जब बात छेड( सुनील जी, इस्वामी जी, जितु जी, अतुल जी……)दी गयी है तो हम भी आ जाते है मैदान मे।
मै हिन्दी क्यों लिखता हुं ?
ये प्रश्न ही गलत है ! जबकि होना ये चाहिये मैं हिन्दी क्यों ना लिखुं ?
मेरा दिमाग ही हिन्दी मे चलता है। अंग्रेजी तो उसी वक्त याद आती है, जब सुनने वाले को हिन्दी ना आती हो। मेरे रगो मे हिन्दी रची बसी है। हिन्दी माध्यम से पढा हुं। बचपन से लेकर अब तक हिन्दी सुनी है, देखी है।
मैं हिन्दी मे लिखता हुं, पढ़ता हुं, बात करता हुं क्योंकि मुझे अच्छा लगता है। मुझे लगता है कि मै अपनी जडो से जुडा हुवा हुं ! मै अपनी मिट्टी के पास हुं।
भाषा किस लिये होती है ? लोगो से संपर्क के लिये, विचारों के आदान प्रदान के लिये ? जब वो मैं हिन्दी मे कर सकता हुं, तब मैं किसी और भाषा का प्रयोग क्यो करूँ ? किसी और भाषा का प्रयोग करना आपकी व्यावसायिक मजबूरी हो तो समझ मे आता है लेकिन बाकी निजी कार्यो मे ?
दक्षिण भारत विशेषतया तमिलनाडु हिन्दी विरोध के लिये जाना जाता है। मैं चेन्नई मे २ साल रहा, लेकिन मुझे हिन्दी को लेकर कभी कोई परेशानी नही गयी ! होटल, आटो, रिक्शा यहां तक कि सब्जी वाला, दुधवाला, किराणावाला सभी से मैं हिन्दी मे बात कर लेता था। हां उन्हे हिन्दी मे बात करते परेशानी जरूर होती थी लेकिन इतनी भी नही कि मैं उनसे बात ना कर सकुं। और हां आप इन लोगो से अंग्रेजी मे बात करने की उम्मीद नही रख सकते।
भारत मे या भारत के बाहर मैं जहां भी गया, जहां भी भारतीय मिले चाहे दक्षिण भारतीय हो, गुजरती, बंगाली हो हिन्दी ही संपर्क का माध्यम रही। मैने हिन्दी मे शुरूवात की और मुझे जवाब हिन्दी मे ही मिला। जब मै हिन्दी मे अपने लोगो से संपर्क कर सकता हुं अपनी बात समझा सकता हुं तो मै हिन्दी क्यो ना लिखुं ?
जिसे हिन्दी आते हुये भी हिन्दी नही पढना हो या हिन्दी पढना लिखना पिछडापन लगता हो, नही चाहिये ऐसे लोग मुझे ! मै नही चाहता कि ऐसे लोग मेरा चिठ्ठा देखें भी। मै चाहता हुं कि मेरे चिठ्ठे को पढने वाले वही लोग को हो जो अपनी मातृभाषा से प्यार हो, सम्मान हो चाहे वे मुठ्ठीभर ही क्यों ना हो। और है मेरे पास ऐसे लोग !
