWh बिजली उत्पन्न हो सकती है जो कि 1500 आधुनिक घरो की विद्युत आवश्यकता के लिये पर्याप्त है।

नौ बजते तक भूख लग आई। सड़क के किनारे एक औसत किस्म के ढाबे नुमा रेस्तरां पर कार रोकी। नाश्ते के लिये पुछा तो उन्होने बताया कि इडली, दोसा, पूरी उपलब्ध है। हमने अपने लिये दोसा और गार्गी, निवेदिता के लिये इडली आर्डर की। उन्होने टेबल पर केले के पत्ते बिछा दिये, और हर पत्ते पर दो मेदु वड़ा रख दिये। उसके बाद दोसा और इडली परोसा। इडली दोसा के उपर ही सांभर और चटनी डाल दी। कटोरी, चम्मच का कोई नाम ही नही।  हमने पूरे दक्षिण भारतीय अंदाज हाथ से ही दोसा और इडली का भोग लगाया। नाश्ता समाप्त होने पर वेटर ने हमे बताया कि केले के पत्तो को स्वयं ही कूड़ेदान मे फ़ेंकना है, अच्छा लगा और स्वयं ही पत्तो को कुड़े दान मे डाल आये। पानी का स्वाद लिया, अच्छा लगा, तो वही पानी पीया।

नाश्ता कर आगे बढ़े। थोड़ी दूर पर त्रिचांदूर जाने का रास्ता दिखा, इस स्थान पर एक विशाल सुब्रमनियम मंदिर है। चेन्नई से दोस्तो के साथ कुट्टालम, कन्याकुमारी यात्रा मे हम लोग एक जीप से इस मंदिर गये थे।

कन्याकुमारी के समीप आ गये थे, होटल जाने के रास्ते के लिये गूगलदेव की सेवायें आरंभ की। ग्यारह बज रहे थे और कन्याकुमारी मे हम प्रवेश कर गये थे। कन्याकुमारी एक छोटा सा कस्बा है, कुल मिलाकर एक से दो किमी लंबाई मे सिमटा हुआ। गूगल देव ने हमे होटेल के लिये एक गली मे मुड़ने कहा, हमे होटेल भी दिख गया, लेकिन ट्रेफ़िक पुलीस ने रोक दिया। पता चला कि उस गली मे जत्रा(रथ यात्रा) चल रही है। पुलिस वाले से पुछा कि कब तक जात्रा चलेगी, उसने कहा कि दो घंटे ! सामने ही गांधी मंडपम दिख रहा था। हमने कार आगे बढ़ाई। गांधी मंडपम से पहले कार पार्किंग है और कार खड़ी कर दी। सोच रहे थे कि अब क्या करे?

विवेकानंद शिला और थिरुवल्लौवर मुर्ती









सोचा कि जब तक जात्रा से रास्ता खाली हो, देवी कुमारी मंदिर हो आते है। सारा सामान कार मे रहने दिया और पैदल चल पड़े। अब मंदिर मे पता चला कि मंदिर जात्रा के चक्कर मे बंद है और शाम चार बजे खुलेगा।  हमने सोचा कि चलो अब विवेकानंद शिला और थिरुवल्लौवर मुर्ती घूम आते है।

विवेकानंद शिला जाने के लिये नाव की टिकट लेने पता किया तो देखा कि लगभग एक किमी लंबी कतार है, कम से कम 3000 लोग लगे हुये है। लेकिन हम जानते थे कि इनके पास चार बड़ी नावं है और हर नाव मे 200 लोग आ जाते है। एक राउंड ट्रीप मे नाव को अधिकतम दस मिनट लगते है। कतार मे खड़े हो गये। आधे घंटे मे हम टिकटघर पहुंच गये। विवेकानंद शिला के जाने के पचास रुपये प्रति व्यक्ति टिकट है। विवेकानंद शिला पर विवेकानंद मेमोरीयल का 20 रूपये  प्रतिव्यक्ति अलग से है।

अब हम नाव के लिये प्रतिक्षा कक्ष मे थे। दस मिनट मे अपनी बारी आई। दो तीन वर्ष पहले हुई नाव दुर्घटना के बाद हर यात्री को लाईफ़ जैकेट पहनना अनिवार्य है। उतरने वाले यात्रीयों के उतरने के बाद सारी लाईफ़ जैकेट के जमा होने के बाद नये यात्रीयो को लाईफ़ जैकेट पहनकर नांव पर जाना होता है। नांव से विवेकानंद शीला की दूरी मुश्किल से पांच मिनट की है।

