अंग्रेजी एक लंबे समय तक मेरे लिये हौवा रही है।इस विदेशी भाषा से लढने और काबू पाने के लिये मुझे एक अरसा लग गया। इस भूत को मैने कैसे काबू मे किया, यह एक लंबी कहानी है....
मेरा प्राथमिक स्कूल मेरे गाँव की सीमा से बाहर था, जिसमे मैने कक्षा पहली से सांतवी तक हिंदी माध्यम से शिक्षा ग्रहण की। मेरा स्कूल मिट्टी की कवेलु वाला लेकिन पक्की इमारत वाला था, जिसमे शिक्षकों की कुर्सी मेज़ और श्यामपटो के अतिरिक्त फ़र्नीचर नही था। हम लोग घर से अपनी हैसियत के अनुसार लायी गयी चटाई या बोरी पर बैठते थे। बरसात के दिनों मे छत के चूने पर छुट्टी की संभावना रहती थी। ऐसे भी बरसात के दिनों मे मेरे अधिकतर सहपाठी अपने मातापिता के साथ खेतों मे हाथ बँटाते थे,पढ़ाई तो क्या होना थी।
मेरा बचपन एक गाँव मे बीता है जोकि जिल्हा मुख्यालय से 30 किमी दूरी पर था। गाँव मे आधुनिक सुविधाओं के नाम पर ज़्यादा कुछ नही था, लेकिन बिजली थी, आवागमन के लिये दिन मे राज्य परिवहन निगम की बसे कुछ घंटो के अंतराल पर थी। गाँव के लोग उच्च शिक्षित तो नही थे लेकिन अधिकतर लोग साक्षर थे और अनपढ़ो की संख्या अपेक्षतः से कम थी। अंधविश्वास , भूतप्रेत और झाड़ फूँक के साथ आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का सह अस्तित्व था।
कक्षा एक से चार तक हिंदी, गणित, इतिहास और भूगोल हिंदी माध्यम से पढ़ी। कक्षा पाँच मे अंग्रेजी और मराठी के दो विषयों का प्रवेश हुआ। मेरे पापा स्वयं एक शिक्षक थे जो पड़ोस के गाँव मे हाईस्कूल मे गणित और विज्ञान पढ़ाते थे। उन्होंने गर्मियों की छुट्टी मे ही अंग्रेजी की रोमन लिपि, गिनती, सरल शब्दों के साथ वाक्य बनाना सीखा दिया था। इसका फ़ायदा यह हुआ था कि पाँचवीं कक्षा की पढ़ाई प्रारंभ होने पर मुझे आसानी हो गयी थी, सहपाठीयों पर रोब जम गया था। सहपाठीयों को मै पढ़ा भी दिया करता था। कुल मिलाकर कक्षा मे ऐसा था कि मै भले ही मेधावी नही था लेकिन मुझसे बेहतर कोई नही था, अंधों मे काना राजा। सातवीं तक मेरी अंग्रेजी ऐसी थी कि मै पाठ्यक्रम के लायक या आवश्यकतानुसार अंग्रेजी पढ़ लिख लेता था, लेकिन जब अंग्रेजी मे बात करने की बात हो तो पसीने छूटते थे। लेकिन कभी अंग्रेजी मे बात ना कर पाने की कमी महसूस नही हुयी क्योंकि बात करने दूसरा भी चाहिये और कोई दूसरा था ही नही! मेरे शिक्षक भी अंग्रेजी के विद्वान नही थे, वे भी एक गाँव के स्कूल मे अध्यापन के लिये आवश्यक अंग्रेजी ही जानते थे।
सातवीं पास करने के बाद पापा ने मुझे अपने स्कूल मे प्रवेश दिला दिया, यह स्कूल पिछले स्कूल से बेहतर था। इसमे बैठने डेस्क बेंच थी लेकिन स्कूल की मुख्य इमारत सभी कक्षाओं के लिये पर्याप्त नही थी। इसलिये कुछ कक्षायें थोड़ी दूरी पर स्थित पशु अस्पताल, ग्राम पंचायत की इमारत मे भी लगती थी।यहाँ मेरे गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान , हिंदी और मराठी के शिक्षक अच्छे थे , लेकिन अंग्रेजी के बुरे हाल थे। आठवीं और नौवीं मे तो जैसे तैसे अंग्रेजी पढ़ी, पापा से कुछ मदद हो जाती थी, उसकी बदौलत काम चल रहा था। लेकिन दसवीं मे आने पर पापा को चिंता होने लगी, मै बाकी विषयों मे अच्छा था, लेकिन अंग्रेजी औसत थी। अभी भी लिखने पढ़ने मे ठीक ठाक था, व्याकरण ज्ञान की एक सीमा थी, बोलने बात करने मे शून्य!
