प्रस्तावना
प्रत्यक्षा जी ने हमे प्रेम विषय का पंडित समझ लपेट दिया और इस पर कह दिया कि “आदर्श प्रेमिका के गुण” बतायें। शायद उन्होने कबीर की तरह सोचा होगा “ढाई आखर प्रेम का पढे सो पंडित होय”।
हम तो इस प्रेम की जालिम , बेरहम दुनिया मे इतनी ठोकर खा चुके है कि हमारे दिल नुमा प्रेम ग्रंथ के हर पन्ने से सिर्फ आह ही आती है। दिल के इतने टुकड़े हो चुके है जितने जनता दल के भी नही हुये होंगे। फिर भी हमने हिम्मत नही हारी है और लगे हुये हैं।
हसीं हजारो भी हो खडे, मगर उसी पर नजर पड़ेअब आदर्श प्रेमिका के गुण पर लिखना है तो क्यो ना अपने पहले प्यार पर फिर से एक नजर डाली जाये। अब आप ही देखें की हमारी प्रेमिका मे क्या क्या गुण है(थे)!
हो जुल्फ़ गालो से खेलती, के जैसे दिन रात से लड़े
अदाओं मे बहार हो। निगाहो पर खुमार हो
कबूल मेरा प्यार हो तो क्या बात है
जरूरत है जरूरत है जरूरत है
झटक के गेसूं जहां चलेतो साथ मे आसमा चले
लिपट के कितने भी पांव से ये पूछते कहां चले
प्यार से जो काम ले, हंस के सलाम ले
वो हाथ मेरा थाम ले तो क्या बात है
प्रस्तुत है हमारा शोध प्रबंध “आदर्श प्रेमिका के गुण”।
वो पहला प्यार
याद है जय साबून का विज्ञापनपहला प्यारशायद कुछ ऐसा ही था हमारा पहला प्यार। प्यार ! पता नही वह प्यार था या कुछ और ! कब हुआ, कैसे हुआ, कब परवान चढ़ा… पता ही नही चला।
लाये जीवन मे बहार
पहला प्यार
जब दोस्त छेड़ते तो हंस के कहते
“तुम भी यार बात का बंतगड बना देते हो वो मेरी एक अच्छी दोस्त है बस और कुछ नही।”वो मेरी हमउम्र थी, शायद १-२ साल छोटी। दुबली पतली सी , सीधी सादी सी। । मेरे परिवार का उन लोगो के घर आना जाना था, वो लोग भी गाहे बगाहे मेरे घर आते जाते थे। वह चार बहनो और दो भाईयो मे से पांचवे क्रमांक पर थी, उससे बडी तीन बहने ,एक बडा भाई और एक छोटा भाई।
कद उसका नाटा था, मेरे बगल मे खड़ी हो तो कन्धे से नीचे ही ! इसका मुझे एक फायदा था। मै उसके कान खींच सकता था, वो नही।
शायद मै उससे पहली बार कक्षा ५ वी या ६ वी मे मिला। वैसे तो बचपन मे मै थोडा शर्मीला (विशेषतया लडकियो से) था लेकिन उससे बातें करने मे कभी कोई झिझक नही थी, ना उसे मुझसे बातें करने मे कोई झिझक होती थी। हम दोनो दिल खोल के बतीयाते थे। वैसे वह कम बोलती थी, बोलते मै रहता था और वो सुनते रहती थी। मेरी हर बेसीर पैर की कहानियो, गप्पो के लिये मुझे उससे बढ़िया श्रोता आज तक नही मिला। कभी कभार ईद के चांद की तरह वो भी शुरू हो जाती, तब मै भी सुन लेता था।
उसके लंबे काले कमर तक के बाल मुझे अच्छे लगते थे। वह सिर्फ एक चोटी करती थी जो उसकी पीठ पर लहराते रहती थी। मुझे उसकी चोटी खींचने मे मजा आता था, यहां तक की कोई उसकी चोटी खींचे वो बीना मुड़ कर बोल पढ़ती थी
“आशीष के बच्चे ! तुमसे कितनी बार कहा है मेरी चोटी मत खींचा करो।”