ईस्वामी जी ने सही कहा था कि
““ऐसा ही हूं मैं - कर लो जो करते बने”, “हम नहीं सुधरेंगे” वाला ये भाव मुझे कहीं ना कहीं हर हिंदी के ब्लागर मे दीखता है”।
हां मैं भी अडियल हुं, मुझे हिन्दी मे ही लिखना अच्छा लगता है, एक सुकून मिलता है। नही लिखना मुझे किसी
और भाषा मे।
याद आती है कुछ साल पहले घटीत एक छोटी सी घटना ! कुछ साल पहले मै और मेरे कुछ सहकर्मी ओसाका, जापान गये थे। जब हम पहले दिन कार्यालय गये तब हमारे स्वागत के लिये संबधीत विभाग का व्यवस्थापक स्वागत कक्ष मे मौजूद था। उसने हम लोगो से हाथ ना मिलाते हुवे पूरे भारतीय अंदाज़ मे हाथ जोड़कर नमस्ते कहा। बाद मे पता चला कि जब उन लोगो को पता चला कि भारत से कुछ लोग उनके साथ काम करने आ रहे है तब पूरे विभाग ने एक हिन्दी शिक्षक से भारतीय अभिवादन और शिष्टाचार सीखा था।
मैं जापान मे कुछ ही सप्ताह रहा और देखा कि जापानी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से कितना प्यार करते हैं। विडंबना है मैने अपनी भाषा के लिये सम्मान विदेश जा कर सिखा। तब मैने सोच लिया था कि जहां भी मै जाउँगा अभिवादन के लिये “नमस्ते” और आभार के लिये “धन्यवाद” का प्रयोग करूंगा।
मैं क्लीवलैंड मे जिस कपनीं के लिये काम कर रहा हुं आज उस कंपनी के लगभग हर व्यक्ति को ‘नमस्ते’ तथा ‘धन्यवाद’ का अर्थ मालूम है। और जब मैं उनके पास से गुजरता हुं वो मुझे “हाय” या “हैलो” की बजाय “नमस्ते” कहते हैं।
इन दो घटनाओं से मैने देखा है कि यदि आप अपनी भाषा को सम्मान देते है तो आप के आस पास के लोग आपकी भाषा को सम्मान देना शुरू कर देंगें। आखिर सारी दुनिया जापान मे काम करने के लिये या जापान के साथ व्यवसाय करने के लिये जापानी क्यों सिखती है ? ये जर्मनो से साथ भी देखा गया है। जापानीयो को तो अंग्रेजी अच्छे से नही आती, लेकिन जर्मन तो अंग्रेजी जानते हुये भी अंग्रेजी बोलना पसंद नही करते !
सबसे पहले जब मैने “अभिव्यक्ति” देखी थी, काफी खुशी हुयी थी कि हिन्दी मे एक अच्छी पत्रिका इन्द्रजाल पर उपलब्ध है। बाद मे “वेब दुनिया” देखा, उसके बाद तो एक श्रंखला ही शुरू हो गयी। मै आभारी हुं हिन्दी चिठ्ठाकार समुह का जिन्होने हिन्दी को इन्द्रजाल मे लाने के लिये इतनी मेहनत की है। मैने तो चिठ्ठा “ब्लाग” शब्द ही रवी रतलामी जी के अभिव्यक्ति मे एक लेख मे पढा था। उसके बाद सभी को पढना शुरू किया। इसके पहले तो मुझे मालूम था सिर्फ उन्ही लोगो के बारे मे जो अभिव्यक्ति और अनुभूति मे लिखते थे। मुझे पता चला कि और भी धुरंधर बैठे है। बस क्या था चलो , हम भी लिखेंगे और शुरू हो गये।
पढने का शौक है, अब तो हिन्दी मे काफी कुछ पढने के लिये इन्द्रजाल मे उपलब्ध है, और इस तरह उत्साह बना रहा तो जल्द ही और भी काफी कुछ होगा। बस कोई कारण ही नही है हिन्दी मे ना लिखने के लिये !
ईकबाल ने कहा था
7 टिप्पणीयां »
1. eswami उवाच :
अक्तुबर 7, 2005 at 4:50 am • संपादन करें
मित्र तुम तो बहुत काम का आईडिया लाए! ये नमस्ते और धन्यवाद वाला विचार मेरे दिमाग में क्यों नही आया! लेख पढ कर मजा आ गया!
2. अनूप शुक्ला उवाच :
अक्तुबर 7, 2005 at 5:58 pm • संपादन करें
लेख हमेशा की तरह बहुत अच्छा लिखा है। बधाई।
3. सुनील उवाच :
अक्तुबर 7, 2005 at 9:11 pm • संपादन करें
आशीष जी लेख बहुत अच्छा लगा क्योंकि सीधे दिल से लिखा लगता है. सुनील
4. जीतू उवाच :
अक्तुबर 8, 2005 at 11:25 am • संपादन करें
अच्छा लिखे हो बन्धु, लगता है दिल की आवाज या कहो गुबार है।
सच ही है, जब हम सोचते हिन्दी मे है, तो लिखे दूसरी भाषा मे क्यो, ये तो विचारो का अनुवादीकरण हुआ, यानि डुप्लीकेशन। ओरीजनल हमेशा डुप्लीकेट से बेहतर होता है।
