हमारी सबसे पहली साइकिल पापा की हरक्यूलिस साइकिल थी। जो पापा ने हमारे धरातल पर आने से दो साल पहले 1974 में 60 रुपये में ली थी। पापा इसी साइकल से दो किमी दूर स्कूल जाते थे।
इसी हरक्यूलिस साइकल पर हमने पहले कैंची चलाना सीखा। अगले चरण मे कैंची से डंडे पर बैठ कर साइकिल चलाई। सीट से पैडल तक पैर नही पहुंचते थे तो सीट पर से उचक उचक कर साइकिल चलाई। तब तक यह साइकल कबाड़ा हो चुकी थी।
1986-87 में पापा ने इस साइकल को बेचकर साबू साइकिल खरीदी। अंजाना सा ब्रांड था लेकिन साइकिल फ्रेम पर आठ साल की गारंटी दे रहा था। हम अपने स्कूल तब भी पैदल जाते थे। बस पापा के स्कूल जाने से पहले सुबह और शाम को उनके स्कूल से आने के बाद साइकिल हमे मिल जाती थी।
1989 में जब हम पापा के ही हाई स्कूल में पढ़ने पहुंचे तो पापा ने हीरो जेट साइकल ले ली और हमे साबू साइकल दे दी।
यह साबू साइकिल मेरे पास एक लंबे समय रही, हाई स्कूल से लेकर इंजीनियरिंग के पहले दो वर्षों तक । हाई स्कूल में रोज दो किमी दूर स्कूल जाते थे। दोपहर में घर आकर खाना भी खाते थे, जिसमे हम दो किमी की दूरी 5 मिनट से कम मे तय कर लेते थे। यह वह दौर था जब साईकिल पर काफ़ी सर्कस दिखाई। एक साईकिल पर आठ आठ लोग बैठकर गांव मे चक्कर लगाते थे। बिना हैंडल पर हाथ रखे साईकिल चलाने मे महारत हासिल की।
11 वी और 12 वी में दो वर्ष आठ किमी दूर आमगांव स्कूल में साबू का साथ बना रहा। इस दौरान कुछ लंबी साइकिल ट्रिप भी की, जिसमे 24 किमी दूर हाजरा फाल, 60 किमी दूर सिरपुर बांध की सैर भी थी।
स्कूली दिन बीते अब कालेज जाना हुआ, इंजीनियरिंग कालेज गोंदिया में था जो घर से 36 किमी दूर था। सबसे आसान और सस्ता साधन ट्रेन था। अब हम साबू से 8 किमी दूर आमगांव रेल्वे स्टेशन जाते थे। ट्रेन से गोंदिया रेलवे स्टेशन, उसके बाद 4 किमी पैदल कॉलेज। रेलवे स्टेशन से कॉलेज जाना बाद में भारी पड़ने लगा तो पापा ने नई हरक्यूलिस रॉक शॉक्स दिलवा दी। इस साईकिल के अगले पहियो के लिये शाक अब्जार्बर था, अब मजे थे।
इंजीनियरिंग के अंतिम दो वर्षों में गांव से गोंदिया आना जाना मुश्किल हो गया था, ट्रेन के इंतजार मे घंटो बर्बाद हो जाते थे। गोंदिया में ही छोटे भाई के साथ एक कमरा किराए से लेकर रहने लगे। कमरा कालेज के पास था तो साइकिल की आवश्यकता कम होने लगी थी। रॉक शॉक्स छोटे भाई ने हथिया ली। इस समय पापा को साइकल चलाने में परेशानी होने लगी थी। अब पापा का एक छात्र साबू से पापा को स्कूल ले जाता था और शाम को घर ले आता था।
1998 में पापा के जाने के बाद साबू को उसी छात्र के पास ही रहने दी।
इंजीनियरिंग पूरी हो गई थी। हम नौकरी करने लगे थे। कुछ समय मुंबई, उसके बाद दिल्ली , चेन्नई में रहे। इन तीनों स्थानो पर साइकिल खरीदने का आईडीया नही आया। लेकिन चेन्नई में रहते हुए बसों मे धक्के खाने के बाद अंतत: 2006 में अपनी पहली बाइक बजाज अवेंजर ले ली।
2007 में पुणे पहुंचे। अब ऑफिस घर से पाँच किमी दूर था। तमिलनाडु रजिस्ट्रेशन वाली अवेंजर बाइक से जाने पर कभी कभार ट्रैफिक पुलिस वाले परेशान करते थे। और साथ मे वजन बढ़ रहा था। तब हीरो रेंजर ले ली। साईकिल से आफ़िस जाते थे। शुरुवात मे कंपनी मे गार्ड ने परेशान किया, प्रबंधन से शिकायत करने के बाद कंपनी कैंपस मे साईकिल रखने की अनुमति मिल गई। पुणे में ज्यादा दिन नही रहे। शादी हुई और हम चल दिये हनीमून मनाने अमरीका। जाते समय रेंजर साइकिल वाचमैन को दे दी।
