मैने प्रेमचन्द को कबसे पढ्ना शुरू किया ठीक से याद नही, लेकिन जब से भी शुरू किया उनकी हर रचना ने मेरे दिल को छुवा. मैने उनमे एक ऐसा लेखक मह्सुस किया था जिसने जिन्दगी के हर पहलु को चित्रीत किया था. चाहे वो उफनता प्यार मोहब्ब्त हो(प्रेमपचिसी), चाहे वो जंग के मैदान मे बहता खुन हो, बचपन की मासुम बचकाना हरकते हो(गुल्ली-डंडा), या बचपन मे आयी परिपक्वता हो(ईदगाह)., बुढापे का असहाय जिवन(बुढी काकी), धर्म के नाप पर लुट(गोदान, सवा सेर गेंहु) , हास्य व्यंगय(पं मोटेराम शास्त्री की डायरी)………
"ईदगाह" शायद मेरी सबसे पहली प्रेमचन्द रचित कहानी थी, जो मैने कक्षा ४ मे पढी थी.
हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे।
औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍंगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
उसके बाद अगली कहानी भी मैने अपने पाठ्यक़्रम मे ही पढी "गुल्ली डंडा". और ये तो कहानी नही तो मेरा खुद का बचपन है.
वह प्रात:काल घर से निकल जाना, वह पेड़ पर चढ़कर टहनियॉँ काटना और गुल्ली-डंडे बनाना, वह उत्साह, वह खिलाड़ियों के जमघटे, वह पदना और पदाना, वह लड़ाई-झगड़े, वह सरल स्वभाव, जिससे छूत्-अछूत, अमीर-गरीब का बिल्कुल भेद न रहता था, जिसमें अमीराना चोचलों की, प्रदर्शन की, अभिमान की गुंजाइश ही न थी, यह उसी वक्त भूलेगा जब .... जब ...।
इसी कहानी का ये भी हिस्सा भी मेरा अपना अतीत है,मै भी तो एसे ही गप्प हाँका करता था(शायद आज भी)
लड़कों में जीट उड़ा रहा था, वहॉँ ऐसे घर थोड़े ही होते हैं। ऐसे-ऐसे ऊँचे घर हैं कि आसमान से बातें करते हैं। वहॉँ के अँगरेजी स्कूल में कोई मास्टर लड़कों को पीटे, तो उसे जेहल हो जाए। मेरे मित्रों की फैली हुई ऑंखे और चकित मुद्रा बतला रही थी कि मैं उनकी निगाह में कितना स्पर्द्घा हो रही थी! मानो कह रहे थे-तु भागवान हो भाई, जाओ। हमें तो इसी ऊजड़ ग्राम में जीना भी है और मरना भी।
आप भी अपने स्कुली जिवन की ओर झांकिये क्या आपको "बडे भाई साहब" का ये अंश आपका अतीत(वर्तमान) नही लगता ?
मगर टाइम-टेबिल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले ही दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हलके-हलके झोके, फुटबाल की उछल-कूद, कबड्डी के वह दांव-घात, वाली-बाल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिर्वाय रूप से खीच ले जाती और वहां जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आंखफोड पुस्तके किसी कि याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता।
क्या आपको अपने आसपास ऐसे विद्यार्थी नही मिले
मेरे भाई साहब मुझसे पॉँच साल बडे थे, लेकिन तीन दरजे आगे। उन्होने भी उसी उम्र में पढना शुरू किया था जब मैने शुरू किया; लेकिन तालीम जैसे महत्व के मामले में वह जल्दीबाजी से काम लेना पसंद न करते थे। इस भवन कि बुनियाद खूब मजबूत डालना चाहते थे जिस पर आलीशान महल बन सके। एक साल का काम दो साल में करते थे। कभी-कभी तीन साल भी लग जाते थे। बुनियाद ही पुख्ता न हो, तो मकान कैसे पाएदार बने।
जब मै कक्षा ८ मे पहुंचा तब तक मुझे पढने का चस्का लग चुका था. पापा ने मुझे मानसरोवर ला कर दी. प्रेमचन्द के लेखन की कुछ और झलकिँया देखीए. इटली के महान स्वतंत्रता सेनानी "मेज़ीनी" की प्रेमकथा "सांसारिक प्रेम और देशप्रेम".
मैजिनी पर भी उस वक्त जवानी छाई हुई थी, देश की चिन्ताओं ने अभी दिल ठंडा नहीं किया था। जवानी की पुरजोश उम्मीदें दिल में लहरें मार रही थीं, मगर उसने संकल्प कर लिया था कि मैं देश और जाति पर अपने को न्यौछावर कर दूंगा। और इस संकल्प पर कायम रहा। एक ऐसी सुंदर युवती के नाजुक-नाजुक होंठों से ऐसी दरख्वास्त सुनकर रद्द कर देना मैजिनी ही जैसे संकल्प के पक्के, हियाब के पूरे आदमी का काम था।
क्या प्रेमचन्द के इस्लामी जेहाद पर विचार देखिये
तू इन को कापिर कहता है और समझाता है कि तू इन्हें कत्ल करके खुदा और इस्लाम की खिदमत कर रहा है ?
क्या इस्लाम जंजीरों में बंधे हुए कैदियों के कत्ल की इजाजत देता है खुदाने अगर तूझे ताकत दी है, अख्ितयार दिया है तो क्या इसीलिए कि तू खुदा के बन्दों का खून बहाए क्या गुनाहगारों को कत्ल करके तू उन्हें सीधे रास्ते पर ले जाएगा।
प्रेमचन्द पर लिखने के लिए तो काफी कुछ है, बाकी फीर कभी ..........
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