चेन्नई मे कार्य करते हुये एक वर्ष बीत चुका था । एक ही कार्य की नीरसता से मन उब गया था । किसी परिवर्तन की आवश्यकता महसुस हो रही थी । ऐसे मे प्रदीप ने एक शाम खाने के समय कहा चलो कन्याकुमारी चलते हैं । अंधा क्या चाहे , दो आँखें । बिना सोचे विचारे कह दिया, चलो चलते है । अगले दिन आँफिस आ कर सहकर्मीयों से बात की। तब एक और महाशय श्रीनिवास भी तैयार हो गये । आनन फानन कार्यक्रम बना । चल दिये हम तीनों सुदूर भारत के दक्षिण मे ‘’कन्याकुमारी'’ ।
हमारा ‘’चेन्नई कन्याकुमारी'’ एक्सप्रेस से आरक्षण था । जो चेन्नई से शाम 5:15 बजे चल कर दूसरे दिन सुबह 8:00 बजे कन्याकुमारी पहुंचती है । रेल नीयत समय पर चेन्नई से रवाना हुई । हमारे डिब्बे मे अधिकतर लोग दक्षिण भारतीय थे , जो अपने अपने कार्यो से मदुरै या किसी और जगह जा रहे थे । पर्यटन की दृष्टि से यात्रा करने वाले सिर्फ हम तीनों थे । चेन्नई से बाहर निकलते ही मन काफी हल्का हो गया । दैनिक जीवन का सारा मानसिक बोझ शहर मे ही छूट गया ऐसा महसूस हो रहा था । हम तीनों काफी देर तक बच्चो की तरह खिड़की के बाहर देखते रहे , और बाते करते रहे । रात्री के 10:00 बजे के आसपास हम लोगो ने भोजन किया और सो गये ।
सुबह 6:00 बजे प्रदीप ने मुझे यह कहते हुये जगाया ‘’भाई साहब , सपने देखना बंद करो और बाहर के नज़ारे देखो'’ । मैने भुनभुनाते हुये आँखें खोलकर बाहर देखा और देखता ही रह गया । रेल उस वक्त पहाड़ों के किनारे किनारे धान के खेतो के बीच से ग़ुज़र रही थी । जिधर नजर उठावो उधर धान के खेत और नारियल के उंचे उंचे पेड नजर आ रहे थे । पृष्ठ-भाग मे पहाड़ों की चोटियों पर अठखेलियां करते बादल हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों सा नज़ारा पेश कर रहे थे । कुदरत ने अपनी खूबसूरती यहां दिल खोल के बाटीं है । थोडा आगे चलने पर रेल मार्ग के दोनो ओर पवन चक्कीयों की कतारे दिखाई देने लगी । पहाड की तलहटी मे धान के खेत और, दोनो ओर से पवन चक्कीयों की कतारो के बीच से होते हुये हमारी रेल गुजर रही थी । कन्याकुमारी के पहले एक स्टेशन है ‘’नागर कोइल′’,इस स्टेशन पर हमारी रेल पुरी खाली हो चुकी थी । हमारे डिब्बे मे हम तीनों ही बचे थे ।
जब हम कन्याकुमारी पहुचें तब हम लोग आश्चर्य मे पड गये । हमे लगा था कि स्टेशन पर उतरते ही हमे कुली , टैक्सी वाले घेर लेगें ज़ैसा कि अन्य पर्यटन स्थलों पर होता आया है। स्टेशन पर चाय , काफी और नाश्ते की आवाज लगाते दुकानदार होंगे । आशा के विपरीत कन्याकुमारी का रेलवे स्टेशन उजाड और वीरान सा था । स्टेशन पर सिर्फ दो प्लेटफॉर्म और एक चाय पान की दुकान थी । हमे सबसे पहले ठहरने के लिये एक होटल या धर्मशाला की तलाश थी । रेलवे स्टेशन पर ही विवेकानंद स्मारक का कार्यालय बना हुवा है जहां से विवेकानंद स्मारक आश्रम मे कमरे किराये से लिये जा सकते है । उस वक्त वो भी बंद पडा हुवा था पुछने पर पता चला कि आज कल वो बंद ही रहता है ।