इसके बाद एक लंबे समय हम बेसाइकल रहे। सारी दुनिया देखी। 2013 में बैंगलोर भारत मे स्थाई रूप से बचने की योजना बनी। बजाज अवेंजर अब भी साथ थी। लेकिन अब साथ मे मम्मी, निवेदिता भी थे, गार्गी आने वाली थी। साइकिल या बाईक अब आवश्यकता पूरी नही कर पा रहे थे, कार की आवश्यकता महसूस होने पर पहली कार हुंडई i20 ले ली। लेकिन ऑफिस घर से डेढ़ किमी दूर था। कार या बाइक से जाने का मन नही होता था, तो फिर से साइकल लेने का मन हुआ। इसबार डेकाथलान से BTWIN साइकल लेली जिसमे एक ही गियर है।
तीन वर्ष बाद शहर के बाहर वाले घर मे आ गए। एक ऑफिस 12 किमी दूसरा 24 किमी दूर है, तो ऑफिस कार से जाना शुरू हुआ। इस दौरान कार भी बदल ली। i20 की जगह फोर्ड फिगो आटोमेटिक ले ली। बाइक अब भी वही 2006 वाली अवेंजर है। साइकिल अब सप्ताहांत को आवारागर्दी के काम आती है, 20 से 30 किमी चला लेते है। कभी कभार मूड होने पर इलेक्ट्रॉनिक सिटी ऑफिस चले जाते है। सोशल मिडीया मे कुछ साइक्लिंग ग्रुप के सदस्य है। इन ग्रुप के सदस्य होने के बाद पता चला कि हम पांच हजार वाली साइकिल मे खुश है लेकिन बहुत से लोगो के पास दो लाख तीन लाख वाली साइकिले भी है जिनके पहिये ही दस बीस हजार के आते है। अपना मन भी होता है कि एक अच्छी खासी गियर वाली साइकिल हो, लेकिन बाद मे सोचते है कि सप्ताह मे एक दिन चलाते हो, बाईक महिनो महिनो बाहर नही निकलती तो नया हाथी पालने का कोई अर्थ नही है।
लेकिन मन ने बहुत जोर मारा तो तो इस साइकिल को अपग्रेड कर फोल्डिंग साइकिल लेंगे जो कार की डिक्की में समा सके।
इसी हरक्यूलिस साइकल पर हमने पहले कैंची चलाना सीखा। अगले चरण मे कैंची से डंडे पर बैठ कर साइकिल चलाई। सीट से पैडल तक पैर नही पहुंचते थे तो सीट पर से उचक उचक कर साइकिल चलाई। तब तक यह साइकल कबाड़ा हो चुकी थी।
1986-87 में पापा ने इस साइकल को बेचकर साबू साइकिल खरीदी। अंजाना सा ब्रांड था लेकिन साइकिल फ्रेम पर आठ साल की गारंटी दे रहा था। हम अपने स्कूल तब भी पैदल जाते थे। बस पापा के स्कूल जाने से पहले सुबह और शाम को उनके स्कूल से आने के बाद साइकिल हमे मिल जाती थी।
1989 में जब हम पापा के ही हाई स्कूल में पढ़ने पहुंचे तो पापा ने हीरो जेट साइकल ले ली और हमे साबू साइकल दे दी।
यह साबू साइकिल मेरे पास एक लंबे समय रही, हाई स्कूल से लेकर इंजीनियरिंग के पहले दो वर्षों तक । हाई स्कूल में रोज दो किमी दूर स्कूल जाते थे। दोपहर में घर आकर खाना भी खाते थे, जिसमे हम दो किमी की दूरी 5 मिनट से कम मे तय कर लेते थे। यह वह दौर था जब साईकिल पर काफ़ी सर्कस दिखाई। एक साईकिल पर आठ आठ लोग बैठकर गांव मे चक्कर लगाते थे। बिना हैंडल पर हाथ रखे साईकिल चलाने मे महारत हासिल की।
11 वी और 12 वी में दो वर्ष आठ किमी दूर आमगांव स्कूल में साबू का साथ बना रहा। इस दौरान कुछ लंबी साइकिल ट्रिप भी की, जिसमे 24 किमी दूर हाजरा फाल, 60 किमी दूर सिरपुर बांध की सैर भी थी।
