बहुत पुरानी बात है, जब हम प्राथमिक स्कूल के छात्र थे। हमारा एक सहपाठी था मुन्नाभाई!
मुन्नाभाई हमारी कक्षा का नेता था, मतलब कि कक्षा कप्तान था। स्कूल के उसके दैनिक कार्यो मे होता था, सुबह सबसे पहले पहुंच कर दरीयों पर कब्जा करना। जी हां आपने सही पढा दरीयों पर कब्जा करना। हमारे स्कूल मे डेस्क बेंच नाम की वस्तुएँ नही हुआ करती थी। १०-१२ फुट लंबी और एक फुट चौडी दरीयां, दरीयां छात्रों की संख्या के हिसाब से उसी तरह कम हुआ करती थी, जिस तरह आई आई टी और आई आई एम की सीटें कम होती है। मुन्नाभाई एक साधारण परिवार से ही था, लेकिन उसके पिताजी सरकारी सेवा मे थे। उसके पास कोई और काम नही होता था,सो स्कूल सबसे पहले पहुँचता था। बाकी जनता का तो ऐसा था पालतू जानवरो को नहला धुला कर, चारा देकर, खेती के मौसम मे खेतो मे कुछ देर काम करने के बाद स्कूल आने का मौका मिल पाता था। जब तक वे पहुंचते ,स्कूल मे दरीयो पर मुन्नाभाई और मित्र मंडली का कब्जा होता था।
नेतागिरी
इसके पश्चात शुरू होती थी उसकी नेतागिरी। हर किसी से कुछ ना कुछ लेने के बाद वह दरीयो मे कुछ हिस्सा आंवटीत कर देता था।अब इस कुछ ना कुछ मे किसी से अमरूद लाने का वादा, किसी से आम का, किसी से मोरपंख लेना, किसी से गृहकार्य करवाना वगैरह वगैरह.. । कुल मिला कर ऐश होती मुन्नाभाई की इस नेतागिरी की वजह से। भारत सरकार की तरह उसने भी दरियो के आंवटन मे एक कोटा निर्धारित किया हुआ था, एक दरी पर वह और उसकी मित्रमडलीं बैठती थी। यह मुन्नाभाई का ऐस वोट बैंक था जो कभी उससे विमुख नही हो सकता था। जिस तरह बिहार और उत्तरप्रदेश मे आपको सत्ता मे रहने के लिये डी पी यादव, मुख्तार अंसारी, शहाबुद्दीन जैसे लोग चाहिये होते है वैसे ही उसने एक दरी दादा किस्म के लडको के लिये आरक्षित रखी थी। लेकिन वह भारत सरकार से एक मामले मे बेहतर था, उसने कुल लडकियो मे से ३३% को आरक्षण दे रखा था, एक दरी लडकियो के उस समुह के लिये आरक्षित होती थी, जिसमे उसकी वो होती थी। बाकी बचती थी एक दरी और बाकी दरीयो पर बची रिक्त जगह जिसके लिये उसी तरह मारामारी होती थी , जिस तरह से अनारक्षित सीटो लिये होती है। मुन्नाभाई का कोई विरोध इसलिये नही करता था क्योंकि वह कक्षा का कप्तान भी हुआ करता था। अपने वोट बैंक (लडकीया और दादाओ) के बदौलत वह हर साल कप्तान चुना जाता था। कुल मिलाकर इस तरह से कोटा और दादागिरी के भरोसे मुन्नाभाई की नेतागिरी चल रही थी।
मुन्नाभाई की तरह से हम स्कूल पहुंचने वालो मे सबसे पहले हुआ करते थे, लेकिन हमे बैठने के लिये मुन्नाभाई जी की मेहरबानीयो पर रहना होता था। वह मुझे ईमानदारी से जगह दे देता था क्योंकि मै उसे परीक्षा मे नकल जो करवाता था। अब हम सौरभ गांगूली तो थे नही कि ग्रेग चैपल से पंगा लेकर टीम से लतिया दिये जाये। अब ऐसा था कि जमिन पर बैठने की बजाये उसकी दादागिरी सहन करो और टीम मे बने रहो, मेरा मतलब है कि दरी पर बैठो।
राजनीति