रेलवे स्टेशन से बाहर आकर हमने विवेकानंद स्मारक आश्रम के लिये आटो किया । ये आटोवाले कन्याकुमारी मे कही भी 20 रू मे पहुंचा देते है । रास्ते मे आटोवाले ने हमसे पूछा कि हम विवेकानंद स्मारक आश्रम ठहरने जा रहे है या देखने । जब हमने उसे कहा कि हम वहां ठहरने जा रहे है तब उसने हमे सलाह दी कि विवेकानंद स्मारक आश्रम मे ठहरने की बजाय हम त्रिवेणी संगम के पास किसी होटल मे ठहरे जिससे सूर्योदय और सूर्यास्त का मनोहारी दृश्य देखने मे आसानी होगी । हमने उसकी बात मानते हुवे त्रिवेणी संगम के पास ठहरने का निश्चय किया । आटोवाला हमे एक सस्ते और अच्छे होटल मे छोड़ गया। होटल मे नहा धोकर तैयार होने के बाद हम कन्याकुमारी घूमने निकले ।
कन्याकुमारी एक काफी छोटा सा कस्बा है । कन्याकुमारी मे सारे दर्शनीय स्थल 500 वर्ग मी मे ही है। देवी कुमारी का मंदिर ग़ांधी स्मारक विवेकान्द शिला और ॠषी थिरूवल्लुवर प्रतिमा एक दुसरे से सटे हुवे है ।सिर्फ विवेकानंद स्मारक आश्रम ही थोड़ी दूरी 1 की मी पर स्थित है। हमने देवी कुमारी के मंदिर से शुरूवात की। दक्षिण भारतीय मंदिरो की तरह यहां दर्शन के लिये बदन पर आप अगंवस्त्र या अंगोछा पहन कर ही जा सकते है । मंदिर के पुजारी ने बताया कि कुछ वर्षो पहले तक पुरूषो के लिये धोती या लुंगी तथा अगंवस्त्र और महिलाओ को साड़ी ही पहन कर दर्शन की ही अनुमती थी । अब पुरूषो को पतलुन की छुट मिल गयी है लेकीन बदन उघाडा या अगंवस्त्र से ढंका चाहिये । महिलाओ को साडी या सलवार की अनुमति है। जब हम मदिंर के अंदर पहुचे देवी का स्नान चल रहा था । देवी स्नान के लिये चंदन चुरा, जल और भी काफी सारी चीजों का उपयोग किया जाता है । गर्भगृह मे शहनाई तथा पखावज का वादन हो रहा था । मै खुद को 12 वी सदी मे महसुस कर रहा था । यह मंदिर ज्यादातर दक्षिण भारतीय मंदिरो की तरह चार प्रवेशद्वारों से सुसज्जीत है । पुजारी ने बताया की पूर्व का दवार अब बंद ही रहता है क्योकि समुद्र के नाविक देवी के नाक की हीरे की नथ की चमक से दिशा भ्रमीत हो जाते थे । यह मंदिर काफी पुराना और खूबसूरत है । मंदिर दर्शन के लिये सबसे उपयुक्त समय 11:00 सुबह का है इस समय देवी की आरती होती है । आरती मे दक्षिण भारतीय वादय यन्त्रो का उपयोग होता है। मन तथा वातावरण भक्ती के रस से सराबोर हो जाता है। मेरे जैसा नास्तिक इस गीत ,संगीत, आरती के आल्हादक वातावरण से प्रभावित हुये बिना नही रह सका ।
