अभी हाल ही मे मैं एंजलिना जोली अभिनीत 'सरहदो से बाहर्'(Beyond Border) चित्रपट देख रहा था, इस बार भी मै इसे पुरा नही देख पाया. ऐसा नही कि मेरे पास समय नही था या कोइ जरूरी काम आ गया. मै हिम्मत नही कर पाता, इसे पुरा देख पाने की. ये चित्रपट मैने इसके पहले भी देखा है. जब पहली बार मैने इस चित्रपट को देखा, तब ही इस चित्रपट ने मुझे अंदर से हिला दिया था. आज भी जब ये चित्रपट प्रसारीत होता है, सोचता हुं कि इस बार इसे पूरा देखुंगा लेकिन बिच मे ही मुझे चैनल बदलना पडता है. इस की कहानी ही कुछ ऐसी है. इस चित्रपट का एक भाग केविन कार्टर के इस प्रसिद्ध(?) चित्र पर आधारित है.
आप देख सकते है कि इस चित्र मे गिद्ध भूख से पिडित इस बालिका के मरने का इंतजार कर रहा है ताकि वह अपनी क्षुधा शांत कर सके. चित्रपट के अन्य हिस्से नैसर्गीक तथा मानव जनित आपदाओ पर ही आधारीत है, इसमे कंबोडिया का गृहयुद्ध है, चेचेन्या का युद्ध है, और सुडान का अकाल है. जब मै इस को देखता हुं तब मुझे याद आती है, कालाहांडी की, छत्तिसगढ की,सुनामी पीड़ित तमिलनाडु, अंडमान की, भूकंप से पिडित गुजरात और लातुर की , और हाल ही मे बारिश से बर्बाद मुंबई की. दिल दहल जाता है, हृदय कांप जाता है? जिस तरह शुतुरमुर्ग अपना मुंह रेत मे छुपा लेता है, उसी तरह मै चैनल बदल लेता हुं. मुझमे सत्य को झेलने की शक्ति नही आ पाती, क्या सच्चाई से दुर भागता हुं मै? हाँ ! शायद मै सच्चाई से दुर भागता हुं !
केविन कार्टर के इस प्रख्यात (कुख्यात ?) चित्र से क्या हुवा ? क्या भूख मिट सकी ? क्या गरीबी मिटी ? नही ! कुछ हुवा तो सिर्फ यही कि आज मै केविन कार्टर को जानता हुं! कुछ हुवा तो ये कि केविन कार्टर को प्रसिद्धी मिली, पैसा मिला ! और वो अभागा बच्चा ? पता नही कहाँ गया ! शायद उसे भूख प्यास से हमेशा के लिये मुक्ती मिल गयी. "Beyond Border" से क्या हुवा ? एंजलिना जोली को अकादमी पुरस्कार मिला, बस. कुछ इसी तरह का चित्रपट था "Once upon in April" जो युगांडा के गृहयुद्ध पर आधारीत था.
आज समाज मे कितनी असमानता है, एक तरफ दूसरों कि मेहनत पर जीने वाले मुठ्ठी भर लोग है, दूसरी ओर कडी मेहनत कर के भी पेट भर खाने को तरसने वाले लोग है ? समुद्र मे अनाज बहा देने वाला अमरीका है, भूख से तडपताअ नाइजर, चाड और युगान्डा है. आसमान से बाते करती इमारतें है, उसी के बाजु मे झुग्गी झोपडीयां है. शादी पार्टियो मे खाना बर्बाद करते हुवे इन्सान है तो कुडेदान मे कुत्तो के साथ खाना ढुंढते इन्सान है.
जब मै धुप मे रिक्शा खिंचते हुवे, एक इंसान द्वारा इसांन को ढोते हुवे, सडक किनारे या चौराहे पर भीख मांगते बच्चो को देखता हुं मन एक वितृष्णा से भर जाता है. क्या अंतर है मुझमे और इनमे ?