अब हम कक्षा १ से १० तक साथ मे पढे। कक्षा ११ से हम दोनो ने अलग अलग स्कूल मे जाना शुरू किया। पढाई लिखायी तो वो ऐसे भी नही करते थे। उसके पिताजी भी उम्मीद छोड चुके थे। लेकिन मैने नही छोडी थी,मुझे मालूम था कि ये बहुत आगे जायेगा। ये कलयुग है, कलयुग मे आगे बढने के लिये जिन गुणो की जरूरत होती है,वह सभी गुण मुन्नाभाई मे हैं। हर किसी से अपने मतलब का काम निकालना उसे अच्छे से आता था। जिस तरीके से अमरीका ने दूसरे के पैसो पर अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत कर रखी है उसी तरह मुन्नाभाई भी इसकी टोपी उसके सर कर ऐश कर रहा था।
इन्ही दिनो ग्रामपंचायत के चुनाव हुये। जिस तरह कांशीराम ने मायावती को राजनिती मे ले आये थे, उसी तरह तत्कालीन सरपंच ने मुन्नाभाई को भी राजनिती मे खिंच लिया। लेकिन मुन्नाभाई की उम्र चुनाव लढने की नही हुयी थी, उन्होने अपनी माताश्री को चुनाव मे खडा कर दिया। अब भारत मे कोई भी काम हो चाहे चुनाव हो या आई आई एम मे प्रवेश, जाति बताये बिना कार्य थोडे ही होता है ? आपकी योग्यता गयी तेल लेने, सबसे महत्वपूर्ण है आपकी जाति। मुन्नाभाई दलित तो नही लेकिन ओ बी सी जरूर था। विरोधी उम्मीदवार एक सेवानिवृत्त शिक्षक थे, जिसने अपनी सारी जिन्दगी गांव से बुराईयों को दूर करने मे लगायी(बरबाद की) थी। कोई बीमार हो,किसी का स्कूल /कालेज मे प्रवेश हो, कोर्ट कचहरी का काम हो, कोई नयी शासकीय योजना हो, सभी दौडे जाते उनके पास। वे भी बिना किसी स्वार्थ के लोगो का काम करते थे। गांव की शराब की दूकान उन्होने बंद करवाना, झाडफुंक वाले ओझा को गांव से भगाने जैसे समाजिक काम उन्होने किये थे। परंतु उनने ब्राम्हण जाति मे पैदा होने का जुर्म भी किया था। उन्हे विश्वास था कि सारी जिन्दगी के सद्कर्मो का फल उन्हे मिलेगा। वे भी निश्चिंत थे और हम भी। लेकिन चुनाव के एक दिन पहले, मुन्नाभाईजी को अपनी जाति याद आ गयी। रात मे शराब की पेटी भी आ गयी। मास्टर जी हार गये। और मुन्नाभाई ने राजनिती का पहला पाठ पढ लिया ।
नेता
अब मुन्नाभाई अपने विकास मार्ग पर अग्रसर था। गांव मे होने वाले हर विकास कार्य मे वह सहकारी होने लगा था। गांव के विकास कम उसका विकास ज्यादा हो रहा था।
मुन्नाभाईजी बारहवीं मे नकल करते हुये पकड़े गये। अब हुआ ऐसा कि दसवी मे तो मेज़ पर चाकु गडा हुआ था, तो किसी की हिम्मत नही हुयी थी , उसे नकल से रोकने की। एक शिक्षक ने हिम्मत कर कहा भी
“भाई सबके सामने नकल तो मत करो ?”मुन्नाभाई गुर्राये
“ए मास्टर, गांव मे रहना है कि नही ?”लेकिन इस बार परीक्षा बोर्ड का उडन दस्ता आया था, पुलिस बंदोबस्त के साथ। मुन्नाभाई जी २ साल परीक्षा देने से वंचित कर दिये गये। इसके साथ मुन्नाभाई नेता बन गये।
मैने गांव छोड़ दिया था, अपनी अभियांत्रीकी के लिये, मुन्नाभाई से कभी कभार मिलना होता रहता था। वह कभी कभार कहता भी था,
“रास्ते पर एक पत्थर भी फेंको तो किसी कुत्ते की जगह इंजीनियर को लगेगा”।हम मुस्करा देते थे। वो अपनी राजनीति और पहुंच की बाते करते थे। कोई भी मोर्चा हो या आंदोलन अपने चमचो को लेकर बिना टिकट यात्रा करते, वो भी आरक्षित डिब्बे मे। भाई नेता जो ठहरे, उनका तो आरक्षण जन्मसिद्ध अधिकार है, हर जगह। कभी हम कहते भी
“भाई, गांव के विकास के लिये भी कुछ कर ले यार, कितनी समस्या है गांव मे”वह कहता
“अबे गांव के लोग विकास कर लेंगे तो मुझे वोट कौन देगा ? मुझे पहले अपना विकास करना है, विधायक बनना है, बाद मे सांसद बनना है……”
“यार ऐसे मे तुझे अगली बार वोट कौन देगा ?”