दसवीं मे पहुँचने पर एक चमत्कार हुआ, नागपुर निवासी शेख़ गुरूजी की नियुक्त मेरे स्कूल मे हो गयी। वे अंग्रेजी के अध्यापक के रूप मे आये थे। मेरे कक्षाध्यापक तांडेकर गुरूजी थे जोकि सामाजिक विज्ञान के शिक्षक थे लेकिन हमे अंग्रेजी पढ़ाते थे, सरकारी स्कूलों मे यह सामान्य था। उन्हे बदलकर नये शिक्षक को अंग्रेजी पढ़ाने देने की कोई संभावना ही नही थी। पापा ने शेख़ गुरूजी से बात की और वे मुझे हर शनिवार रविवार अंग्रेजी पढ़ाने तैयार हो गये। पहले सप्ताह उन्होंने मुझ से बात की, मेरे अंग्रेजी की हालत देखी और मुझसे कहा कि दसवीं मे होने कारण वे मुझे धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलना सीखने के लिये पर्याप्त समय नही है लेकिन वे परीक्षा मे अच्छे अंक लाने के लिये तैयार कर देंगे। अगले दो तीन महिने मे हर शनिवार रविवार को उन्होंने मुझे व्याकरण , निबंध और पत्र लेखन के गुर सिखाये। नतीजा अच्छा रहा और मैने दसवीं बोर्ड मे अंग्रेजी मे 86/100 प्राप्त किये, जोकि मुझे हिंदी मे प्राप्त अंको से भी ज़्यादा थे। लेकिन जब बात अंग्रेजी बोलने की आती तो वही ढाक के तीन पात! अब हम अंग्रेजी अच्छे से पढ़ लिख और समझ तो लेते थे लेकिन बोल नही पाते थे।
दसवीं के बाद स्कूल भी बदलना था, आगे के लिये विज्ञान संकाय लेना तय कर रखा था। अच्छे करीयर के सारे विकल्प खुले रखने के लिये भौतिकी , रसायन, गणित के साथ जीव विज्ञान भी ले रखा था। उस समय महाराष्ट्र मे इंजीनियरिंग या मेडिकल मे प्रवेश के लिये यही चार विषय महत्वपूर्ण थे। इंजीनियरिंग मे प्रवेश 12 वी मे भौतिकी, रसायन और गणित के अंकों, तथा मेडिकल मे प्रवेश भौतिकी, रसायन और जीवविज्ञान के अंकों के आधार पर होते थे, इनके लिये अलग से प्रवेश परीक्षा नही थी। अंग्रेजी और हिंदी दो विषय अनिवार्य तो थे लेकिन उनमे पास होना काफ़ी था, उनके अंको को प्रवेश के लिये मेरीट सूची बनाने मे नही जोड़ा जाता था। महाराष्ट्र मे 12 के पश्चात विज्ञान की शिक्षा केवल अंग्रेजी माध्यम मे ही होती है, अंग्रेजी का भूत अब भी सर पर सवार था। सांत्वना के लिये यही था कि भौतिकी, रसायन और गणित मे भाषा ज़्यादा महत्व नही रखती, उनकी अपनी भाषा है , प्रश्नों के उत्तर का अधिकांश भाग तो समीकरणों और अंकों मे होता है। लेकिन जीव विज्ञान मे तो चित्र बनाकर अंग्रेजी मे व्याख्या करनी थी। उसका भी तोड़ निकाल लिया गया कि इस विषय मे जितना समझ सकते हो समझो , उसके बाद तोताराम के जैसे रटो। अंग्रेजी अब प्राथमिकता नही थी।
अब मै अपने गाँव से 8 किमी दूर आमगांव मे पढ़ रहा था, ये भी सरकारी था लेकिन एक बड़े कस्बे मे होने से बेहतर था। मै कुछ मित्रों के साथ स्कूल साइकिल से जाता था। सभी शिक्षक अच्छे थे, पूरा ध्यान देकर पढ़ाते थे। अंग्रेजी माध्यम होने के बावजूद भी हिंदी मे समझाया करते थे। हम लोग भी हिंदी और अंग्रेजी की कक्षाओं को छोड़ बाकी सभी कक्षाओं मे बिना नागा उपस्थित रहते थे। सरकारी स्कूल था, हिंदी के लिये नियमित शिक्षक नही थे। प्रधानाचार्य हिंदी पढ़ाने के लिये किसी को भी भेज देते थे और हिंदी विषय के कुल जमा नौ विद्यार्थीयों मे से इक्का दुक्का ही कक्षा मे रहते थे। अंग्रेजी की कक्षा मे ध्यान तो नही रहता था लेकिन पहले कालांश मे होने से उपस्थिति उसी मे ली जाती थी जिससे सभी मजबूरी मे कक्षा मे रहते थे। हम लोग पीछे की बेंचों पर बैठकर गणित या भौतिकी के प्रश्नों पर जुटे रहते थे।