स्कूली दिन बीते अब कालेज जाना हुआ, इंजीनियरिंग कालेज गोंदिया में था जो घर से 36 किमी दूर था। सबसे आसान और सस्ता साधन ट्रेन था। अब हम साबू से 8 किमी दूर आमगांव रेल्वे स्टेशन जाते थे। ट्रेन से गोंदिया रेलवे स्टेशन, उसके बाद 4 किमी पैदल कॉलेज। रेलवे स्टेशन से कॉलेज जाना बाद में भारी पड़ने लगा तो पापा ने नई हरक्यूलिस रॉक शॉक्स दिलवा दी। इस साईकिल के अगले पहियो के लिये शाक अब्जार्बर था, अब मजे थे।
इंजीनियरिंग के अंतिम दो वर्षों में गांव से गोंदिया आना जाना मुश्किल हो गया था, ट्रेन के इंतजार मे घंटो बर्बाद हो जाते थे। गोंदिया में ही छोटे भाई के साथ एक कमरा किराए से लेकर रहने लगे। कमरा कालेज के पास था तो साइकिल की आवश्यकता कम होने लगी थी। रॉक शॉक्स छोटे भाई ने हथिया ली। इस समय पापा को साइकल चलाने में परेशानी होने लगी थी। अब पापा का एक छात्र साबू से पापा को स्कूल ले जाता था और शाम को घर ले आता था।
1998 में पापा के जाने के बाद साबू को उसी छात्र के पास ही रहने दी।
इंजीनियरिंग पूरी हो गई थी। हम नौकरी करने लगे थे। कुछ समय मुंबई, उसके बाद दिल्ली , चेन्नई में रहे। इन तीनों स्थानो पर साइकिल खरीदने का आईडीया नही आया। लेकिन चेन्नई में रहते हुए बसों मे धक्के खाने के बाद अंतत: 2006 में अपनी पहली बाइक बजाज अवेंजर ले ली।
2007 में पुणे पहुंचे। अब ऑफिस घर से पाँच किमी दूर था। तमिलनाडु रजिस्ट्रेशन वाली अवेंजर बाइक से जाने पर कभी कभार ट्रैफिक पुलिस वाले परेशान करते थे। और साथ मे वजन बढ़ रहा था। तब हीरो रेंजर ले ली। साईकिल से आफ़िस जाते थे। शुरुवात मे कंपनी मे गार्ड ने परेशान किया, प्रबंधन से शिकायत करने के बाद कंपनी कैंपस मे साईकिल रखने की अनुमति मिल गई। पुणे में ज्यादा दिन नही रहे। शादी हुई और हम चल दिये हनीमून मनाने अमरीका। जाते समय रेंजर साइकिल वाचमैन को दे दी।
इसके बाद एक लंबे समय हम बेसाइकल रहे। सारी दुनिया देखी। 2013 में बैंगलोर भारत मे स्थाई रूप से बचने की योजना बनी। बजाज अवेंजर अब भी साथ थी। लेकिन अब साथ मे मम्मी, निवेदिता भी थे, गार्गी आने वाली थी। साइकिल या बाईक अब आवश्यकता पूरी नही कर पा रहे थे, कार की आवश्यकता महसूस होने पर पहली कार हुंडई i20 ले ली। लेकिन ऑफिस घर से डेढ़ किमी दूर था। कार या बाइक से जाने का मन नही होता था, तो फिर से साइकल लेने का मन हुआ। इसबार डेकाथलान से BTWIN साइकल लेली जिसमे एक ही गियर है।
तीन वर्ष बाद शहर के बाहर वाले घर मे आ गए। एक ऑफिस 12 किमी दूसरा 24 किमी दूर है, तो ऑफिस कार से जाना शुरू हुआ। इस दौरान कार भी बदल ली। i20 की जगह फोर्ड फिगो आटोमेटिक ले ली। बाइक अब भी वही 2006 वाली अवेंजर है। साइकिल अब सप्ताहांत को आवारागर्दी के काम आती है, 20 से 30 किमी चला लेते है। कभी कभार मूड होने पर इलेक्ट्रॉनिक सिटी ऑफिस चले जाते है। सोशल मिडीया मे कुछ साइक्लिंग ग्रुप के सदस्य है। इन ग्रुप के सदस्य होने के बाद पता चला कि हम पांच हजार वाली साइकिल मे खुश है लेकिन बहुत से लोगो के पास दो लाख तीन लाख वाली साइकिले भी है जिनके पहिये ही दस बीस हजार के आते है। अपना मन भी होता है कि एक अच्छी खासी गियर वाली साइकिल हो, लेकिन बाद मे सोचते है कि सप्ताह मे एक दिन चलाते हो, बाईक महिनो महिनो बाहर नही निकलती तो नया हाथी पालने का कोई अर्थ नही है।
लेकिन मन ने बहुत जोर मारा तो तो इस साइकिल को अपग्रेड कर फोल्डिंग साइकिल लेंगे जो कार की डिक्की में समा सके।
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