मेरा पूरा बचपन एक आम भारतीय गांव मे बिता था. एक आम भारतीय जिन्दगी(८०% भारतीय जनता गांवो मे रहती है) को काफी करीब से देखा है. १० वी की मेरी कक्षा मे १५० छात्र थे. आज उन १५० छात्रो मे से सिर्फ ३(जिसमे से मै एक हुं) आज इस हालत मे है कि अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा दे सके. बाकि आज भी जिने के लिये संघर्ष कर रहे है. मै एक शिक्षित परिवार से हुं, मुझे आगे बढने का मौका मिला , जिससे मेरे पास हर सुख सुविधा है. लेकिन इन लोगो तो कोइ मौका ही नही मिला ! क्या सभी कुछ भाग्य पर छोड दिया जाये ? नही, भाग्य और प्रारब्ध पर दोष देना भी तो कायरता है.
मानव मन कितना कायर है, कितना विरोधाभाषी है. ये सब देखकर एक तडप होती है. एक ओर मै सोचता हु क्या कर रहा हुं मै ? सोचता हुं कि छोड दुं ये सब कुछ ! छोड दुं अपनी नौकरी और लग जाउ उसी मिशन मे जो मदर टेरेसा ने शुरू किया था, या संदिप पांडे कर रहे है , जो राजेन्द्र सिंह , बाबा आमटे, मेधा पाटकर और अण्णा हजारे कर रहे है. अगले पल सोचता हुं क्या करना तुझे इन सब चीजों से ? तुझे किस चीज की कमी है. सब कुछ है तेरे पास ! पैसा, गाडी , बंगला और क्या चाहिये ? दुनिया गयी तेल लेने, तु अपनी सोच . रही बात 'समाजसेवा की' कुछ फालतु पैसा दान कर दे, आयकर भी बच जायेगा और यार दोस्तो मे बोल भी सकेगा कि मैने इस बार फलाँ संस्था को इतना पैसा "दान" किया है. और मै स्वार्थी हो जाता हुं.
जब सुबह नहाने के बाद मै इत्र की बोतल की ओर हाथ बढाता हुं तब मुझे याद आता है "Beyond Border" का वो दृश्य जिसमे नायक नायिका से कहता है
जब मै किसी पार्टी मे जाता हुँ, और १० लोगो के खाने के लिये १०० लोगो के खाने की सामग्री देखता हुं, तब दिल के किसी कोने मे दर्द जरूर होता है, सोमालिया, कालाहांडी और बस्तर की याद आती है. लेकिन 'तंदुरी मुर्गे' की सुगन्ध और दोस्तो कि खिलखिलाहट (जिसमे मेरी भी हंसी शामील है) मे ये दर्द पता नही कहा दब जाता है. ये दर्द फिर से उभरता जरूर है, लेकिन जब पेट भरा हुवा हो !
मेरे दोस्त और मेरे घरवाले मुझे एक जिद्दी इंसान के रूप मे जानते हैं. एक बार जो सोच लिया वो सोच लिया. पुनर्विचार का कोई प्रश्न ही नही ! चाहे ये ज़िद स्कुल के दिनो मे "राक शॉक साइकिल" लेने की हो, या प्रोजेक्ट मैनेजर से छोटी सी बहस के कारण पहली नौकरी छोड देने की हो. कभी पीछे मुडकर नही देखा. लेकिन क्या हो जाता है मेरी इस जिद्दी स्वभाव को जब मै निश्चय करता हुं कि इस वर्ष मै इस सामाजिक काम के लिये इतना समय दुंगा और जब विदेश यात्रा का मौका आता है और सारा निश्चय हवा हो जाता है. मै जब भी इस सब के बारे मे सोचता हुं, सिर्फ सोचता रहता हुं, कुछ नही कर पाता . हाँ कभी कभार भुले भटके अनाथालय के एकाध चक्कर जरूर लगा लेता हुं, या सुनामी पिडीतो के कैम्प मे सहयोगियो के साथ चला जाता हुं, किसी भिखारी को खाना खिला देता हुं. (अपराध बोध मे?). लेकिन क्या ये काफी है, एक आम भारतीय से १०-१५ गुना ज्यादा कमाने वाले नागरिक के लिये? जब मै कुछ कर नही पाता सिर्फ सोचता हुं या सिर्फ लिखता हुं, तब ये तडप क्यो होती है ? ये दिल मे चुभन क्यों होती है ? किसी अपंग या बीमार को देख कर क्यों विचलीत हो जाता हुं. सिर्फ मानवता के लिये ? लेकिन ऐसी अपाहिज मानवता किस काम की, जो कुछ कर ना सके, सिर्फ मन मे रहे, या कागजो पर उतर जाये ?
