आज एक अच्छी खासी बहस छिडी हुयी है आरक्षण पर। हर कोई अपने अपने तर्क-कुतर्क दिये जा रहा है। लेकिन क्या किसी ने अपने तर्को तथ्यो और आकंडो से प्रमाणीत करने की कोशीश की है ? पक्ष या विपक्ष मे जितने भी तर्क दिये जा रहे है वह वैज्ञानिक/सांख्यकिक तथ्यो पर आधारीत ना हो कर भावनाओ पर आधारीत है।
जैसा कि आप जानते है , आरक्षण सिर्फ और सिर्फ १० सालो के लिये लागु किया गया था। अब यह आरक्षण ५७ वर्षो से चला आ रहा है। क्या किसी समाज विज्ञानी ने इस आरक्षण व्यवस्था का परिणाम जानने की कोशीश की है ? यहां पर हम समाज विज्ञानी या किसी अर्थशाश्त्री द्वारा किये गये शोध की बात कर रहे जो कि किसी भी पक्षपात से दूर हो ।
बहस की शुरूवात के लिये क्या हमे सभी शिक्षण संस्थानो से जो कि अभी २२.५ % आरक्षण दे रहे है से छात्रो के सामाजिक और आर्थीक प्रोफाईल के आधार पर आंकडे प्राप्त कर सकते हैं ? कितने एस सी या एस टी छात्र कालेज मे है ? कितने छात्र ऐसे है जिनकी परिवार की वार्षिक आय एक लाख रूपये से कम है ? कितने छात्र ग्रामीण है कितने शहरी है ?
यह सभी आंकडे उपलब्ध है, लेकिन इन आंकडो का उल्लेख अपने तर्को मे कोई नही कर रहा है ! एक अच्छा, सामयिक और प्रामाणिक शोध इस पुस्तक मे उपलब्ध है ‘’Reservation and Private Sector: Quest for Equal Opportunity and Growth’
त्रुटीपूर्ण आंकडो का मायाजाल
आरक्षण पर आधारीत सारी बहस इस (कु)तर्क पर आधारीत है कि भारत की जनसंख्या का ५२% भाग “ओ बी सी” है। ईंडियन एक्स्प्रेस मे एक लेख “ABC of OBC” के अनुसार ११ श्रेणीयो का उपयोग करने के बाद , आयोग ने ३७४३ जातियो को “ओ बी सी” पाया । सन १९३१ के बाद जातिगत आधार पर जनसंख्या के आंकडे उपलब्ध नही होने से आयोग ने उन्ही आंकडो का प्रयोग कर “ऒ बी सी” की जनगणना की। इस तरह से हिन्दू और गैर हिन्दू “ओ बी सी” की जनसंख्या कुल जनसंख्या का ५२ % निर्धारित की गयी।
यह सब मेरी समझ से बाहर है ! ६० साल से ज्यादा पूराने आंकडो का प्रयोग इतना महत्वपूर्ण निर्णय लेने मे कैसे किया जा सकता है ? और जब इस तरह से निर्णय लेना था तब १९९१ या २००१ मे जातिगत आधार पर जनगणना क्यों नही की गयी ?
२००१ की जनगणना के आंकडो से उम्र, लिंग, धर्म , वैवाहिक स्थीती, शैक्षिक स्थिती और विकलांगता की जान्कारी प्राप्त की जा सकती है। लेकिन जातिगत आधार पर सिर्फ SC/ST के ही आंकडे है !
खैर एक और संस्थान है। “National Commission for Backward Classes” ध्यान दे यहां पर CLASS शब्द का उपयोग किया गया है, CASTE का नही। वर्ग का मतलब जाति नही होता है।
NCBC पिछ्डे वर्गो को परिभाषीत करने के लिये एक नयी परिभाषा का प्रयोग कर सकता था। (उदाहरण के लिये कच्चे मकान मे रह रहा परिवार, भूमीहीन, पिने की पानी की अनुप्लब्धता = १, जाति व्यवस्था से दूर) लेकिन नही, उन्होने विशेष जातियो को पिछडे वर्गो मे परिभाषीत करना जारी रखा ।
NCBC के आंकडो मे से गुजरात की जातिसूची को देखें| यदि मैने ठीक समझा है तो ठाकुर, नायक, पूरी, और गोस्वामी पिछडे वर्गो मे आते है ! इस सूची को तैयार करने के लिये क्या NCBC ने जनगणना की तरह पूरी विशाल प्रक्रिया दोहरायी है ? इसमे कितना विज्ञान है और कितनी राजनिती ?
