2 सितंबर 2015, सोमवार शाम मै वापिस बैंगलोर आने के लिये सपरिवार नागपुर एअरपोर्ट पहुंचा। एअरपोर्ट के अंदर आने पर पीछे से आवाज आई "आशीष भैया!"
पीछे मुडकर देखा एक बीस बाईस साल का युवक चला आ रहा है। पास आने पर उसने कहा "पहचाना ? मै ....."! थोड़ा समय लगा उसे पहचानने मे, आखीर मै उसे 17 वर्ष बाद देख रहा था। आखीरी बार जब मैने उसे देखा था तब वो और उसके मित्र गांव की गलियो मे कंचे, गुल्ली डंडा खेलते थे और नहर मे नंग धड़ंग नहाते थे।
उसे एअरपोर्ट पर देखकर एक सुखद आश्चर्य हुआ। मै उसकी पृष्ठभूमी से परिचित था। उसके दोनो चाचा मेरे सहपाठी रह चुके थे, मै आगे बढ़ता गया था और वे एक कक्षा मे एक साल, दो साल करते जैसे तैसे हाई स्कूल पहुंचने के बाद पढ़ाई छोड़ कर खेती-किसानी और मजदूरी मे लग गये थे। उसके पिता भी कृषि मजदूर ही थे।
मै पिछले सप्ताह ही गांव गया था। गांव मे सड़क पक्की हो गयी थी, जहाँ तहाँ डिश एंटीना भी दिख रहे थे, लोगो के हाथ मे मोबाईल भी दिख रहे थे। लेकिन यह सारी प्रगति एक छलावा सी लग रही थी, क्योंकि गांव का चौक जहाँ पर बसे रूकती थी अब वीरान हो चुका था। जिस जगह पर देर शाम तक रौनक रहती थी, कई दुकानें थी, अब उजाड़ था। गांव के अंदर भी लोगो को घरो के बुरे हाल थे। मेरे अधिकतर सहपाठी जिन्होने आगे पढ़ाई की थी वे अच्छी जिंदगी की तलाश मे गांव छोड़ चुके थे, और जो आगे नही पढ़ पाये थे वो तो हमारे कालेज के ही दिनो मे गांव छोड़ कर रोजगार की तलाश मे निकल लिये थे। केवल एक ही मित्र मिला था जो दर्जी का काम कर रहा था, मुझसे केवल दो तीन वर्ष बड़ा था लेकिन पचास से उपर का लग रहा था।
अपने इस गांव के ऐसे हालात देखे थे कि संपन्न परिवारों के लड़के ही पढ़ लिख कर आगे बढ़ रहे थे, बाकी केवल मजदूर ही बन रहे थे, चाहे कृषि मज़दूर हो या कारखाना मजदूर। ऐसे मे एक आर्थिक/शैक्षणिक दोनो तरह से पिछड़े परिवार की नयी पीढ़ी का एक नवयुवक हवाई यात्रा कर रहा है, मेरे लिये सुखद आश्चर्य से कम नही था।
मेरी दसंवी कक्षा (सन 1991) मे कुल 152 साथी थे। उसमे से केवल पांच ही आगे बढ़ पाये। दो इंजीनियर(मुझे लेकर) क्योंकि दोनो के पिता शिक्षक थे, तीन शिक्षक, जिसमे से दो के पिता धनी किसान थे और तिसरे के पिता मजदूर थे। इसमे से मजदूर पिता का पुत्र मेहनती था और एक डाक्टर के घर पर काम करता था तो उसे वातावरण अच्छा मिला, पढ़ाई के लिए अपना खर्च निकाल लेता था, जिससे उसे समस्या नही आयी। लेकिन बाकी 147 (40 लड़कीयाँ समेत) वहीं के वहीं रह गये। इनमे से सात-आठ परिवार के पास इतनी भूमि थी कि वे तरीके से कृषि कर पायें, बाकी केवल मजदूर बन कर रह गये।
आज जब मै अपने सहपाठीयों से मिलता हुं तो वे आंख मिलाकर बात नही कर पाते है, मुझे साहब कह कर बुलाते है और मै शर्म से गड़ जाता हुं। ऐसे वातावरण मे मुझसे अगली पीढ़ी हवाई यात्रा कर पा रही है एक आशा जगा रही थी। मेरी पीढ़ी जो नही कर पायी, मेरी अगली पीढ़ी कर रही है....
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