ऐसे तो मुझे उसे तंग करने मे , उसके साथ रहने मे मजा आता था, उसे भी मेरे साथ रहने मे, मुझे तंग करने मे मजा आता था। नोंक झोंक चलते रहती थी। एक बार हम लोग (मै, मेरी बहने वह और उसकी बहने) कहीं जा रहे थे। वाहन के नाम पर हम लोगो के पास ४ साइकिले थी और हम लोग कुल ६। मेरी दोनो बहने एक साइकिल पर, उसकी दोनो बहने एक एक साइकिल पर थे। मेरे पास मेरी “साबू” साइकिल थी। अब वो किस की साइकिल पर बैठे ? मैने अपनी साइकिल पर बिठाने के लिये मना कर दिया। मेरे मना करने की देर थी, कि वो अड गयी, अब तो मै इसी की साइकिल मे बैठुंगी। अब दोनो अपनी अपनी ज़िद पर अड गये। सब परेशान, ना मै पीछे हट्ने तैयार ना वो। अंत मे मै झुका और कहा
“ठीक है बैठ मेरी साइकिल पर, रास्ते मे साइकिल से नही गिराया तो कहना।”
“ठीक है,ठीक है”मै थोडे गुस्से मे साइकिल तेज चला रहा था और वो पीछे कैरीयर पर बैठे हुये गा रही थी। कुल मिला कर जले पर नमक छिड़क रही थी। अब उसके गाने का असर था या मेरे तेज चलाने का रास्ते मे एक मोड पर साइकिल फिसल गयी और हम दोनो धूल फांक रहे थे। मेरी हंसी छूट गयी, बस मैडम ने आव देखा ना ताव दोनो मुठ्ठी बांध कर मेरी पिटायी शुरू कर दी। मेरी हंसी नही रूक रही थी, उसकी पिटाई से मुझे मार तो दूर गुदगुदी ज्यादा लग रही थी। अब दृश्य कुछ ऐसा था, सडक के बीचोंबीच मै बैठा हुआ हंस रहा था, साइकिल बाजू मे गिरी पडी थी और वो मुझे पीट रही थी। रास्ता चलते लोग हमलोगो रूक कर देखते, थोडा घूरते और आगे बढ लेते। ये दृश्य खत्म हुआ जब उसकी बहने आ गयी और मुझे बचाया। हम आगे बढे लेकिन वो फिर से मेरी साइकिल पर !
दोनो को एक से गाने सुनने का शौक। मेरे घर से मेरी कोई कैसेट ग़ायब हो तो पहला सवाल होता था,”……। आयी थी क्या ?”
वैसे वो गाती अच्छा थी, मुझे उसका गाना भी अच्छा लगता था। लेकिन मैने उसके गाने की तारीफ कभी नही की, हमेशा खिंचायी ही की। लेकिन उसने मेरी खिंचायी की कभी कोइ परवाह नही की उलटे यदि मै आसपास रहा तब उसका “वाल्युम” तेज हो जाता था। वह ना केवल गाने मे , नृत्य कला मे भी उस्ताद थी। स्कुल की सांस्कृतिक टीम के हम दोनो स्तंभ थे। मै बौद्धिक प्रतियोगिता (वादविवाद, स्वयंस्फूर्त भाषण, नाटक इत्यादि) सम्हालता और वह नृत्य और गायन विभाग। जब मै १० वी मे था और वह ९ वी मे उस वर्ष की आंतरशालेय मे प्रतियोगिताओ मे मैने और उसने ४-४ प्रथम इनाम जीते थे। उसका समूह नृत्य “कोळी नृत्य(कोकण के मछुआरों का नृत्य) काफी सराहा गया था। जब पुरस्कार वितरण हुवा तब नज़ारा यह था
उदघोषक : (...हमारा नाम...) प्रथम पुरस्कार ….. के लिये……..
उदघोषक : (…उसका नाम …) प्रथम पुरस्कार ….. के लिये……..
उदघोषक ने उपर वाली लाइने ३ बार और दोहरायी। अब ऐसा था कि हम स्टेज पर एक ओर से चढते थे और दूसरी ओर से उतरते थे। मेरे और उसके एक के पिछे एक ऐसे ४ चक्कर लग गये थे। उधर कोने मे जहां मेरे कमीने दोस्तो का समूह बैठा था, हंगामा मचा रहा था…..