यदी अपनी सोच को को हकीकत मे ना उतार पाना कायरता है, तो यकिनन कायर हुं मै. और शायद यही फर्क है एक आम इसांन मे और एक महान इसांन मे. आम इंसान, जो सुबह उठता है, पेट की भूख शांत करने के लिये कुछ उद्योग करता है और सो जाता है! लेकिन यही तो जानवर भी करते है ! क्या अंतर है जानवर मे और आम इसांन मे ? सिर्फ इतना कि इंसान सोच सकता है ! या इतना भी नही, मैने तो जानवरो को भी वृद्ध और बीमार साथियो की रक्षा और सहायता करते देखा है, ये तो आज इंसान भी नही करते. क्या आम इंसान(मै) जानवरो से भी गया गुजरा हो गया है ?
एक नागरीक का कर्तव्य क्या होता है ? क्या सिर्फ व्यवस्था और समाज पर आक्रोश जताना? हर चीज के लिये नेताओ और सरकार को कोसना? जान एफ केनेडी ने कहा था
लेकिन क्यों लिख रहा हु मै ये ? शायद इसीलिये कि कभी भविष्य मे पीछे मुडकर देख सकुं कि कभी मै ऐसा सोचा करता था ! शायद इसीलिये की दिल की भडास निकल सके. आज घर से दुर इस परदेश मे कोई भी तो नही आसपास जिससे अपने विचार साथ बांट सकु.( और जो है उन्हे मेरे ये सोचना एक झक्की का प्रलाप के अलावा और कुछ नही लगता!) लेकिन क्या होगा उससे ?
आप देख सकते है कि इस चित्र मे गिद्ध भूख से पिडित इस बालिका के मरने का इंतजार कर रहा है ताकि वह अपनी क्षुधा शांत कर सके. चित्रपट के अन्य हिस्से नैसर्गीक तथा मानव जनित आपदाओ पर ही आधारीत है, इसमे कंबोडिया का गृहयुद्ध है, चेचेन्या का युद्ध है, और सुडान का अकाल है. जब मै इस को देखता हुं तब मुझे याद आती है, कालाहांडी की, छत्तिसगढ की,सुनामी पीड़ित तमिलनाडु, अंडमान की, भूकंप से पिडित गुजरात और लातुर की , और हाल ही मे बारिश से बर्बाद मुंबई की. दिल दहल जाता है, हृदय कांप जाता है? जिस तरह शुतुरमुर्ग अपना मुंह रेत मे छुपा लेता है, उसी तरह मै चैनल बदल लेता हुं. मुझमे सत्य को झेलने की शक्ति नही आ पाती, क्या सच्चाई से दुर भागता हुं मै? हाँ ! शायद मै सच्चाई से दुर भागता हुं !
केविन कार्टर के इस प्रख्यात (कुख्यात ?) चित्र से क्या हुवा ? क्या भूख मिट सकी ? क्या गरीबी मिटी ? नही ! कुछ हुवा तो सिर्फ यही कि आज मै केविन कार्टर को जानता हुं! कुछ हुवा तो ये कि केविन कार्टर को प्रसिद्धी मिली, पैसा मिला ! और वो अभागा बच्चा ? पता नही कहाँ गया ! शायद उसे भूख प्यास से हमेशा के लिये मुक्ती मिल गयी. "Beyond Border" से क्या हुवा ? एंजलिना जोली को अकादमी पुरस्कार मिला, बस. कुछ इसी तरह का चित्रपट था "Once upon in April" जो युगांडा के गृहयुद्ध पर आधारीत था.
आज समाज मे कितनी असमानता है, एक तरफ दूसरों कि मेहनत पर जीने वाले मुठ्ठी भर लोग है, दूसरी ओर कडी मेहनत कर के भी पेट भर खाने को तरसने वाले लोग है ? समुद्र मे अनाज बहा देने वाला अमरीका है, भूख से तडपताअ नाइजर, चाड और युगान्डा है. आसमान से बाते करती इमारतें है, उसी के बाजु मे झुग्गी झोपडीयां है. शादी पार्टियो मे खाना बर्बाद करते हुवे इन्सान है तो कुडेदान मे कुत्तो के साथ खाना ढुंढते इन्सान है.