“वही जिसने पिछली बार दिया था, देख गांव मे मेरी जाति के लोग ज्यादा है। ऐसे भी मतदान के एक दिन पहले दारू की पेटी खोल दो। दो घुंट लगाने के बाद सब लाइन पर आ जाते है।”
वही हुआ अगले चुनाव मे मुन्नाभाई गांव का सरपंच बन गया। एक और खबर मिली की उसने बी एस सी और बी एड(शिक्षा स्नातक) भी कर ली है। कैसे नही मालूम। किसी ने उसे किसी भी कॉलेज जाते नही देखा। एक स्कूल खोल दिया है,जिसके संचालक वही हैं।.
कैसा रहा सफर ? नेतागिरी,राजनीति से नेता तक का ? टिप्पणी देना ना भुलें !
ताज़ा खबर यह है कि अपने मुन्नाभाई इस बार ग्रामपंचायत चुनाव हार गये हैं! लेकिन हमे इसका कोई फायदा नजर नही आरहा है। अर्जुन सिंह भी तो पिछले दो चुनाव हार चुके है , लेकिन केंद्र सरकार मे मानव संसाधन मंत्री है।
इस हार के बावजूद हमारा पूरा विश्वास है कि एक ना एक दिन नेता मुन्नाभाई अपनी नेतागिरी और राजनीति की बदौलत काफी उपर जायेगा। सुनील पाल उवाच
“इस देश का हाल ऐसा है कि जो चुनाव जितता है वो एम पी बनता है और जो हारता है वो देश का पी एम बन जाता है”………………………………………………………………………………………
नोट :इस लेख के सभी पात्र वास्तविक है, सिर्फ नाम बदल दिये गये है।
4 टिप्पणीयां “अनुगूँज 20: नेतागिरी, राजनीति और नेता” पर
आशीष भाई आपने जो लिखा है, शब्दशः सच है। देश को ऐसे हजारों मुन्नाभाई खा रहे हैं। हर गॉव, हर नेता की लगभग यही कहानी है। जो सब जगह से लतियाये गये वो आज नेता हैं और देश का भाग्यनिर्धारण कर रहे हैं।
e-shadow द्वारा दिनांक जून 2nd, 2006
आशीष बहुत सही वास्तविक बातें लिखी हैं हों भी क्यों नही आखिर वास्तविक पात्रों के जो बारे में है। और सही मायने में विषय के छुपे अर्थ को बहुत अच्छे ढंग से व्यक्त किया है। तीनों बातें एक ही वक्त में आपस में अलग होकर भी एक-दूसरे से जुड़ी हैं। सबसे पहले लिखने की बधाई भी स्वीकार करें।
Tarun द्वारा दिनांक जून 2nd, 2006
पुरातन काल में जब वाल्मिकिजी ने मरा मरा का जाप किया तो रामजी सचमुच सहाय हो गये..
आज कल के सद्पुरूष ताने खा खा कर नेता बन जाते है
nitin द्वारा दिनांक जून 2nd, 2006
मेरे भी हाल ही में एक ऐसे ही महानिभाव से परिचय हुआ था। दरअसल राजनीति, और ऐसी कितनी ही बातें हमें पढ़ाई नहीं जातीं। अगर पढ़ाई जाएं, तो फिर कुछ हो सकता है।
रजनीश मंगला द्वारा दिनांक जून 5th, 2006
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