“ तीन चक्कर और लगा लो”
वह खाना बनाने मे भी उस्ताद थी। मेरी मम्मी उसके बनाये खाने की एक बडी प्रशंसक थी। उसे अच्छी तरह से मालूम रहता था कि मुझे क्या पसन्द है , क्या नही। उसे मालूम रहता था कि मै किस समय क्या खाना या पीना पसन्द करता हुं, मुझे कैसी चाय पसन्द है, यहा तक कि मेरे खाने मे नमक/मिर्च/मसाले/तेल कितना होना चाहिये। उसने मुझे कभी भी शिकायत का मौका नही दिया। लेकिन हमने कभी उसके खाने की प्रशंसा भी नही की उल्टे कहते
“खाना बनाना सीख ले नही तो ससुराल मे सास की मार खायेगी।”
एक दिन उसकी बडी बहन ने मेरे इस डायलाग पर टिप्पणी की
“उसे जो लडका पसंद है, उसकी मम्मी को इसका बनाया खाना अच्छा लगता है।”
हम ठहरे भोले भंडारी, इसका मतलब हमे काफी देर से समझ मे आया।
उसके बोलने का अंदाज कुछ ऐसा था कि उससे बाते करने के बाद हर कोइ उसका मुरीद हो जाता था। किसी भी वातावरण मे, हर किस्म के लोगो मे, वह हर जगह घुल मिल जाती थी। कुछ देर मे ही वह किसी को महसूस नही होने देती थी कि उससे परिचय हुये कुछ ही मिनट हुये हैं।
मेरे घरवाले और उसके घरवालो मे हमारी दोस्ती को लेकर कोइ एतराज कभी नही था। मेरी बहने और उसकी बहने तो बाकायदा हम दोनो की खिंचायी करती ही थी। मेरे मातापिता और उसके मातापिता ने कभी कहा कुछ नही, एक तरह से मौन स्वीकृति थी।
मेरे दोस्त हमेशा मेरी खिंचायी करते रहे थे और मै हमेशा इंकार। ये बात और है कि मैने उसे लेकर सपने कभी नही देखे। उसने सपने देखे या नही , मैने कभी नही पूछा ना जानने की कोशिश की। जब मैं उसके करीब था, तब कभी जानने की जरूरत नही समझी, और जब जानने की जरूरत थी तब इन बातो के लिये मेरे पास समय नही था।
कालेज के बाद एक काफी लम्बे अंतराल के उपरांत मै उससे मिला था। उसके घर पर कोई नही था। वह सामने बरामदे मे सो रही थी। शायद गर्मी और उमस से उसे नींद आ गयी थी। मैने बिना आवाज दरवाजा खोला और उसकी चोटी जोर से खिंची। वो चीखी
“आशीष के बच्चे, अब तो सुधर जाओ”।मै हैरान हो गया, तीन साल बाद मै इसके सामने खड़ा हुं और ये नींद मे है फिर भी इसे मालुम है कि इसकी चोटी खिंचने वाला सिर्फ मै हो सकता हुं। काफी देर तक हम बाते करते रहे। पता नही उसे उस दिन क्या हो गया था वो बोल रही थी और मै सुन रहा था। वो बचपन से अब तक की हर घटना को दोहरा रही थी। साइकिल से गिराने की घट्ना को लेकर हम काफी देर तक हंसते रहे। उसने मेरे लिये चाय बनायी, खाना बनाया। खाने मे हर चीज मेरी पसंद की थी। वो मेरे से मेरी नौकरी के बारे मे, मेरे रहने खाने के बारे मे हर चीज खोद खोद कर पूछते रही। (मै गुडगांव मे नौकरी कर रहा था।) ऐसे ही उसने मेरे से पूछा
“कोई लड़की पसंद आयी क्या दिल्ली मे ?”
“पसंद तो बहुत सारी आयी, लेकिन मुझे भी तो कोई पसंद करना चाहिये !”
“ऐसा क्यो, तुम्हें पसंद करने वाली लडकीयो की तो कमी नही होगी ?”मै अपनी धुन मे
“ अरे मेरे जैसे मस्तमौला, बेफिकरे को कौन पसन्द करेगा। और तुम तो जानती हो मेरा गुस्सा !”
” तुम अपने बारे मे खुद नही जानते हो, तुम्हारे साथ कोई भी उदास नही रह सकता। तुम हमेशा हंसते रहते हो और हंसाते रहते हो। तुम हर चीज पर हंसना जानते हो, खुद पर भी। उसके साथ तुम्हें अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास भी रहता है। कौन ऐसी बेवकूफ़ लड़की होगी जो तुम्हें पसंद नही करेगी। “और ये हमारी आखिरी मुलाकात थी।
आखिरी क्यों? फिर कभी !