दो वर्ष गुज़रे, बारहवीँ की परीक्षा दी, भौतिकी, रसायन,गणित और जीव विज्ञान मे अच्छे अंक आये, दो विषय मे शतक भी लगे। लेकिन अंग्रेजी मे महज़ साठ अंक लेकिन हिंदी मे भी वही हाल थे साठ अंक। अब एक दिन की पढ़ाई मे कौनसा तीर मार लेते? जीव विज्ञान मे अच्छे अँक आने के बाद भी मेडिकल मे प्रवेश नही मिला, सीटें कम थी, प्रतिस्पर्धा ज़्यादा थी। लेकिन इंजीनियरिंग मे पसंदीदा कॉलेज मे पसंदीदा विषय मे प्रवेश मिल गया। अंग्रेजी से युद्ध का नया मोर्चा खुल गया था अब।
मेरा इंजीनियरिंग कालेज गाँव से 34 किमी दूर था। गाँव से छह किमी आमगांव तक साइकल से, आमगांव से गोंदिया रेल से, उसके बाद चार किमी साइकल से यात्रा होती थी। मेरा कालेज मिनी भारत था, देश के हर कोने से आये छात्र थे। महानगरों से आये छात्रों की अंग्रेजी गीटपिटाने से हमारा धुँआ निकलता था लेकिन यहाँ उम्मीद थी कि अब तो हमारी अंग्रेजी सुधर जायेगी। ये आशा इसलिये थी कि कालेज का शिक्षा माध्यम अंग्रेजी है, मजबूरन ही सही जब अंग्रेजी बोलेंगे तो धीरे धीरे टूटी फूटी अंग्रेजी से अच्छी अंग्रेजी बोलना आ ही जायेगा। यह आशा ज़्यादा दिनों तक क़ायम नही रही,छात्रों के क्षेत्रानुसार घेट्टो बन गये थे और हर घेट्टो की अपनी भाषा थी। कक्षाओं मे अंग्रेजी अवश्य थी लेकिन इंजीनियरिंग विषयों मे भी भाषा का कोई अर्थ नही होता, कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग मे तो क़तई नही। हर विषय की अपनी भाषा थी। यहाँ तक कि कुछ विषयों मे तो प्रोफ़ेसर हिंदी मे शुरू हो जाते थे, विशेषकर इंजीनियरींग ड्राइंग, कंम्पयूटर प्रोग्रामिंग, गणित वाले प्रोफ़ेसर।
तीन वर्ष ऐसे ही गुज़रे , हमारी अंग्रेजी मे कोई ख़ास उन्नती नही थी, बस टूटीफूटी गिटपिट कर लेते थे। अंतिम वर्ष आया जिसमे हर छात्र को किसी भी एक विषय पर सेमिनार देना होता था, जिसमे कम से कम पूरे पंद्रह मिनट तक पूरी कक्षा और प्रोफ़ेसरों के सामने बोलना होता था, उसके बाद प्रश्नोत्तर होते थे, सब अंग्रेजी मे। मैने अपने लिये एक उपाय निकाला, सबसे पहले दिन के लिये अपना नाम दे दिया, इससे यह हुआ कि कम से कम सहपाठी तो प्रश्न नही पूछेंगे क्योंकि किसी ने भी कोई जुर्रत की तो उसके सेमिनार का नंबर आने पर देख लिया जायेगा। प्रोफ़ेसरों से बचने के लिये एक बोरींग सा लेकिन एकदम ताज़ातरीन विषय चुना, RISC Computing। यह माइक्रो प्रोसेसर से जुड़ा विषय था और उसके प्रोफ़ेसर के पास ट्युशन लगायी हुयी थी। बस पंद्रह मिनट अंग्रेजी मे गीटपिटाना था, तोताराम जैसे रट लिया और दो तीन यारों के साथ अभ्यास भी कर लिया। क़िस्मत भी मेहरबान थी, जिस दिन मेरा सेमिनार था उस दिन घनघोर बरसात हुयी, सेमिनार मे दो ही प्रोफ़ेसर आये, एक वह जिनसे ट्युशन ले रखी थी, दूसरे "Probability and Statistics" वाले जिनका माइक्रो प्रोसेसर से कोई वास्ता नही था। बस क्या था, अब तो याद भी नही है कि मैने सेमिनार मे क्या क्या कहा, किसी ने कुछ भी नही पूछा और हम कालर खडी कर वापिस आये, अंक पूरे मिले लेकिन अंग्रेजी हम पर मेहरबान नही हुयी।