विवेकानंद शिला पर उतरे। मेमोरियल हाल का टिकट लिया और आगे बड़े। धूप तेज थी, सारा स्थल ही शिला है और सब कुछ पत्थर से बना हुआ। उपर चप्पल/जुते उतारना अनिवार्य। पैर जलने से  हम डर रहे थे, लेकिन व्यवस्थापको मे पादचारी मार्ग पर सफ़ेद एंटीरिफ़्लेक्शन पेंट किया हुआ है, जो तेज धूप मे भी शीतल था।

विवेकानंद शिला पर स्वामी विवेकानंद ने अपनी प्रसिद्ध अमरीका यात्रा से पहले तीन दिन तक समाधी ली थी। उस स्थान पर वर्तमान मे एक प्रार्थना/ध्यान कक्ष है। आप जाकर ध्यान लगा सकते है। हम ध्यान कक्ष मे अंदर गये और बाहर आ गये क्योंकि ध्यान कक्ष मे शांति बनाये रखनी होती है, हमारा शैतान मुंह बंद नही रख सकता है। विवेकानंद मेमोरियल के सामने ही देवी कुमारी के पदचिह्न है। कहते है कि इसी स्थान पर देवी कुमारी ने शिव से विवाह के लिये खड़े रह कर तपस्या की थी तो उस स्थान पर उनके पैर के निशान बन गये है। विवेकानंद शिला पर तेज हवा चल रही थी, कुछ देर टहले, तस्वीरें ली और थिरुवल्लुवर मूर्ती के लिये रवाना हुये।

थिरुवल्लुवर मूर्ती


थिरुवल्लुवर मूर्ती यह एक 133 फ़ीट उंची मूर्ती है जो तमिळ कवि वल्लुवर की है। थिरु का अर्थ श्री होता है। थिरुवल्लुवर का तमिळ साहित्य मे वही दर्जा है जो संस्कृत मे वाल्मिकी का है, उनके द्वारा रचित ग्रंथ  थिरुक्कुरल(Thirukkuṛaḷ) है जोकि नैतिकता, राजनिति और आर्थिक मुद्दो पर है।

थिरुवल्लुवर मूर्ती पर कुछ समय बिताने के बाद वापस कन्याकुमारी पहुंचे। तब तक एक बज गया था। होटल जाने का रास्ता खुल गया था। होटल पहुंचे, चेक-इन किया। हाथ मुंह धोकर तरोताजा होने के बाद खाना खाने निकले। एक तमिळ रेस्तरां मे दक्षिण भारतीय थालीयों का आर्डर दिया। रसम, सांभर, सब्जीयों, दही, पापड़ और अचार के साथ भात का भोग लगाया।

शुचिंद्रम थानुमलायन मंदिर 


तब तक दो बज गये थे। मंदिर खुलने मे अभी दो घंटे और थे। सोचा कि इतने समय मे शुचिंद्रम से हो आते है। होटल से कार ली और शुचिंद्रम की ओर रवाना हुये। सुचिंद्रम का थानुमलायन मंदिर कन्याकुमारी से 12किमी दूरी पर है लेकिन रास्तानिर्मानाधिन था तो पहुंचने मे 45 मिनट लगे, मंदिर 3 बजे पहुंचे। पता चला कि यह मंदिर भी चार बजे खुलेगा। हमारे पास एक घंटा समय था। पास मे एक कुंड था, उस कुंड के पास घुमने लगे। हम और गार्गी दोनो पानी मे पैर भीगो कर वापिस आये। एक चाय की दुकान पर पहले चाय पी। दूसरी दुकान पर शर्बत पीया। एक टपरी पर शानदार गरमागरम मिर्ची भज्जी खाई।

इसके बाद मंदिर मे गये। इस मंदिर मे आपको कमर से नीचे मुंडु/वेस्टी पहनना होता है, और उपरी भाग मे अंगवस्त्रम। टीशर्ट और बनियान उतारनी पड़ी। गार्गी मजे ले रही थी, पापा शेम शेम!