यह पहली बार है जब मै स्वीकार कर रहा हुं कि शायद वो मेरा पहला प्यार थी। आज से पहले ये बात कभी स्वीकार नही की। तब भी नही जब संजय ने मुझसे पूछा था कि
”अबे उसे खोने का तुझे कोई दुःख नही है क्या ? कैसा आदमी है तू ?”उसे मै कैसे बताऊं कि उसने कहा था
“तुम हर चीज पर हंसना जानते हो, खुद पर भी।”
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ना जाने क्यों होता है ये जिन्दगी के साथउपसहांर
अचानक ये मन, किसी के जाने के बाद
करे फिर उसकी याद, छोटी छोटी सी बात
ऐसे तो हमारी ज़िदगी मे कई सारे प्रेम आये अर्थात कई सारी प्रेमिकाये आयी। यहां हमने उनमे से चुनी हुयी पहली प्रेमकथा का उल्लेख किया है।
इस शोधप्रबण्ध मे हमने प्रेमिका के आदर्श गुणो का बखान प्रत्यक्ष रूप से ना करते हुये अप्रत्यक्ष रूप से प्रेमिका का बखान करते हुये किया है।यह पाठको पर निर्भर करता है कि वह उनमे से आदर्श प्रेमिका के गुण कैसे निकाल सकते है।
परिशिष्ट क
संत श्री १००८ श्री आशीष कुमार महाराज उवाचप्रेम, प्रेमी और प्रेमीका,यह त्रिभूज बरमूडा त्रिभूज की तरह रहस्यमय है। इस के अंदर जो फंस गया उसके साथ क्या होता है वह दुर्घट्ना तक (शादी तक) एक अनसूलझा रहस्य रहता है। और दुर्घट्ना के बाद कोई भी इस रहस्य को जानने मे इच्छुक नही रहता। यह एक ऐसा कटू सत्य है, जिसे कोई भी प्रेमी/प्रेमिका सुनना भी पसंद नही करता।
परिशिष्ट ख
अहम ब्रह्मचारी, जिधर देखी नारी,
पलट के आंख मारी,
पटी तो पटी,
नही तो अहम ब्रह्मचारी।
श्रीमान आशीष श्रीवास्तव , अध्यक्ष विश्व क्वांरा मंच
पारिभाषिक शब्दावली
ये जरूरी है कि हम दास्तान ए आदर्श प्रेमीका मे प्रयुक्त शब्दो को पारिभाषित कर दिया जाये। ये इसलिये भी जरूरी है कि बाद मे हमे ये ना कहना पढे कि “मेरा ये मतलब नही थी, हमारे बयान को मिडिया ने तोडमरोड कर पेश किया है”।
आदर्श -: हमने इस पर तो पूरा का पूरा चिठठा लिखा है!
कन्या : हर वो महिला जिस के माथे पर पर लाल बत्ती ना जल रही हो, मतलब की मांग मे सिंदूर ना हो।
कन्या श्रेणीयां :कन्यायें दो श्रेणी मे विभाजित की जा सकती है पहली श्रेणी की कन्यायें खूबसूरत होती हैं और दूसरी श्रेणी की कन्याये ज्यादा खूबसूरत होती हैं।
गुण : जो मुझे अच्छा लगे। अब कोई इस परिभाषा की आलोचना करे तो यह उस व्यक्ति का अवगुण है।
प्रेमिका :हंम्म, ये तो आज तक कोई समझ नही पाया, और जो समझा वो या तो कवी(तुलसीदास, कालीदास वगैरह वगैरह…) हो गया या स्वर्गवासी (मजनू, फरहाद, रांझा वगैरह वगैरह…) हो गया। हम इन दोनो श्रेणी मे नही आते हैं। हमारे लिये इस शब्द की परिभाषा समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशील है।
13 टिप्पणीयां “आदर्श प्रेमीका के गुण ?” पर
“तीन चक्कर और लगा लो!” कमाल का था.
बहुत अच्छे.
eswami द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
पहले देवदास देखी थी आज देवदास की कहानी पढ भी ली. उस वक्त तीन चक्कर लगा लिये होते तो आज तक यू ना भटक रहे होते.
अब लगता है लिखना ही पडेगा क रानी कैसी हो के बारे मे.