देवी दर्शन के बाद हमने शुछिन्द्र मंदिर जाने का विचार किया। यह मंदिर करीब 1300 साल पुराना है । इसे चोल राजाओ ने बनवाया था। मंदिर कन्याकुमारी से 18 कि मी की दुरी पर है। यहां आप बस या टैक्सी से जा सकते है । हम लोगो ने एक टैक्सी तय कर ली । मदिर का मार्ग हरियाली से भरपुर और रमणीक है । हमारा टैक्सी चालक काफी बातुनी था । वो रास्ते मे पडनेवाली हर चीज के बारे मे बताते जा रहा था । हम लोग 20 मी मे मंदिर पहुच गये। टैक्सी चालक ने हमे चप्पलें और कमीज टैक्सी मे ही छोड देने कहा । जैसे ही हम मंदिर परिसर के अंदर पहुचे एक गाइड हमारे साथ लग गया । वो हमे मार्ग दिखाते हुवे हर मूर्ति के बारे मे बताने लगा । मंदिर परिसर काफी विशाल है । सबसे पहले हम हनुमान जी की 80 फीट उचीं एक ही पत्त्थर मे तराशी मुर्ती के पास पहुचे । इस मुर्ती पर पान की माला और मख्खन चढाया जाता है । कहा जाता है हनुमान जी ने लकां दहन के बाद यहीं पर अपनी पुंछ की आग बुझायी थी । हम लोगो ने भी मुर्ती पर पान की माला और मख्खन चढाया । पश्चात हम लोग अंदर पहुचे । गाइड हमे मदिर के अंदर घुमाता हुवा हर मूर्ति के बारे मे बताता जा रहा था । यहा एक ही पत्त्थर मे तराशी हुइ नदीं, ग़णेश, क़ार्तीकेय की विशालकाय मूर्तिया है । इन मूर्तियों को देख कर आश्चर्य होता है कि उस काल मे जब तकनीक इतनी विकसित नही थी यह निर्माण किस तरह से कीया गया होगा । हम लो चोल राज की एक मूर्ति के पास पहुंचे देख कर विश्मय मे पड गये ।यह मूर्ति भी एक ही पत्त्थर मे तराशी हुइ है क़ितुं इसमे चोल राजा, रानी, दो दरबान तथा पूरा मडंप संम्मीलीत है । हम शिव मंदिर पहुचे । शिव लिंग के दर्शन किये । यह मदिर सुबह 6:00 से 11:00 तक तथा शाम 4:00 से 6:00 बजे तक ही खुला रहता है । इस मन्दिर परिसर के खम्बो को बजाने पर संगीतमय ध्वनीयां निकलती है । गाइड ने हमे इन खम्बो पर जलतरंग तथा सरगम बजा कर आर्श्चयचकीत कर दिया । गाइड हमे मंदिर परीसर से बाहर ले आया। हमने गाइड को उसका पारिश्रमीक दिया और चल दिये अपने अगले पड़ाव की ओर ।
टैक्सी चालक हमे वापस कन्याकुमारी की ओर ले चला । मार्ग मे उसने एक पहाडी के निचे टैक्सी खडी कर हमे बताया कि यह संजीवनी पर्वत है, उपर एक शिव मंदिर है । यहां पर बाहर यहां काफी कम लोग आते है। हम लोग चल दिये शिव मदिर की ओर । लगभग 500 सीढीया चढने के बाद हम मंदिर तक पहुच गये । यह मंदिर एक प्राकृतिक गुफा मंदिर है । गुफा के अंदर एक शिव लींग है । शिव लींग के दर्शन कर बाहर निकलने पर सामने उचांई से कन्याकुमारी का मनमोहक नजारा दिखाई दिया ।
इसके बाद हमारा अगला पडाव था विवेकानंद आश्रम।यह आश्रम अब उजाड सा है। आश्रम मे एक विश्रामगृह और प्रदर्शनालय है। प्रदर्शनी मे स्वामी विवेकानंद की कुछ वस्तुये रखी हुयी है। यहां पर विवेकानंद साहित्य भी बिक्री के लिये उपलब्ध है। मन आश्रम की हालत को देख कर निराश हो गया था।