थानुमलायन मंदिर मे शिव(स्थानु), विष्णु(मला) और ब्रह्मा(आयन) को एक अकेली मुर्ती के रूप मे दिखाया गया है जिसे स्थानुमलायन कहते है। यह मंदिर वास्तुकला का एक अच्छा उदाहरण है, सात मंजीला गोपुरम दूर से दिखाई देता है। मंदिर के अंदर हनुमान की एक ही पत्थर से बनी अठारह फ़ीट उंची मूर्ती है। यह मान्यता है कि लंका दहन के पश्चात हनुमान ने इसी स्थान पर आराम किया था तो उन्हे लोग पुंछ मे लगी आग की पिड़ा से शांति के लिये मख्खन और पान चढ़ाते है।

मुख्य मूर्ती के सामने जब मै निवेदिता को यह सब बता रहा था तो पुजारी ने हमे अपने साथ आने के लिये कहा। पुजारी समझ गया था कि यह बंदा खडुस है एक पैसा दक्षिणा नही देगा लेकिन निवेदितो से दक्षिणा वसूली जा सकती है। उसने हमे सारे मंदिर का टूर कराया। इस मंदिर के पिल्लर भी एक ही पत्थर से तराशे हुये है। इन पत्थरो मे आप सरगम बजा सकते है। पुजारी ने हम पिल्लर के अलग अलग स्तंभो को ठोंक कस सातो स्वर की ध्वनि निकाल कर दिखाई। पूरा टूर कराने के बाद उसने निवेदिता से दक्षिणा वसूली। आश्चर्य यह कि उसने मुझसे कोई उम्मीद नही की, ना ही दक्षिणा मांगी।



देवी कुमारी मंदिर


सुचिंद्रम  से कन्याकुमारी लौटे। पांच बज गये थे। देवी कुमारी मंदिर पहुंचे। अब मंदिर लगभग खाली था। इस मंदिर मे भी मुंडु/वेस्टी और अंगवस्त्रम वाली शर्त। टीशर्त/बनियान उतारी। मंदिर के अंदर गये। इस मंदिर मे देवी कुमारी विग्रह के  चारो ओर दिये इस तरह से जलाते है कि देवी के नाक मे लगा हीरा दूर से ही चमकते दिखता है। भीड़ नही थी, आराम से मंदिर घूमा। निवेदिता को फ़िर से एक बार पूरा पुराण सुनाया।

गांधी मंडपम 


अब बारी थी गांधी मंडपम की। फ़रवरी 1948 मे इसी स्थान पर महात्मा गांधी की अस्थियों को सागर मे विसर्जन से पहले रखा गया था। इस मंदिर का निर्माण ऐसा है कि दो अक्टूबर को सूर्य प्रकाश अस्थी रखने के स्थान पर सीधे पड़ता है। सारा स्मारक घुमा। गार्गी को महात्मा गांधी की कहानी सुनाई, उनकी विभिन्न तस्वीरों के बारे मे जानकारी दी।

गांधी मंडपम से निकल कर हम लोग बीच पर पहुंचे। निवेदिता को जूतो, पर्स और सामान को देखने लगा कर गार्गी के साथ पानी मे घुस गये। सूर्यास्त का समय हो रहा था। सूर्यास्त पाइंट लगभग एक किमी दूर था। लेकिन पश्चिम मे क्षितिज पर बादल थे और सूर्य  के उत्तरायण मे होने अस्त सागर मे ना होकर भूमी पर ही होना था। उपर से गार्गी पानी से निकलने तैयार नही थी तो तय हुआ कि सूर्यास्त बिच पर से ही देखा जाये।

सूर्यास्त के बाद अंधेरा होने पर होटल पहुंचे, नहाया धोया गया। और रात्रिभोजन के लिये निकले। इस बार हम एक पंजाबी रेस्तरां पहुंचे। दाल, सब्जी, कढ़ी, पापड़ और अचार  के साथ गर्मागरम  रोटीयाँ खाई।


 सूर्योदय 


वापस होटल पहुंचे। सुबह सूर्योदय का समय देखा, सूर्योदय छ: बजकर एक मिनट पर होने वाला था। पांच बजे का अलार्म लगाया और सो गये।

सुबह पांच बजे उठे। अब हमारे पास दो विकल्प थे। बाल्कनी से सूर्योदय देखे, या बीच पर जाकर सूर्योदय देखे। दूसरा विकल्प चुना। नहा धोकर तैयार होकर 5:45 तक बीच पहुंच गये। बीच पर अच्छी खासी भीड़ थी। अब भी क्षितिज पर बादल थे। छ बजकर एक मिनट निकल गया, दो मिनट हुये, चौथा मिनट भी निकल गया सूर्य महाराज नही दिखे। इतने मे सतह से थोड़ा उपर सूर्यमहाराज ने बादलो के बीच से अपनी जगह बनाई और निकलना आरंभ किया। बीच पर चाय बिक रही थी, चाय पीते हुये सूर्योदय देखा।






सूर्य महाराज के क्षितिज पर उपर आने के बाद वापिस होटल आये, सामान उठाया और निकल पढ़े अगले पढ़ाव रामेश्वरम की ओर...



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