कालेज ख़त्म हुआ, नौकरी की तलाश प्रारंभ हुयी। कमजोर अंग्रेजी से घबराहट तो थी ही। संघर्ष करने मुंबई जा पहुंचे। वाय टू के(Y2K) समस्या के कारण आई टी(IT) मे नौकरियाँ खूब थी, इसलिये ज्यादा धक्के नही खाये, पहले साक्षात्कार मे ही नौकरी मिल गयी थी, क़िस्मत ने फिर साथ दिया था। साक्षात्कार मे एक ही प्रश्न पूछा गया कि कब से नौकरी पर आ सकते हो। अब ठान रखी थी कि अब कुछ भी हो जाये अंग्रेजी सुधारनी है, कंपनी मे अंग्रेजी मे ही बात करनी है, चाहे अंग्रेजी की टाँग टूटे या अर्थी निकले। जब तक अंग्रेजी मे महारत हासिल ना हो चैन नही लेंगे। पहले दिन आफिस पहुँचे, सारा का सारा आफिस हिंदी मय था, अब हम अंग्रेज तो थे नही , हम भी हिंदी मे शुरु हो गये , अंग्रेजी बोलने का संकल्प गया तेल लेने। कुछ समय बाद दिल्ली मे दूसरी कंपनी मे पहुँचे, कोई अंतर नही आया। सब कुछ हिंदी मे ही चलता रहा, हद तो उस समय हो गयी जब तमिळ भाषी सुब्बु को हिंदी सीखा दी , उससे कुछ तमिळ सीख ली लेकिन अंग्रेजी नही। इस तरह से दिन चलते रहे, अंग्रेजी का भूत क़ाबू मे नही आ रहा था, या यूँ कहे कि हम क़ाबू मे नही करना चाह रहे थे।
2002 आई टी बाजार मे मंदी आयी, मेरी तत्कालीन कंपनी मे छंटनी शुरु हुयी। इसके पहले कि कंपनी हमे निकाले हम खुद ही निकल लिये। कंपनी के साथ जगह भी बदली। दिल्ली से पहुँच गये चेन्नई। यहाँ का वातावरण दिल्ली से अलग था, कंपनी मे बहुभाषीय वातावरण था। किसी भी सहकर्मी से बात करनी हो तो अंग्रेजी का ही प्रयोग होता था। मेरी टीम मे केवल विक्रम ही अकेला था जिसे हिंदी आती थी, बाकि सभी हिंदी मे शून्य बँटा सन्नाटा। मरता क्या ना करता अंग्रेजी मे बात करना पड़ रहा था, धीमे धीमे अंग्रेजी सुधरने लगी। छह महिने हुये थे कि बॉस ने कहा कि तुम्हें प्रोजेक्ट मे तीन महिने के लिये अमेरिका जाना है। मेरी हालत खराब, भारत मे बड़ी मुश्किल से अंग्रेजी मे वार्तालाप करना सीखा है, लेकिन अमेरिका मे क्या होगा? सोचा जब चेन्नई मे लोगो ने अपनी अंग्रेजी झेल ली , अमेरीका मे भी झेल लेंगे।
वीसा आया , टिकट आया और हम उड़ चले, स्टैमफोर्ड कनेक्टीकट के लिये। भारत से उड़ान थी, तो विमान मे सारी उद्घोषणा हिंदी मे भी हो रही थी, वैसे भी हमे समस्या अंग्रेजी बोलने मे थी, लिखने पढ़ने, सुनने और समझने मे कोई समस्या नही थी। हमारी यात्रा का दूसरा चरण पेरिस से न्यूयार्क था, वहाँ से टैक्सी से स्टैमफोर्ड जाना था। टैक्सी वाले से कैसे बात करना है, होटल पहुँचने पर स्वागत कक्ष मे कैसे बात करनी है, सब सोच रखा था, दो तीन बार रिहर्सल भी की थी। न्यूयार्क मे अप्रवासन डेस्क पर कैसे बात करनी है, वह भी रट रखा था। कंंपनी मे सहयोगियों ने डरा रखा था कि यहां पर बहुत से उल्टे सीधे प्रश्न पुछे जाते है। 9/11 हुये ज्यादा दिन नही हुये थे। हमने सभी संभावित प्रश्नो का रट्टा मारा हुआ था। लेकिन अप्रवासन डेस्क के महाशय शायद अच्छे मूड मे थे, पासपोर्ट देखा, मेरे चेहरे को देखा, बिना कुछ कहे पासपोर्ट पर ठप्पा लगा दिया। अमरीकियों पर अंग्रेजी झाड़ने का एक मौक़ा हाथ से गया!
