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बदलते रिश्ते


हाल ही मे मै इंद्रजाल पर लोकमत(विदर्भ का लोकप्रिय मराठी दैनिक) पढ रहा था। एक समाचार पर अनायास नजर गयी। समाचार यो तो आपराधिक था जो मै सामान्यातः नही पढता लेकिन मेरे गांव के पडोस से संबधीत था। सोचा पढ लिया जाये। समाचार था “एक भाई के परिवार द्वारा दुसरे भाई के परिवार पर कातिलाना हमला!
जब मैने समाचार पढा , मै हैरान रह गया। मै इस परिवार को अच्छी तरह से जानता हुं। मैने सपने मे भी नही सोचा था कि इस परिवार मे ऐसा हो सकता है। लेकिन सत्य मेरे सामने था।

मै यादो मे खो गया। यह परिवार था मेरे हाई स्कुल के हिन्दी शिक्षक का। वे मेरे पापा के ही स्कुल मे कार्यरत थे। वह स्कुल एक गांव मे ही स्थित था, गांव की परंपरा कहें या भारतीय परंपरा पूरा स्कुल भी एक परिवार था, जिससे हम लोगो के भी उनसे पारिवारिक रिश्ते बन गये थे। दोनो परिवारो के बीच आना जाना लगा रहता था।
ऐसे तो वे जमींदार घराने से थे, जमींदारी चली गयी थी लेकिन जंमीदारी ठाट कायम थे। उनका घर एक पूरानी हवेली था, जो जिर्ण शीर्ण हालत मे थी। उसकी दिवारो पर जगह जगह शिकार किये पशुऒ के सर और खाल लटकती रहती थी। उसके साथ ही दिवारो पर तलवारे, भाले और बंदुके भी शान से सजायी हुयी थी। रस्सी जल गयी थी लेकिन ऐंठ नही गयी थी।

मेरे हिन्दी शिक्षक और उनसे छोटे भाई दोनो शिक्षक थे। अच्छा खासा बडा परिवार था। बडे भाई के ७ लड़कियाँ और दो लडके तथा छोटे भाई के ५ लडके थे। पूराने जमींदार थे, परिवार नियोजन के विरोधी !
दोनो भाईयो के बीच मे जो समझ और भाईचारा थी ,वह एक मिसाल था। दोनो हर काम एक दुसरे से पूछ कर ही करते थे। सुबह साथ मे स्कुल आते और साथ मे जाते थे। रविवार को भी यदि कहीं जाना हो तो भी ज्यादातर साथ मे जाते थे। यदि एक भाई कहीं दिख गया तो दुसरे को पूछने की जरूरत नही वो कही आसपास ही होगा।

जब उन मेसे एक भी मेरे घर आता तब भी पापा दोनो के लिये नाश्ता चाय बनवाते थे क्योंकि कुछ ही देर मे दूसरा पहुंच जाता था। दोनो भाई एक सामान्य हिन्दी शिक्षक की तरह काफी बातुनी थे। जब भी वह किसी भी विषय पर बोलना शुरू करेंगे, पूरे अंलकार, मुहावरे, दोहे का उद्धरण देते हुये कहेंगे। किसी के पास कितना भी जरूरी काम हो, वह सब कुछ भुल कर उन की बाते सुनता था। मेरे पापा एक अपवाद थे, उनके पास बचने का एक तरीका था, वे मम्मी को उनसे बात करने लगा कर खुद खिसक लेते थे। एसे भी एक गणित शिक्षक और हिन्दी शिक्षक मे बाते करने के लिये विषय कम होते है !

यो तो दोनो भाईयो का परिवार साथ मे एक छत के निचे रहता था, लेकिन खाना अलग अलग पकता था। देवरानी और जेठानी के मनमुटाव के कारण। लेकिन दोनो भाई जब खाना खायेंगे साथ मे ही। जहां खाना पहले पक गया वहां पर। ऐसा दोनो परिवारो के बच्चो मे भी था। चुल्हे भले ही दो थे,लेकिन दिल एक ही था। किसी भी भाई ने कभी कोई भी चिज खरीदी तो कभी एक परिवार के लिये नही खरीदी, हमेशा दोनो परिवार के लिये खरीदी। बच्चो की पढायी लिखाई के लिये भी वही पैमाना, कोई भेदभाव नही, जिसके पास पैसा हो वो दे देगा, कोई हिसाब किताब नही। कुल मिलाकर एक आदर्श परिवार था।

