गांव मे बरसात के मौसम मे कृषि कार्य के मध्य मे आने वाले त्योहारों मे से एक मुख्य त्योहार था कजलीया/भोजली। यह त्योहार राखी के दूसरे दिन मनाया जाता है। गांव मे राखी त्योहार केवल बच्चो और पुरोहितों के लिये था। आम लोगो का त्योहार तो कजलीया/भोजली ही था। इस त्योहार मे गेहुं को छोटी टोकरीयों मे बोया जाता है। अंधेरे मे गेंहुं के पौधे सूर्यप्रकाश की कमी से पीलापन लिये उगते है, इन्ही पौधो को कजलीयाँ कहा जाता है।
राखी के दूसरे दिन शाम को इन कजलीयों की टोकरी को हर घर के आंगन मे रखा जाता है। उनकी पूजा होती है। उसके पश्चात गांव के किसी एक छोर से गांव की भजनमंडली शोभायात्रा शुरु करती। भजनमंडली हर घर के सामने खड़ी होती, उस घर की महिलायें अपने सर पर कजलीयाँ रखे जुलुस मे शामिल होते जाती। सारे गांव से कजलीयों को जमा करने के बाद यह यात्रा गांव के छोर पर तालाब के पास रुकती।
इस जुलुस मे सारे गांव वाले अच्छे कपड़े पहन कर होते थे। बच्चे रंग बिरंगी राखी बांधे हुये मिलते थे। कुछ बच्चे और युवा उंची उंची गेड़ी(पावड़ी) पर सवार होकर साथ रहते थे।
गांव के छोर पर तालाब था, पूजा के बाद महिलाये टोकरी धोकर उससे कजलीयों को निकाल कर ले आती थी। अब इन कजलीयों को एक दूसरे को बांटा जाता था। हम उम्र एक दूसरे को कजलीयों को देकर गले मिलते है, बड़ो के चरणस्पर्श करते है।
यह त्योहार यहीं पर समाप्त नही होता था, इसके बाद सब का एक दूसरे के घर जाना शुरु होता था। एक दूसरे के घर जाकर कजलीयों का आदानप्रदान, गले मिलना, चरणस्पर्श जारी रहता था।
बाद मे देखा कि शहरी जीवन मे राखी का त्योहार प्रमुख होता है लेकिन ग्रामीण जीवन के परिप्रेक्ष्य मे कजलीया ही प्रमुख था।
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