5. रजनीश मंगला उवाच :
अक्तुबर 10, 2005 at 12:49 am • संपादन करें
मैंने जीतू जी के ब्लाग पर भी अपना विचार छोड़ा है। जर्मनों के बारे में बहुत लोगों के मन में गलत धारनाएं हैं। लगभग सब व्यवसायिक जर्मन अंग्रेज़ी के महत्व को समझते हैं और अंग्रेज़ी सीखने बोलने का प्रयत्न करते हैं। शुरू शुरू में मुझे हर जर्मन कहता था कि चलो मैं तुम्हारे साथ थोड़ा अंग्रेज़ी बोलने का अभ्यास कर सकता हूं। पहले एक दो साल मैंने उनके साथ अंग्रेज़ी बोली क्योंकि मुझे भी इतनी अंग्रेज़ी बोलने का अवसर भारत में नहीं मिला था। लेकिन इस चक्कर में मैं जर्मन नहीं सीख पाया। अब यहां दफ़्तरी भाषा जर्मन है तो कभी न कभी तो जर्मन अच्छी तरह सीखनी ही पड़ेगी। अब मैं किसी जर्मन के साथ अंग्रेज़ी नहीं बोलता।
लेकिन यहां अंग्रेज़ी का बोलबाला है। अंतरराष्ट्रिय व्यापार के चलते अंग्रेज़ी सीखना अनिवार्य हो गया है। अंग्रेज़ी सीखे बिना ये लोग अमेरिका जाकर काम नहीं कर सकते। FM radio पर, Disco में लगातार अंग्रेज़ी गाने चलते हैं। ये अंग्रेज़ी फिल्में dub कर सकते हैं लेकिन संगीत नहीं।
भईया ये politics और business है ना कि देशप्रेम, भाषाप्रेम या सांस्क्रिति प्रेम।
6. आशीष श्रीवास्तव उवाच :
अक्तुबर 11, 2005 at 2:22 am • संपादन करें
रजनीश जी,
मैने जो लिखा था वह अपने अनुभव से लिखा था. मैने कुछ समय Deutsche Post के लिये काम किया था (भारत तथा फ्रेंकफर्ट दोनो जगह) तब मैने महसुस किया था कि जर्मन अग्रेंजी जानते हुये भी बोलना नही चाहते.
हो सकता है आपका अनुभव अलग रहा हो.
आशीष
7. Sachin Shinde उवाच :
अक्तुबर 28, 2005 at 7:35 pm • संपादन करें
आशीष श्रीवास्तव जि,
आप के चिथे को देख कर बोहोत खुशि हुई| आप ये उपक्रम ऐसे हि चालु रखे येहि आप से विनति है धन्यवाद|
मै हिन्दी क्यों लिखता हुं ?
ये प्रश्न ही गलत है ! जबकि होना ये चाहिये मैं हिन्दी क्यों ना लिखुं ?
मेरा दिमाग ही हिन्दी मे चलता है। अंग्रेजी तो उसी वक्त याद आती है, जब सुनने वाले को हिन्दी ना आती हो। मेरे रगो मे हिन्दी रची बसी है। हिन्दी माध्यम से पढा हुं। बचपन से लेकर अब तक हिन्दी सुनी है, देखी है।
मैं हिन्दी मे लिखता हुं, पढ़ता हुं, बात करता हुं क्योंकि मुझे अच्छा लगता है। मुझे लगता है कि मै अपनी जडो से जुडा हुवा हुं ! मै अपनी मिट्टी के पास हुं।
भाषा किस लिये होती है ? लोगो से संपर्क के लिये, विचारों के आदान प्रदान के लिये ? जब वो मैं हिन्दी मे कर सकता हुं, तब मैं किसी और भाषा का प्रयोग क्यो करूँ ? किसी और भाषा का प्रयोग करना आपकी व्यावसायिक मजबूरी हो तो समझ मे आता है लेकिन बाकी निजी कार्यो मे ?
दक्षिण भारत विशेषतया तमिलनाडु हिन्दी विरोध के लिये जाना जाता है। मैं चेन्नई मे २ साल रहा, लेकिन मुझे हिन्दी को लेकर कभी कोई परेशानी नही गयी ! होटल, आटो, रिक्शा यहां तक कि सब्जी वाला, दुधवाला, किराणावाला सभी से मैं हिन्दी मे बात कर लेता था। हां उन्हे हिन्दी मे बात करते परेशानी जरूर होती थी लेकिन इतनी भी नही कि मैं उनसे बात ना कर सकुं। और हां आप इन लोगो से अंग्रेजी मे बात करने की उम्मीद नही रख सकते।
भारत मे या भारत के बाहर मैं जहां भी गया, जहां भी भारतीय मिले चाहे दक्षिण भारतीय हो, गुजरती, बंगाली हो हिन्दी ही संपर्क का माध्यम रही। मैने हिन्दी मे शुरूवात की और मुझे जवाब हिन्दी मे ही मिला। जब मै हिन्दी मे अपने लोगो से संपर्क कर सकता हुं अपनी बात समझा सकता हुं तो मै हिन्दी क्यो ना लिखुं ?