जे एन यू के प्रोफेसर प्रदिप्त चौधरी के इस विषय की जटीलता को रेखांकित करने वाले इस शोधपत्र को देखें। यह निरीक्षण इस सदी की शुरूवात का नही पिछली सदी की शूरूवात का है।
“सोनार, हलवाई और कलवार इन तिन ओ बी सी जातियो की साक्षरता की दर राजपूत, टागा, भट और कन्डू इन अगडी जातियो से काफी ज्यादा है। उसी तरह से आर्थीक आधार पर ओ बी सी की पांच जातिया सोनार, जाट, गुज्जर, किसान और माली अगडी जातियो राजपूत और ब्राम्हण जो कि हिन्दू जनसंख्या का पांचवा भाग है से बेहतर है । दो SC जातियां खटीक और दूसाध मे साक्षरता दर अधिकतर ओ बी सी जातियो से ज्यादा है।”लेखक ने अंत मे लिखा है
“२० वी सदी की शूरूवात मे उत्तर प्रदेश जैसे पिछ्डे इलाको मे भी, साक्षरता दर और आर्थीक स्थीती मे जातिगत आधार पर काफी असमानता थी। उंची जातिया का मतलब अधिक साक्षरता या आर्थीक संपन्नता नही था। उसी तरह निची जातिया जैसे गुज्जर, सोनार,किसान,और माली आर्थीक रूप से संपन्न थी।
जाति ने पिछडी जातियो को आर्थिक आधार पर बढने के मार्ग पर कोई अवरोध नही खडा किया था। ५००० साल तक शिक्षण परंपरा के बाद भी उत्तर प्रदेश की ब्राम्हण जनसंख्या मे १९११ तक साक्षरता दर १२% थी; जो कि सबसे ज्यादा शिक्षीत जाति समझी जाती है।”
मै चाहता हु कि इन जैसे विद्वान जो तथ्य आधारीत तर्क देते है भावनात्मक नही को टी वी शो मे बहस के लिये आमण्त्रीत किया जाना चाहिये।
लेकिन तथ्य एक अच्छा टी वी शो नही बना सकते जो कि भावनात्मक ड्रामे बाजी से बनता है। प्रदीप्त चौधरी ने लिखा है
“जातिगत राजनिती के पक्षधर कहते है कि OBC और SC पिछ्डेपन के मानक पर क्रम से रख कर पिछडा, अति पिछडा जैसे वर्गो मे विभाजीत किया जाये। आरक्षण के कुल कोटे मे हर वर्ग के लिये कोटा निर्धारित किया जाये। यह सभी समस्याओ का हल है।अब आप खुद सोचिये जातिगत बिभाजन कितना तर्क संगत है ?
लेकिन एक जाति के मे भी परिवारो की आर्थीक स्थीतियो मे काफी विचलन है, दूसरे शब्दो मे काफी असमानता है। एक जाति मे भी काफी सारे आर्थीक वर्ग है।”
छोटे भूमी वाले किसान या छोटे व्यव्सायी, भूमीहिन मजदूर हर जाति का एक बडा भाग है। उसी तरह हर जाति आर्थीक रूप से संपन्न , छोटा या बडा एक वर्ग है।
क्या पिछडी जाति के सभी लोग शैक्षणीक या आर्थीक रूप से विकलांग है ? सही मायनो मे पिछ्डी जातियो मे भी एक अच्छा खासा विभाजन या वर्गीकरण है। इस पिछ्डी जातियो मे भी अंतर्जातिय सामाजिक और आर्थीक भेदभाव है। पिछडी जातियो मे भी आर्थिक रूप से संपन्न परिवार अगडी जातियो की परंपराओ की नकल करते है, जैसे बाल विवाह, विधवा पूनर्विवाह का विरोध , दहेज इत्यादि”
हमारा भविष्य कैसा होना चाहिये ? जाति व्यवस्था पर विभाजित भारत या पिछ्डे वर्गो के उत्थान मे लगा भारत ?
आज की नयी पिढी के लिये जाति अर्थहिन होना चाहिये। लेकिन आज वह फिर से सबके सिर चढकर बोल रहा है। और इस व्यवस्था मे भारत का पहले ही काफी नुकसान कर दिया है । अब और नही । जाति अब मुद्दा नही होना चाहिये !
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4 टिप्पणीयां “आरक्षण : आर्थिक आधार पर क्यों होना चाहिये ?” पर
गम्भीर विषय पर एक अच्छा गम्भीर लेख.
sanjay | joglikhi द्वारा दिनांक अप्रैल 13th, 2006
बढ़िया लिखे हो आशीष भाई। समस्या होती है तब जब नेता लोग वोट बटोरने के लिए इन तथाकथित पिछड़ी जातियों को प्रसन्न करने की कोशिश करते हैं और ये लोग भी बड़े समझदार होते हैं, आखिर अपना भला होता किसे अच्छा नहीं लगता!! आरक्षण का अर्थ इनके लिए बिना मेहनत किए मेहनती लोगों को अंगूठा दिखा के सफ़लता प्राप्त करना मात्र रह गया है। यह समस्या तब तक नहीं सुलझती जब तक प्रशासन को ज्ञान प्राप्त नहीं होता!!
Amit द्वारा दिनांक अप्रैल 14th, 2006
अर्जुन सिन्ह ऐक हारा हुआ ईन्सान है सोनिया का पालतू है। पिछले दस सालो मे ऐक चुनाव नही जीत सका। जिन्दगी भर जमकर किया कुकाम और बुढापे मे हुआ जुकाम। चुरहट लाटरी हो या भोपाल गैस कान्ड या फिर हो सीधी मे चुनाव मे गडबड, ईनके पाप का ठीकरा कब फूटेगा भगवान
raj द्वारा दिनांक अप्रैल 18th, 2006
एक सरकारी अफसर का बेटा (ST Class का ), जो कभी पहले मेरे क्लास में कभी पहले १० में भी नही था Engineering Entrance Exam के जरिये अच्छे college admission मिल गया, वहीं के गरीब ब्राह्मन का बेटा Exam ही नही दे पाया क्यों कि उसके पास fees के लिये पैसे नही थे। आप इसे क्या कहेंगे।
पंकज कुमार द्वारा दिनांक अप्रैल 28th, 2006
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