जब मै आखरी बार उनसे मिला तब दोनो भाई सेवानिवृत हो चुके थे। मैने उनसे काफी देर तक बाते की। दोनो मे वही पूरानी जिन्दादिली थी, वही अलंकारीत भाषा। लेकिन मैने उन भाईयो मे थोडी तल्खी भी पायी लेकिन एक दुसरे से नही शासन व्यवस्था से और समाज से। उनका कहना था, सारी जिन्दगी अध्यापन करने के बाद अचानक कोई व्यक्ति एक ही दिन मे कार्य से मुक्त हो कर आधे वेतन मे कैसे गुजारा कर सकता है। मै उन की स्थिती जानता था, परिवार अब काफी बडा हो गया था। आधी जमींदारी शान लडकियो की शादी मे जा चुकी थी , लेकिन कुछ लडकियां अभी भी बिनब्याही बची थी। कुछ बेटो की शादी हो चुकी थी और बच्चो वाले थे। लेकिन आय उस अनुपात मे नही बढी थी। नयी पिढी मे २-३ बेटो नौकरी कर रहे थे, लेकिन अपनी जिन्दगी मे मस्त। घर का जिम्मा दोनो बुढो पर था।

जब मैने इस परिवार मे “एक भाई के परिवार द्वारा दुसरे भाई के परिवार पर कातिलाना हमला! “ की खबर पढी तो सन्न रह गया। मेरी समझ मे नही आया ये क्या हो गया। खैर मैने मामले की तहकिकात करने की सोची।

भाई को फोन किया और जब उसे सब कुछ बताया तो वो भी चकित ! मम्मी ने मानने से ईंकार कर दिया। भाई ने कहा मै उनके घर जाकर देखता हुं क्या मामला है ?

दूसरे दिन भाई ने फोन पर बताया कि ये दोनो भाईयो के बिच का संघर्ष नही है, पीढ़ियों का संघर्ष है। जब दोनो भाई सेवानिवृत्त हो गये और घर का खर्च चलाना मुश्किल हो गया था, तब दोनो भाईयो ने साथ बैठकर अगली पीढ़ी पर जिम्मेदारी सौपने का निर्णय लिया था। लेकिन अगली पीढ़ी ने मानने से मना कर दिया। चचेरे भाइयों मे मनमुटाव हुआ और संघर्ष हुआ था। दोनो भाई असहाय से देखते रहे थे। और उस गैर जिम्मेदार पत्रकार ने खबर मे सनसनी डालने के चक्कर मे निरपराध और असहाय बुढे शिक्षको को भी लपेट दिया था!

लेकिन सवाल अपनी जगह कायम है । जब दो भाई पूरी जिन्दगी बिना किसी परेशानी के साथ रह सकते है, दो अच्छे खासे बडे परिवारो का भरन पोषण कर सकते है, अच्छी शिक्षा दे सकते है, नयी उच्च शिक्षीत पीढ़ी क्यो नही कर सकती ?

क्या अब खून के रिश्तों का मुल्य नही रहा ?
क्या आम जीवन से भारतिय जिवन मुल्यो का ह्रास हो चुका है ?

1 टिप्पणी » 
1. इस्वामी उवाच :
दिसम्बर 8, 2005 at 5:28 am ·
मुझे लगता है की रिश्ते निभते हैं रिश्तों के सम्मान का भाव या उन को लेकर किसी भावनात्मक जुडाव के होने पर। अगर भाई या चचेरे भाई उस सम्मान के भाव को खो चुके हैं या भावनाएँ नही रहीं तो क्या सत्तु-सप्रेटा और क्या अंबानी-बिरला-टाटा कोई भी नही निभाता यार और निभाने वाले मूह बोले रिश्ते निभा रहे हैं। फिर ये आज की बात नही है इस मेलोड्रामे पर तो रामायण और महाभारत टिकी है - आज भी घर घर खेली जा रही है!

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1 टिप्पणियाँ

shravan ने कहा…
इस बारे मेँ हम अपनी सोच, बदल लेँ तो सब कुछ बदला जा सकता है