जिसे हिन्दी आते हुये भी हिन्दी नही पढना हो या हिन्दी पढना लिखना पिछडापन लगता हो, नही चाहिये ऐसे लोग मुझे ! मै नही चाहता कि ऐसे लोग मेरा चिठ्ठा देखें भी। मै चाहता हुं कि मेरे चिठ्ठे को पढने वाले वही लोग को हो जो अपनी मातृभाषा से प्यार हो, सम्मान हो चाहे वे मुठ्ठीभर ही क्यों ना हो। और है मेरे पास ऐसे लोग !
ईस्वामी जी ने सही कहा था कि
““ऐसा ही हूं मैं - कर लो जो करते बने”, “हम नहीं सुधरेंगे” वाला ये भाव मुझे कहीं ना कहीं हर हिंदी के ब्लागर मे दीखता है”।
हां मैं भी अडियल हुं, मुझे हिन्दी मे ही लिखना अच्छा लगता है, एक सुकून मिलता है। नही लिखना मुझे किसी
और भाषा मे।
याद आती है कुछ साल पहले घटीत एक छोटी सी घटना ! कुछ साल पहले मै और मेरे कुछ सहकर्मी ओसाका, जापान गये थे। जब हम पहले दिन कार्यालय गये तब हमारे स्वागत के लिये संबधीत विभाग का व्यवस्थापक स्वागत कक्ष मे मौजूद था। उसने हम लोगो से हाथ ना मिलाते हुवे पूरे भारतीय अंदाज़ मे हाथ जोड़कर नमस्ते कहा। बाद मे पता चला कि जब उन लोगो को पता चला कि भारत से कुछ लोग उनके साथ काम करने आ रहे है तब पूरे विभाग ने एक हिन्दी शिक्षक से भारतीय अभिवादन और शिष्टाचार सीखा था।
मैं जापान मे कुछ ही सप्ताह रहा और देखा कि जापानी अपनी भाषा, अपनी संस्कृति से कितना प्यार करते हैं। विडंबना है मैने अपनी भाषा के लिये सम्मान विदेश जा कर सिखा। तब मैने सोच लिया था कि जहां भी मै जाउँगा अभिवादन के लिये “नमस्ते” और आभार के लिये “धन्यवाद” का प्रयोग करूंगा।
मैं क्लीवलैंड मे जिस कपनीं के लिये काम कर रहा हुं आज उस कंपनी के लगभग हर व्यक्ति को ‘नमस्ते’ तथा ‘धन्यवाद’ का अर्थ मालूम है। और जब मैं उनके पास से गुजरता हुं वो मुझे “हाय” या “हैलो” की बजाय “नमस्ते” कहते हैं।
इन दो घटनाओं से मैने देखा है कि यदि आप अपनी भाषा को सम्मान देते है तो आप के आस पास के लोग आपकी भाषा को सम्मान देना शुरू कर देंगें। आखिर सारी दुनिया जापान मे काम करने के लिये या जापान के साथ व्यवसाय करने के लिये जापानी क्यों सिखती है ? ये जर्मनो से साथ भी देखा गया है। जापानीयो को तो अंग्रेजी अच्छे से नही आती, लेकिन जर्मन तो अंग्रेजी जानते हुये भी अंग्रेजी बोलना पसंद नही करते !
सबसे पहले जब मैने “अभिव्यक्ति” देखी थी, काफी खुशी हुयी थी कि हिन्दी मे एक अच्छी पत्रिका इन्द्रजाल पर उपलब्ध है। बाद मे “वेब दुनिया” देखा, उसके बाद तो एक श्रंखला ही शुरू हो गयी। मै आभारी हुं हिन्दी चिठ्ठाकार समुह का जिन्होने हिन्दी को इन्द्रजाल मे लाने के लिये इतनी मेहनत की है। मैने तो चिठ्ठा “ब्लाग” शब्द ही रवी रतलामी जी के अभिव्यक्ति मे एक लेख मे पढा था। उसके बाद सभी को पढना शुरू किया। इसके पहले तो मुझे मालूम था सिर्फ उन्ही लोगो के बारे मे जो अभिव्यक्ति और अनुभूति मे लिखते थे। मुझे पता चला कि और भी धुरंधर बैठे है। बस क्या था चलो , हम भी लिखेंगे और शुरू हो गये।
पढने का शौक है, अब तो हिन्दी मे काफी कुछ पढने के लिये इन्द्रजाल मे उपलब्ध है, और इस तरह उत्साह बना रहा तो जल्द ही और भी काफी कुछ होगा। बस कोई कारण ही नही है हिन्दी मे ना लिखने के लिये !