वापिस कन्याकुमारी पहुंचने पर हमारे पास देवी कुमारी मंदिर के आसपास के दो तीन स्थल बचे हुये थे। सबसे पहले गांधी स्मारक पहुंचे। महात्मा गांधी की अस्थियां सागर मे विसर्जन से पहले यहां रखी गयी थी। उस जगह एक चबुतरा बना हुआ है। यह मंदिर का निर्माण कुछ इस तरह से किया गया है कि यह मण्दिर मस्जिद और चर्च सभी का आभास देता है। दो अक्तुबर को दोपहर मे ठीक बारह बजे मंदिर के छत पर बनाये गये एक सूराख से चबुतरे पर सूर्य किरणे पडती है।
अब बारी थी विवेकानंद शीला और थिरूवल्लुवर प्रतिमा की। यहां जाने के लिये आपको नाव से जाना होता है। ये नाव आपको हर २० मिनट मे मिल जायेगी। नाव पहले विवेकानंद स्मारक और उसके बाद थिरूवल्लुवर प्रतिमा जाती है।
विवेकानंद शीला एक काफी बडी सी चट्टान है। इस पर एक देवी कुमारी का मण्दिर और विवेकानंद स्मारक है। इस जगह पहुंचने के बाद सबसे पहले हमने एक कक्षा मे शामिल हुये,। यहां इस स्मारक के बारे मे जानकारी दी जाती है। कक्षा के बाद देवी कुमारी पहुंचे। मण्दिर मे देवी कुमारी के एक पांव का निशान है। कहा जाता है कि देवी कुमारी ने शिव की पति के रूप मे प्राप्ति के लिये यंहा एक पांव पर तपस्या की थी। स्वामी विवेकांनन्द ने जहां पर तीन दिनो के लिये समाधी ली थी, वहां पर एक बड़ा सा कमरा है, लोग वहां पर जाकर कुछ देर तक मौन धारण कर साधना या प्रार्थना करते है। यहां पर से भी आप विवेकानन्द साहित्य खरीद सकते है।
अगला पडाव थिरूवल्लुवर प्रतिमा थी, यह प्रसीद्ध तमिळ कवी की प्रतिमा है । तमिळ्नाडु मे उन्हे वाल्मिकी के बराबर दर्जा दिया जाता है। यह प्रतिमा विशालकाय है। प्रतिमा के अंदर कुछ उंचाई तक चढकर जाया जा सकता है। यंहा हवा इतनी तेज चलती है कि खुद को सम्हालना मुश्किल हो जाता है।
हमारा कन्याकुमारी भ्रमण पूरा हो चुका था, अब इंतजार था शाम का, जब अरब सागर मे डूबते सुरज का मनोहारी दृश्य देखना था। हमारी किस्मत खराब थी। बाद्ल नही छाये थे, सुरज उत्तरायण मे था। सुरज सागर मे डुबते दिखायी देने की बजाये पहाड़ियों के पीछे छुप रहा था ।
कन्याकुमारी की यात्रा पूरी करने के बाद हम चल दिये त्रिवेन्द्रम। यह अगले यात्रा वृतांत मे।
4 टिप्पणीयां “सुदूर भारत के दक्षिण मे ‘’कन्याकुमारी'’” पर
वाह! आशीष,
बहुत खुब वर्णन किया है, और फ़िर छायाचित्रों के साथ तो यह प्रविष्टी परिपूर्ण ही हो गई है.
वाकई, बहुत अच्छा लिखे हो, बस, मात्राओं की तरफ़ थोड़ा और ध्यान दे देने की आवश्यकता लग रही है.
विजय वडनेरे द्वारा दिनांक जून 7th, 2006
बहुत खूब । बढ़िया लिखा।हमारे पास तो कन्याकुमारी तथा त्रिवेन्द्रम की काली-सफेद फोटो हैं। तुम्हारे फोटो से काम चलाते हुये अपना यात्रा विवरण लिखा जायेगा।
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक जून 7th, 2006
आशीष भाई, बहुत सुंदर लिखा है आपने। ऐसा लगा कि मै पिछले बीस मिनट तक कन्याकुमारी में विचरता रहा। धन्यवाद।
e-shadow द्वारा दिनांक जून 8th, 2006
सुन्दर
उन्मुक्त द्वारा दिनांक जून 8th, 2006
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