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वह अपनी आधी जिंदगी जी चुकी थी!

 मेरे प्राथमिक स्कूल का नाम : हिन्दी पूर्व माध्यमिक शाला झालिया 

स्कूल मे बच्चे अब टाई लगाते है !

महाराष्ट्र के गोंदिया जिले के चुनिंदा सरकारी हिन्दी माध्यम के स्कूलों मे से एक। अधिकतर स्कूल मराठी माध्यम के हुआ करते थे। यह स्कूल कक्षा 1 से कक्षा 7 तक का(पूर्व माध्यमिक) था। जब तक हम कक्षा पाँच पहुंचे , हर कक्षा मे दो सेक्शन हो गए थे। लेकिन कुल कमरे पाँच ही थे, दो छप्पर मिलाकर भी 7 ही होते थे, कक्षाएं दोगुनी! इसलिए पाठशाला दो पारीयों मे लगने लगी थी। कक्षा 1 से 4 सुबह की पारी में सुबह साढ़े सात से ग्यारह तक, कक्षा पाँच से सात दोपहर 11 से शाम के पाँच तक की पारी में। शनिवार को क्रम उल्टा होता था, सुबह की पारी की कक्षायें दोपहर में और दोपहर वाली सुबह में।

स्कूल गाँव के बाहर था। स्कूल के सामने बड़ा सा मैदान था जिसके बीच मे एक कुँआ था। स्कूल के पीछे और दायें ओर नहर बहती थी। नहर के पीछे एक पहाड़ी और उसके बाजू मे बड़ा सा मैदान था, जिसे झण्डा टेकरा कहते थे। दोपहर मे हम अक्सर इस पहाड़ी पर चढ़ जाते थे, पहाड़ी के सबसे ऊंचे पत्थर से छह सात किमी दूरी पर की रेलवे पटरीयों पर से जाती रेल गाड़ी दिख जाती थी।
स्कूल चले हम !

स्कूल मे फर्नीचर नहीं था, सारी कक्षाओं मे बच्चे जमीन पर बैठते थे। कुछ कक्षाओ मे दो फुट चौड़ी टाट पट्टी लंबी दरी होती थी, जिस पर बड़ी कक्षाओं वाले बैठते थे, लेकिन अधिकतर कक्षाओ मे बच्चे घर से टाट की बोरी लाते थे।
सर्दियों मे कक्षा बाहर धूप मे लगती थी। बारिश मे स्कूल की छत चूती थी तो अधिक बारिश होने पर छूटटी हो जाती थी।
स्कूल मे यूनिफ़ॉर्म था, सफेद शर्ट और नीला पैंट। लड़कीयों के लिए सफेद शर्ट और नीली स्कर्ट। लेकिन शिक्षकों ने यूनिफ़ार्म अनिवार्य नहीं किया था। अधिकतर छात्रों की आर्थिक स्तिथि नहीं होती थी कि यूनिफ़ॉर्म बनवा सके तो जिसे जो मिलता था वही पहन कर आते थे। स्कूल बैग, जूते , चप्पल, बेल्ट या टाई जैसे चोंचले भी नहीं थे।
बहती नाक खिसकती पैन्ट और झोले मे कापी किताबे भरे छात्र स्कूल आते थे। दोपहर मे 1:30 से दो बजे की लंबी छुट्टी होती थी। इस समय मे जिनके घर पास होते थे वे घर जाकर खाना खा आते थे। बाकी सुबह स्कूल आते समय जो खाया उसे को खा कर रहते थे, उन्हें शाम के पाँच बजे छूटटी होने पर घर जाने पर ही खाने मिल पाता था। कभी कभार मौसमी उपलब्धता पर अमरूद, ककड़ी स्कूल मे बिकने आती थी उसे खा लेते थे।
सभी बच्चे और शिक्षक हर महीने की सात तारीख का बेसब्री से इंतजार करते थे। इस दिन शिक्षकों को वेतन मिलता था, जिसे लेने उन्हे तहसील मुख्यालय सालेकसा जाना होता था। उस समय बैंक खाते में वेतन जमा होने वाली सुविधा या वर्तमान की अनिवार्यता नहीं थी, वेतन नगद मिलता था। इस दिन दोनों पारीयों की कक्षाएं एक साथ सुबह की पारी मे लगती थी, आधी इमारत मे , बाकी बाहर मैदान मे। तीन चार कक्षाओ के बाद छुट्टी!

हमारा स्कूल का दौर!
ऐसा था हमारा स्कूल!

1980 से 1987 तक यानी कक्षा 1 से 7 तक हम इसी स्कूल मे पढ़े। मेरी कक्षा मे झालिया और उसके आसपास के चार पाँच गाँव/टोलों साखरीटोला, गोंडिटोला, पोवारीटोला, चिचटोला और सावंगी के साठ बच्चे थे जिसमे बीस के आसपास लड़कीयां थी। अधिकतर कृषक, कृषि मजदूर परिवार से। मेरे जैसे शिक्षित परिवार से आनेवाले बच्चे कम थे। कुल जमा छः सात! इन साठ मे से यही छः सात ही आगे पढ़ पाए थे, ग्रेजूएशन कर पाए थे। इनमे से मेरे अतिरिक्त बाकी लोगों मे दो शिक्षक है, दो के मेडिकल स्टोर है, बस! बाकी सारे के सारे या तो पैतृक व्यवसाय मे लगे है, कृषि, कृषि मजदूरी कर रहे है, या बड़े शहरों मे जाकर मजदूरी कर रहे है। 20 लड़कीयो मे से चार पाँच ही हाई स्कूल तक जा पाई और उनमे से केवल दो ग्रेजुएट हो पाई। ये दोनों भी इसलिए ग्रेजुएट हो पाई क्योंकि इनके पिताजी भी शिक्षक थे और पूर्व जमींदार थे।
मेरे दिल्ली के दिनों में गांव का हर तीन चार महीनों में चक्कर लग जाता था, तब तक मेरे कपड़े पैंट और शर्ट मेरा सहपाठी ही सिलता था। उसके पास मैं दो तीन पैंट शर्ट का कपड़ा पटक देता था और दूसरे दिन देने कहता था। वह रातभर जाग कर मेरे दिल्ली के लिए निकलने से पहले कपड़े तैयार कर देता था।
हम आगे पढ़ते रहे, हाई स्कूल किया, उसके बाद इंजीयनिरिंग की। 1998 मे गाँव से निकल लिए, पहली नौकरी मे दिल्ली जा पहुंचे। तब तक गाँव मे छोटा भाई, मम्मी और दो बहनों के साथ रहता था। पहली दीपावली मे लंबी छुट्टी लेकर गाँव पहुंचे। दिल्ली से नागपूर तक ट्रेन से आए, नागपूर से गोंदिया आने ट्रेन बदली। गोंदिया से गाँव बस से आए।
बस से उतरे, तो सामने एक महिला दिखी, साथ मे सात आठ साल के दो बच्चे थे। चेहरा जाना पहचाना सा लगा! कुछ देर तक घूरते रहे, नहीं पहचान पाए। सूटकेस उठाकर घर की ओर बढ़े तो, वह खुद बोल उठी
"आशीष नहीं पहचाना! मै ..... सांतवी तक साथ मे पढ़ी थी!"
हम मुंह बाये खड़े थे! हम जैसे तैसे अपने पैरों पर खड़े हो रहे थे और वह मेरी सहपाठी अपनी आधी जिंदगी जी चुकी थी!

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