जब मै धुप मे रिक्शा खिंचते हुवे, एक इंसान द्वारा इसांन को ढोते हुवे, सडक किनारे या चौराहे पर भीख मांगते बच्चो को देखता हुं मन एक वितृष्णा से भर जाता है. क्या अंतर है मुझमे और इनमे ?
मेरा पूरा बचपन एक आम भारतीय गांव मे बिता था. एक आम भारतीय जिन्दगी(८०% भारतीय जनता गांवो मे रहती है) को काफी करीब से देखा है. १० वी की मेरी कक्षा मे १५० छात्र थे. आज उन १५० छात्रो मे से सिर्फ ३(जिसमे से मै एक हुं) आज इस हालत मे है कि अपने बच्चो को अच्छी शिक्षा दे सके. बाकि आज भी जिने के लिये संघर्ष कर रहे है. मै एक शिक्षित परिवार से हुं, मुझे आगे बढने का मौका मिला , जिससे मेरे पास हर सुख सुविधा है. लेकिन इन लोगो तो कोइ मौका ही नही मिला ! क्या सभी कुछ भाग्य पर छोड दिया जाये ? नही, भाग्य और प्रारब्ध पर दोष देना भी तो कायरता है.
मानव मन कितना कायर है, कितना विरोधाभाषी है. ये सब देखकर एक तडप होती है. एक ओर मै सोचता हु क्या कर रहा हुं मै ? सोचता हुं कि छोड दुं ये सब कुछ ! छोड दुं अपनी नौकरी और लग जाउ उसी मिशन मे जो मदर टेरेसा ने शुरू किया था, या संदिप पांडे कर रहे है , जो राजेन्द्र सिंह , बाबा आमटे, मेधा पाटकर और अण्णा हजारे कर रहे है. अगले पल सोचता हुं क्या करना तुझे इन सब चीजों से ? तुझे किस चीज की कमी है. सब कुछ है तेरे पास ! पैसा, गाडी , बंगला और क्या चाहिये ? दुनिया गयी तेल लेने, तु अपनी सोच . रही बात 'समाजसेवा की' कुछ फालतु पैसा दान कर दे, आयकर भी बच जायेगा और यार दोस्तो मे बोल भी सकेगा कि मैने इस बार फलाँ संस्था को इतना पैसा "दान" किया है. और मै स्वार्थी हो जाता हुं.
जब सुबह नहाने के बाद मै इत्र की बोतल की ओर हाथ बढाता हुं तब मुझे याद आता है "Beyond Border" का वो दृश्य जिसमे नायक नायिका से कहता है
"तुमने इत्र लगाया है, इस रेगिस्तान मे ! भूख से मरते हुवे लोगो के बीच , तुमने इत्र लगाया है !".मेरे हाथ वही ठीठक जाते है! लेकिन क्यों ? मेरे एक के इत्र के लगाने या ना लगाने से क्या होगा ?
जब मै किसी पार्टी मे जाता हुँ, और १० लोगो के खाने के लिये १०० लोगो के खाने की सामग्री देखता हुं, तब दिल के किसी कोने मे दर्द जरूर होता है, सोमालिया, कालाहांडी और बस्तर की याद आती है. लेकिन 'तंदुरी मुर्गे' की सुगन्ध और दोस्तो कि खिलखिलाहट (जिसमे मेरी भी हंसी शामील है) मे ये दर्द पता नही कहा दब जाता है. ये दर्द फिर से उभरता जरूर है, लेकिन जब पेट भरा हुवा हो !