Tarun द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
बहुत ही रोचक लगी आपकी कहानी, लगा कोई प्रेम कहानी पढ रहे हैं, अब इस कहानी का अगला हिस्सा भी पढवा ही दीजिये, इंतज़ार रहेगा।
सारिका सक्सेना द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
वाह, पढ़कर मज़ा आ गया, खासतौर पर उस साईकिल से गिरने वाली बात से। काश मैं उस समय वहाँ होता तो उस दृश्य को कैमरे में हमेशा के लिए बंद कर लेता, ऐसे बहुत कम वाक्ये होते हैं जिनको कभी भी याद कर हंसी छूट जाती है!!
और आशीष भाई, जब इतनी रचनात्मकता दिखाई है तो थोड़ी और दिखा लेते, ये आखिरी पैराग्राफ़(नियमों के अलावा) मेरे यहाँ से टीपने के बजाए अपनी शैली में लिख लेते और शीर्षक स्वामी जी के जैसा न रख कुछ और रख लेते!! वैसे मुझे कोई आपत्ति नहीं है!!
Amit द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
पूरी कहानी के हर वाक्य को पिक्च्राइज़ किया पढते पढते| बहुत अच्छा लिखा है आशीष |
मानोशी द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
भई मज़ा आ गया. अब कहो, पंडित तुम्हें ठीक चुना की नहीं .
कहानी आगे बढाई जाये…पाठक गण उत्सुक हैं.
प्रत्यक्षा
pratyaksha द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
यह कहानी बताती है कि दुनिया में क्या-क्या नमूने हैं। कन्या की चोटी न हो गयी जहांगीर के न्याय का घंटा हो गयी खींचे पड़े हो। लेख बढ़िया है लेकिन हरकतें निहायत बेवकूफी भरी कर चुके हो। आगे बताओ अच्छा सुना जाये।
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
अनूप जी,
बाकी सब तक तो ठीक है लेकिन “हरकतें निहायत बेवकूफी भरी कर चुके हो।’ कुछ समझ मे नही आया, थोडा प्रकाश डाले !
आशीष
आशीष श्रीवास्तव द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
अब भइया कितना प्रकाश डालें।इतने किस्से बता चुके हो अपने जिसमें हाथ आये अवसर छोड़ दिये।अब यह समझदारी लगती हो तो बेवकूफी की जगह समझदारी कर दो हमारे कमेंट में। शेष यथावत!
अनूप शुक्ला द्वारा दिनांक फरवरी 2nd, 2006
भाई, बेचारी का कुछ तो दिल रख लेते। लेकिन हमें किस खेल में फ़ंसा लिए हो। हमसे तो लड़की बात भी करले तो हम दिल दे बैठते हैं (अभी भी)। महावीर जी की तरह हम तो सिर्फ़ त्रास्दियां गिना सकते हैं। लेकिन कोशिश करेंगे। आपकी आपबीती बहुत पसंद आई।
bloglines ने कोई नया लोचा डाल दिया है। कहते हैं RSS Feed के लिए ब्लौग का पता भर देदें तो फ़ीड अपने आप ढ़ूंढ़ लेंगे। आपके ब्लौग का पता डाला तो उन्हें फ़ीड नहीं मिल रही।
रजनीश मंगला द्वारा दिनांक फरवरी 3rd, 2006
[…] अब ये लो नया लफड़ा। प्रेम के बारे में लिखो। हमारे पास जितना प्रेम का स्टाक था वह हम पहले ही अपने लेख प्रेम गली अति सांकरी तथा ये पीला वासंतिया चांद में उड़ेल चुके हैं। अब प्रत्यक्षाजी तथा आशीष कहते हैं थोड़ा और बयान किया जाय।में अपनी कल्पना के घोड़ों को दौडा़ने के लिये पुचकारता हूं लेकिन वे अड़े खड़े हैं जहां के तहां-� ेलुहा,देबाशीष,अतुल के ब्लाग की तरह। बहरहाल देखा जाये हमारे पहले के शूरमाओं ने क्या किया। […]
फ़ुरसतिया » अति सूधो सनेह को मारग है द्वारा दिनांक फरवरी 3rd, 2006
बहुत अच्छा लिखा है बन्धु…..! मज़ा आ गया…।
अनाम द्वारा दिनांक फरवरी 5th, 2006
बुरा फँसाया आपने। यह रही विशलिस्ट की व्यथाकथा।
अतुल द्वारा दिनांक फरवरी 7th, 2006
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