ईकबाल ने कहा था
हिन्दी है हम , हिन्दी है हम, हिन्दी है हम
वतन है हिन्दोस्तां हमारा !
7 टिप्पणीयां »
1. eswami उवाच :
अक्तुबर 7, 2005 at 4:50 am • संपादन करें
मित्र तुम तो बहुत काम का आईडिया लाए! ये नमस्ते और धन्यवाद वाला विचार मेरे दिमाग में क्यों नही आया! लेख पढ कर मजा आ गया!
2. अनूप शुक्ला उवाच :
अक्तुबर 7, 2005 at 5:58 pm • संपादन करें
लेख हमेशा की तरह बहुत अच्छा लिखा है। बधाई।
3. सुनील उवाच :
अक्तुबर 7, 2005 at 9:11 pm • संपादन करें
आशीष जी लेख बहुत अच्छा लगा क्योंकि सीधे दिल से लिखा लगता है. सुनील
4. जीतू उवाच :
अक्तुबर 8, 2005 at 11:25 am • संपादन करें
अच्छा लिखे हो बन्धु, लगता है दिल की आवाज या कहो गुबार है।
सच ही है, जब हम सोचते हिन्दी मे है, तो लिखे दूसरी भाषा मे क्यो, ये तो विचारो का अनुवादीकरण हुआ, यानि डुप्लीकेशन। ओरीजनल हमेशा डुप्लीकेट से बेहतर होता है।
5. रजनीश मंगला उवाच :
अक्तुबर 10, 2005 at 12:49 am • संपादन करें
मैंने जीतू जी के ब्लाग पर भी अपना विचार छोड़ा है। जर्मनों के बारे में बहुत लोगों के मन में गलत धारनाएं हैं। लगभग सब व्यवसायिक जर्मन अंग्रेज़ी के महत्व को समझते हैं और अंग्रेज़ी सीखने बोलने का प्रयत्न करते हैं। शुरू शुरू में मुझे हर जर्मन कहता था कि चलो मैं तुम्हारे साथ थोड़ा अंग्रेज़ी बोलने का अभ्यास कर सकता हूं। पहले एक दो साल मैंने उनके साथ अंग्रेज़ी बोली क्योंकि मुझे भी इतनी अंग्रेज़ी बोलने का अवसर भारत में नहीं मिला था। लेकिन इस चक्कर में मैं जर्मन नहीं सीख पाया। अब यहां दफ़्तरी भाषा जर्मन है तो कभी न कभी तो जर्मन अच्छी तरह सीखनी ही पड़ेगी। अब मैं किसी जर्मन के साथ अंग्रेज़ी नहीं बोलता।
लेकिन यहां अंग्रेज़ी का बोलबाला है। अंतरराष्ट्रिय व्यापार के चलते अंग्रेज़ी सीखना अनिवार्य हो गया है। अंग्रेज़ी सीखे बिना ये लोग अमेरिका जाकर काम नहीं कर सकते। FM radio पर, Disco में लगातार अंग्रेज़ी गाने चलते हैं। ये अंग्रेज़ी फिल्में dub कर सकते हैं लेकिन संगीत नहीं।
भईया ये politics और business है ना कि देशप्रेम, भाषाप्रेम या सांस्क्रिति प्रेम।
6. आशीष श्रीवास्तव उवाच :
अक्तुबर 11, 2005 at 2:22 am • संपादन करें
रजनीश जी,
मैने जो लिखा था वह अपने अनुभव से लिखा था. मैने कुछ समय Deutsche Post के लिये काम किया था (भारत तथा फ्रेंकफर्ट दोनो जगह) तब मैने महसुस किया था कि जर्मन अग्रेंजी जानते हुये भी बोलना नही चाहते.
हो सकता है आपका अनुभव अलग रहा हो.
आशीष
7. Sachin Shinde उवाच :
अक्तुबर 28, 2005 at 7:35 pm • संपादन करें
आशीष श्रीवास्तव जि,
आप के चिथे को देख कर बोहोत खुशि हुई| आप ये उपक्रम ऐसे हि चालु रखे येहि आप से विनति है धन्यवाद|
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