मेरे दोस्त और मेरे घरवाले मुझे एक जिद्दी इंसान के रूप मे जानते हैं. एक बार जो सोच लिया वो सोच लिया. पुनर्विचार का कोई प्रश्न ही नही ! चाहे ये ज़िद स्कुल के दिनो मे "राक शॉक साइकिल" लेने की हो, या प्रोजेक्ट मैनेजर से छोटी सी बहस के कारण पहली नौकरी छोड देने की हो. कभी पीछे मुडकर नही देखा. लेकिन क्या हो जाता है मेरी इस जिद्दी स्वभाव को जब मै निश्चय करता हुं कि इस वर्ष मै इस सामाजिक काम के लिये इतना समय दुंगा और जब विदेश यात्रा का मौका आता है और सारा निश्चय हवा हो जाता है. मै जब भी इस सब के बारे मे सोचता हुं, सिर्फ सोचता रहता हुं, कुछ नही कर पाता . हाँ कभी कभार भुले भटके अनाथालय के एकाध चक्कर जरूर लगा लेता हुं, या सुनामी पिडीतो के कैम्प मे सहयोगियो के साथ चला जाता हुं, किसी भिखारी को खाना खिला देता हुं. (अपराध बोध मे?). लेकिन क्या ये काफी है, एक आम भारतीय से १०-१५ गुना ज्यादा कमाने वाले नागरिक के लिये? जब मै कुछ कर नही पाता सिर्फ सोचता हुं या सिर्फ लिखता हुं, तब ये तडप क्यो होती है ? ये दिल मे चुभन क्यों होती है ? किसी अपंग या बीमार को देख कर क्यों विचलीत हो जाता हुं. सिर्फ मानवता के लिये ? लेकिन ऐसी अपाहिज मानवता किस काम की, जो कुछ कर ना सके, सिर्फ मन मे रहे, या कागजो पर उतर जाये ?
यदी अपनी सोच को को हकीकत मे ना उतार पाना कायरता है, तो यकिनन कायर हुं मै. और शायद यही फर्क है एक आम इसांन मे और एक महान इसांन मे. आम इंसान, जो सुबह उठता है, पेट की भूख शांत करने के लिये कुछ उद्योग करता है और सो जाता है! लेकिन यही तो जानवर भी करते है ! क्या अंतर है जानवर मे और आम इसांन मे ? सिर्फ इतना कि इंसान सोच सकता है ! या इतना भी नही, मैने तो जानवरो को भी वृद्ध और बीमार साथियो की रक्षा और सहायता करते देखा है, ये तो आज इंसान भी नही करते. क्या आम इंसान(मै) जानवरो से भी गया गुजरा हो गया है ?
एक नागरीक का कर्तव्य क्या होता है ? क्या सिर्फ व्यवस्था और समाज पर आक्रोश जताना? हर चीज के लिये नेताओ और सरकार को कोसना? जान एफ केनेडी ने कहा था
"ये मत पुछो कि राष्ट्र आपके लिये क्या कर सकता है, ये पुछो कि आप राष्ट्र के लिये क्या कर सकते है.(Ask not what your country can do for you; ask what you can do for your country)".मुझे यही लगता है कि आज जो ये समाज मे भूखमरी या अव्यवस्था है, उसके लिये कहीं ना कहीं मेरी भी जिम्मेदारी है. इसे दूर करने के लिये समाज या व्यवस्था को दोष के बजाए ये सोचना जरूरी है कि मै क्या कर सकता हुं. और सोचने से ज्यादा करना. युग निर्माण योजना का नारा भी है
"हम सुधरेगें, जग सुधरेगा!”
लेकिन क्यों लिख रहा हु मै ये ? शायद इसीलिये कि कभी भविष्य मे पीछे मुडकर देख सकुं कि कभी मै ऐसा सोचा करता था ! शायद इसीलिये की दिल की भडास निकल सके. आज घर से दुर इस परदेश मे कोई भी तो नही आसपास जिससे अपने विचार साथ बांट सकु.( और जो है उन्हे मेरे ये सोचना एक झक्की का प्रलाप के अलावा और कुछ नही लगता!) लेकिन क्या होगा उससे ?
6 टिप्पणियाँ
है। हम तो यही कामना करते हैं कि यह सम्वेदना बनी रहे।
केविन कार्टर को इस चित्र के लिये १९९४ क पुलित्ज्रर पुरुस्कार मिला...
चित्र लेने के बाद उसने इस स्थान को छोड दिया था और यह पता नही चल कि इस बच्ची क क्य हुआ...
करीब तीन महिने बाद केविन कार्टर ने आत्महत्या कर ली
चित्र देखकर तो वाकई अंदर तक हिल गया :(