हमने सोचा कोई बात नही, अब अमरीका मे ही हैं, तो और भी मौक़े आयेंगे। टैक्सी वाले से अंग्रेजी मे बात करते है। टैक्सी की क़तार मे लगे, टैक्सी चालक मिले, जोगिंदर सिंह। उन्होने हमारा चेहरा देखा और हमने उनका। उन्होने पहचान लिया देशी बंदा है पहली बार आया है, सीधे हिंदी मे पूछा ,
कहाँ जाना है भाई?
क़िस्मत ने फिर धोखा किया! जोगिंदर भाई सारे रास्ते हिंदी गाने सुनाते रहे, हिंदी मे बतियाते रहे। जोगिंदर भाई ने होटल के रिसेप्शन तक छोड़ा, सामने देखा कि एक देशी कन्या विराजमान थी, नाम पढ़ा 'मीना पटेल'! जैसे ही हमने कन्या के मुख से नमस्ते सुना, हमने माथा ठोंक लिया, और सोचा
"भाई , अमरीका मे अंग्रेजी झाड़ना तेरी क़िस्मत मे नही है।"
दूसरे दिन ऑफ़िस पहुँचे, सोचा कि यहाँ तो अंग्रेजी बोलनी ही पढ़ेगी। 16 घंटे हो गये अमरीका पहुँचे हुये , किसी से अंग्रेजी मे बात नही की थी, लग ही नही रहा था कि हम अमरीका मे है। मेरे एक सहयोगी मोहन ने कह रखा था कि वह मेरा आफिस के बाहर इंतजार करेगा। बाहर ही मोहन मिल गये, उन्होने मेरा परिचय पत्र बनवाकर रखा था। मोहन ने उसके बाद कहा कि चलो तुम्हें सब से मिला देता हुँ। सबसे पहले काफ़ी मशीन दिखायी, एक मग मे लिटर भर काली काफ़ी भर दी। मोहन हमे ठेस देशी ना समझ बैठे, इसलिये हमने बिना कुछ कहे काफ़ी ले ली। उसके बाद आफिस मे मे भ्रमण शुरु किया, ये राजेश है, ये विक्रम , ये विवेक, ये अलां, ये फ़लाँ! अब तक एक भी अंग्रेज़ से नही मिला था, ना ही अंग्रेजी सुनी थी। लग रहा था कि देश मे ही हुँ, बस कड़वी काफ़ी अमरीका मे होने की याद दिला रही थी। दोपहर मे कंपनी के डायरेक्टर "विलियम" से मिला जोकि अमरीकी था, बस उसी से अंग्रेजी मे बात हुयी, दिल को संतुष्टि मिली। बाद मे पता चला कि देशीयों की संगत मे डायरेक्टर भी हिन्दी समझ लेता था और टूटी-फूटी हिंदी बोल भी लेता था।
इस यात्रा मे तीन महीने अमरीका मे रहा, कभी नये मित्रों के साथ , कभी अकेले आवारागर्दी की। अकेले न्यूयार्क भी घूमा लेकिन कोई समस्या नही आयी। धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने मे मज़बूत ना होते हुये , किसी बात मे कोई परेशानी नही हुयी। अंग्रेजी का हौवा दूर हो गया था, उसके भूत पर क़ाबू पा लिया था। जो आत्मविश्वास देश मे नही मिला था, तीन महीने के अमेरिका प्रवास मे मिल गया था।
इस पहले विदेश प्रवास के बाद लगभग सारा विश्व घूमा , एक आत्मविश्वास के साथ, बिना डरे , बिना हिचकिचाहट के। भाषा की कहीं पर भी कोई समस्या नही आयी। मॉंट्रीयल, कनाडा मे तो फ़्रेंच भाषी लोगो से टूटी फूटी अंग्रेजी मिश्रित फ़्रेंच से काम चल गया। जान लिया था कि विचार संप्रेषण के लिये कोई भी विशेष भाषा आवश्यक नही होती है, बस आत्मविश्वास चाहिये।
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सुनीता पाण्डेय
सुनीता पाण्डेय